सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा श्रीराम, अध्याय – 11( क) राम हमारी श्रद्धा के केन्द्र क्यों ?

रामचंद्र जी को भारत के लोगों ने अपनी श्रद्धा और आस्था का केंद्र बनाकर पूजा है।  पिछले अध्यायों में हमने इस बात पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है कि वह हमारी श्रद्धा और आस्था के केंद्र क्यों बन गए ? निश्चित रूप से उनका महान व्यक्तित्व ही इसके लिए उत्तरदायीहै । अब इस अध्याय में हम श्रीराम के उन महान गुणों पर चर्चा करेंगे ,जिनके चलते वह हमारी श्रद्धा का केंद्र बने।
   हम भारतवासियों की यह प्राचीन परंपरा रही है कि हम दिव्य गुणों और भव्य व्यक्तित्व के स्वामी महापुरुषों का ही वंदन अभिनंदन और नमन करते आए हैं । हमने किसी उस पाखंडी ‘रावण’ को नहीं पूजा जो वैसे तो वेदों का विद्वान था परंतु आचरण से भ्रष्ट था । हमने किसी ऐसे दुर्योधन को भी महानता का खिताब प्रदान नहीं किया जो दिखने में तो हस्तिनापुर जैसे विशाल साम्राज्य का युवराज था परंतु वैसे चरित्रभ्रष्ट और धर्म भ्रष्ट था। हमने हर उस व्यक्तित्व का पूजन किया है जिसने अपने दिव्य गुणों से संसार का उपकार किया। जिसने संसार में मानवता को स्थापित करने के लिए धर्मानुकूल आचरण करते हुए अनेकों कष्ट सहे और कभी भी धर्मभ्रष्ट नहीं हुआ।

पूजन उसका श्रेष्ठ है जिसका श्रेष्ठ व्यवहार।
आर्य वही संसार में – मिटाता मिथ्याचार।।

      श्रीराम के जीवन चरित्र पर यदि प्रकाश डाला जाए तो पता चलता है कि वह मातृ- पितृ भक्ति में असीम श्रद्धा रखते थे। उनकी मातृ-पितृभक्ति आज भी संसार के प्रत्येक युवा के लिए आदर्श और प्रेरणा का स्रोत हो सकती है। शिष्ट आचरण वाले बच्चे यदि आज भी माता पिता के प्रति वैसा ही श्रद्धा भाव रखने लगें तो समाज का स्वरूप ही परिवर्तित हो जाएगा । श्री राम ने अपने पिता के प्रति असीम श्रद्धा का प्रकटन कदम – कदम पर किया है। चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति क्यों ना हों, उन्होंने अपना प्रत्येक कार्य पिता के अनुकूल निष्पादित करने का ही कार्य किया ।क्योंकि वह इस बात को भली प्रकार जानते थे कि  पुत्र को पिता का ही अनुव्रती होना चाहिए । पिता के प्रति इस प्रकार की असीम श्रद्धा और समर्पण रखने वाला पुत्र ही उसका योग्य उत्तराधिकारी होता है । जो पुत्र अपने पिता की अवज्ञा करने और उसे कदम -कदम पर कष्ट देने वाला होता है उससे कभी भी यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह संसार के लिए उपयोगी हो सकता है।
   श्रीराम जिस प्रकार अपने पिता के प्रति श्रद्धालु थे उसी प्रकार वह अपनी माताओं के प्रति भी श्रद्धालु रहे। माता कैकेयी और सुमित्रा के प्रति भी उनके हृदय में उतना ही श्रद्धा भाव है, जितना अपनी माता कौशल्या के लिए है। उन्होंने कभी भी अपनी माता कौशल्या से अलग सुमित्रा और कैकेयी के प्रति कभी भी तिरस्कार या उपेक्षा का भाव प्रकट नहीं किया। यदि तीनों माताओं में से पहले चरण स्पर्श करने की बात कहीं आयी तो उन्होंने माता कौशल्या के रहते हुए भी पहले माता कैकेयी को चरण स्पर्श किया।
   माता पिता के प्रति इस प्रकार के श्रद्धाभाव से पता चलता है कि भारत के वैदिक समाज में जिस पितृ यज्ञ की प्रशंसा की गई है, उसमें श्रीराम की गहरी निष्ठा है। वैदिक आदर्श के अनुसार उनकी इस बात में गहरी श्रद्धा है कि जीवित माता पिता की श्रद्धापूर्वक सेवा करना ही उनका सच्चा श्राद्ध है। वह प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक अपने माता पिता और गुरु के श्री चरणों में नमन करना कभी भूलते नहीं थे। उनकी सेवा सुश्रुषा और तर्पण को वे अपने यशस्वी जीवन व्यवहार से करके दिखाते थे। माता -पिता की पूर्ण तृप्ति अर्थात संतुष्टि को ही वह उनका तर्पण मानते थे। इस प्रकार श्रीराम सनातन के नाम पर आज जिस प्रकार श्राद्ध और तर्पण की वेदविधि विरुद्ध उल्टी-सीधी मान्यताएं स्थापित हो गई हैं ,उनके विरोधी होते। वह बड़ों का आशीर्वाद लेकर आयु, विद्या ,यश और बल की वृद्धि करने में विश्वास रखते थे। निश्चित रूप से वह समाज में ऐसी ही व्यवस्था आज भी करते। जिससे समाज में अभिवादनशील युवाओं का निर्माण होता। ऐसे ही समाज से भरत अपनी दिव्यता और भव्यता को प्राप्त करता और संसार का मार्गदर्शन करने के लिए अपने विश्व गुरु के पद पर सहज ही सुशोभित हो गया होता।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम सत्य के लिए जीते रहे।
माता-पिता के भक्त बन सदा सोमरस पीते रहे।।
आयुर्विद्या यशो बलम का लूट लिया अंबार ।
अभिवादनशील विनम्र रहे अपनाया सदाचार।।

माता पिता के प्रति अभिवादनशील होने का अभिप्राय है कि उनके प्रति हमेशा इस प्रकार का बर्ताव करते रहो कि वह प्रसन्न रहें। क्योंकि प्रसन्नता की अवस्था में ही उनके अंतर्मन से निकला शुभाशीर्वाद हमारे जीवन का कल्याण कर सकता है। भगवान श्रीराम जब अपने माता-पिता के सान्निध्य और सामीप्य में रहते थे तो उनकी प्रसन्नता का हर क्षण ध्यान रखते थे । इसी प्रकार वह अपने गुरुजनों के पास जब होते थे तो उनकी भी प्रसन्नता का हर प्रकार से ध्यान रखते थे । यह एक ऐसा मौलिक भाव विचार है जो बच्चों के भीतर अच्छे संस्कारों को जन्म देता है। इससे दूसरों की प्रसन्नता को अपनी प्रसन्नता समझना और उसे अपने लिए आशीर्वाद समझने की दिव्य भावना का विकास होता है। जब हम इस प्रकार का आचरण अपने माता-पिता के प्रति करते हैं तो उनके अंतर्मन का हमारे आंतरिक जगत से एक बहुत ही उत्तम श्रेणी का तारतम्य स्थापित जाता है । इस तारतम्य की अवस्था का हमें कभी बोध नहीं होता और भीतरी जगत का भीतरी जगत से एक ऐसा अटूट व्यापार का रिश्ता बन जाता है जिसमें बहुत बड़ा लंदन होता रहता है। पर उसकी किसी को जानकारी नहीं होती। माता-पिता के हृदय से निकले शुभाशीर्वाद को सीधे हमारा आंतरिक जगत ग्रहण करता है। ऐसी स्थिति में हम बहुत मालामाल हो जाते हैं। हमारे साथ बहुत कुछ ऐसा जुड़ जाता है जो हमें नहीं दिखता पर हमारी आत्मा उसकी अनुभूति करती है।
इसी प्रकार जब हम माता पिता के प्रति अवज्ञा का भाव रखते हैं या उनकी उपेक्षा कर उनका तिरस्कार करते हैं तो उस समय भी हमारा आंतरिक जगत माता पिता के आंतरिक जगत से अपना तारतम्य स्थापित कर लेता है। यद्यपि ऐसी स्थिति में माता-पिता के उदासी के भाव हमारे आंतरिक जगत को कंगाल कर देते हैं। 
    माता पिता और गुरुजनों के प्रति अभिवादनशील बने रहने की दिव्य भावना हमें दूसरों के प्रति कर्तव्यशील बनने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी दिव्य भावना से कभी भी समाज में अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं होता और ना ही किसी के अधिकारों का हनन और शोषण होता है।

अदृश्य जगत का लेन देन प्रभावित करता अंतर्मन को।
जो लोग समझ नहीं पाते हैं वे जलाकर राख करें तन को।।

  जिस समय कैकेयी ने अपना त्रिया रूप दिखाकर राजा दशरथ को इस बात के लिए दबाव में लिया कि रामचंद्र जी को 14 वर्ष का वनवास और उसके पुत्र भरत को राज्य सिंहासन दिया जाए तो उउन्होंने कैकेयी को बहुत समझाने का प्रयास किया। इसके उपरांत भी जब वह नहीं मानी तो राजा दशरथ इस बात को लेकर बहुत अधिक दु:खी हुए और वह लगभग मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़े। राजा दशरथ के लिए यह सब कुछ अप्रत्याशित हो रहा था। उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके पुत्र श्री राम को एक दिन वन भेजने की मांग उनकी पत्नी कैकेयी कर डालेगी ? वैसे भी वह श्री राम को जिन राक्षसों के संहार के लिए तैयार कर रहे थे, श्री राम के वन जाने से उन्हें अपना यह मनोरथ पूर्ण होने वाला नहीं दिख रहा था। राजा दशरथ को यह बात बहुत अधिक दुखी कर रही थी उन्होंने जिस मनोरथ को लेकर श्रीराम का निर्माण किया था वह अब कभी पूर्ण होने वाला नहीं है। यह अलग बात है कि श्रीराम को नियति ने अपने आप ही उस रास्ते पर डाल दिया जिसके लिए उनके पिता दशरथ के द्वारा उनका निर्माण किया गया था।

काल बड़ा बलवान है रचता नए विधान।
समझ न पाता मन मेरा , है बड़ा नादान ।।

इसके बाद कैकेयी ने श्रीराम को अपने उस कक्ष में आमंत्रित किया जिसमें राजा दशरथ मूर्च्छित हुए धरती पर पड़े हुए थे। श्री राम ने वहां उपस्थित होकर जिन शब्दों का प्रयोग किया वह उनकी मातृ – पितृ भक्ति को तो प्रकट करते ही हैं साथ ही हमें भी बहुत कुछ शिक्षा देते हैं। उन्होंने कहा कि -“माता! मुझे पिताजी ने इस समय यहां पर क्यों बुलाया है ? मुझे याद करने का उनका प्रयोजन क्या है? पिताजी को ऐसा क्या हो गया है कि वह इतने दु:खी दिखाई दे रहे हैं ? क्योंकि हमने तो ऐसा कोई भी काम नहीं किया है जिससे पिताजी को इस प्रकार की पीड़ा झेलनी पड़े।”
माता पिता के प्रति ऐसी बात कोई सुसंस्कृत पुत्र ही कह सकता है। जिसे अपने आप पर पूर्ण विश्वास होता है कि वह कोई भी ऐसा कार्य सपने में भी नहीं करेगा जो माता-पिता को दु:ख देने वाला हो। रामचंद्र जी के इन शब्दों को सुनकर कैकेयी ने कहा कि  ” राम ! सच्चाई यह है कि तुम्हारे पिताजी तुमसे कुछ कहना चाहते हैं, पर तुम्हारे डर के कारण वह अपने मन की बात को तुम्हारे सामने प्रकट नहीं कर पा रहे हैं।”
कैकेयी इस समय फिर चालाकी खेल रही थी। वह राजा को तो लगभग परास्त कर चुकी थी, अब श्री राम को परास्त करना उसके लिए शेष था। उसके लिए वह उपयुक्त अवसर तो खोज चुकी थी पर अब उपयुक्त शब्दों का भी प्रयोग करके उन्हें अपने अधीन कर लेना चाहती थी। बस, अपने इसी मनोरथ की प्राप्ति के लिए उसने इन शब्दों का प्रयोग किया। इस कथन को सुनकर रामचंद्र जी आवेश में आ जाते हैं। तब उन्होंने कहा कि “हे माता ! मुझे धिक्कार है जो आप ऐसी संकोच और संदेह भरी बातें कहती हैं। मैं अपने पिता की आज्ञा से आग में कूदने के लिए भी तैयार हूं। हलाहल विष पीने और जीवन समाप्त कर देने वाले समुद्र में डूबने को भी मैं हमेशा तत्पर हूं । चाहे जो भी हो पिताजी मुझे जो आज्ञा करेंगे मैं उसे अवश्य मानूंगा । माता ! आप यह भी स्मरण रखें कि राम कभी दो वचन नहीं बोलता अर्थात जो एक बार कह देता है उसे अवश्य पूरा करता है।”

मैं पिता की आज्ञा पाकर माता पीने को हलाहल तत्पर हूं।
संकोच संदेह की बातें छोड़ो – मैं दास रूप में हाजिर हूं।।
पिता जो भी करें आदेश मुझे मैं सहर्ष उसी को मानूंगा।
यदि मृत्यु को गले लगाना पड़े तो सौभाग्य उसी को जानूंगा।।

   इस प्रकार के वार्तालाप से यह स्पष्ट हो जाता है कि रामचंद्र जी पिता की स्पष्ट आज्ञा प्राप्त करके वन नहीं गए थे, बल्कि उन्होंने पिता पर माता कैकेयी के द्वारा बनाए गए दबाव को कम करने के दृष्टिगत वन जाने का निर्णय स्वयं लिया था। उनके इस निर्णय में पिता के प्रति असीम श्रद्धा और भक्ति का भाव झलकता है। जब उनकी माता कौशल्या ने उन्हें समझाया कि तुम्हें वन नहीं जाना चाहिए तो उन्होंने अपनी माता को भी बड़ी विनम्रता के साथ जो कुछ समझाया उससे भी पता चलता है कि वह माता कौशल्या के प्रति भी असीम श्रद्धा और भक्ति का भाव रखते थे। उन्होंने कहा था कि -“माता ! मैं आपके चरणों में सिर रखकर आपसे यह प्रार्थना करता हूं कि आप प्रसन्न हूजिये। मुझमें पिता के वचन टालने की शक्ति तनिक भी नहीं है। अतः मैं वन जाना चाहता हूं।”
   राम के इन शब्दों में जहां पिता के प्रति असीम भक्ति है वहीं माता के प्रति असीम श्रद्धा भी है। उन्होंने बड़े सहज भाव से माता को यह समझा दिया कि पिता जो भी आदेश कर रहे हैं उन्हें वह सहर्ष स्वीकार करने में ही अपना और अपने परिवार का भला देख रहे हैं। रामचंद्र जी मर्यादा के प्रतीक हैं। इसलिए उन्हें भारतीय वांग्मय में मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है। उन्होंने कभी भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। यहां तक कि कैकेयी के प्रति भी उन्होंने कभी कोई दुर्भाव नहीं पाला और उसकी दासी मंथरा के प्रति भी सदैव सहज, सरल और विनम्र बने रहे ।
     जब भरत उन्हें वन से लौटाने के लिए वन में पहुंचे तो भरत ने माता कैकेयी के विरुद्ध कुछ अपशब्दों का प्रयोग किया। जिन्हें सुनकर रामचंद्र जी ने भरत को बड़े सहज भाव से समझाया -” भैया ! माता कैकेयी ने जो कुछ किया, तुम उसको कभी अपने मन में नहीं लाना। मां के साथ वैसा ही व्यवहार करना जैसा पूजनीय माताओं के साथ हमको करना चाहिए।”
    राम यह भली प्रकार जानते थे कि जिस माता कैकेयी ने कभी जीवन में उनके प्रति कोई दुर्भाव नहीं रखा। हो सकता है कि वह आज किसी षड्यंत्र का शिकार होकर ऐसा कुछ कर रही है जो अनपेक्षित है । इसके लिए उसे दंडित किया जाना उचित नहीं । वे यह भी जानते थे कि माता कैकेयी यदि ऐसा पुत्रमोह में भी कर रही है तो भी उन्हें घर की शांति को बनाए रखने के लिए माता की इस इच्छा का भी सम्मान करना चाहिए। वह नहीं चाहते थे कि राजगद्दी के चक्कर में भाइयों में आपस में तकरार हो और कोई सा भाई किसी दूसरे भाई की हत्या का अपराधी बन जाए। यह बहुत बड़ा गुण है , जो श्री रामचंद्र जी के व्यक्तित्व को और भी अधिक चमकदार बनाता है।
रामचंद्र जी की  मर्यादा के प्रति इसी प्रकार की अटूट भावना ने उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बनाया। अत्यंत विषम परिस्थितियों में भी वह कभी विचलित नहीं हुए। जिन्होंने उनके प्रति शत्रुता या घृणा का भाव रखा उन्हें भी उन्होंने क्षमा कर दिया। उनकी शत्रुता केवल उन लोगों से थी जो संसार की व्यवस्था में किसी भी प्रकार की बाधा डालते थे अथवा राष्ट्र और समाज में लोगों का जीना कठिन करते थे । व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने अनेकों लोगों को क्षमा किया और आगे बढ़ गए। जबकि आज उल्टा हो रहा है। लोग राष्ट्रीय जीवन के विषय में नहीं सोचते । व्यक्तिगत जीवन में आने वाली छोटी- मोटी बातों को जीवन के लिए बोझ बना लेते हैं और इसी प्रकार के बोझ को उठाते – उठाते मर जाते हैं। श्री राम यदि आज होते तो निश्चय ही इसी प्रकार की मर्यादा का पाठ देश के नागरिकों को पढ़ाने की व्यवस्था करते जिससे वे राष्ट्र और समाज के प्रति समर्पित होकर जीवन जीने की प्रेरणा लें और व्यक्तिगत जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव को जीवन पर किसी प्रकार का बोझ न बनने दें।

जीवन बोझ न बन सके करो यही उपचार।
देश-धर्म आगे बढ़ें और गीत गाय संसार।।

    रामचंद्र जी अपने जीवन में अपने भाइयों के प्रति असीम प्रेम भाव प्रकट करते रहे। वह निष्पाप हृदय थे। उन्होंने भाइयों के प्रति प्रेम – भाव प्रकट करने का नाटक नहीं किया अपितु उसे हृदय की गहराइयों से प्रकट किया। वह अपने प्रत्येक भाई को आत्मीय भाव से प्रेम करते थे। उनका भ्रातृ-प्रेम आज तक भारत वासियों के लिए आदर्श और प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। भाइयों के प्रति अपने इस प्रकार के असीम प्रेम का वह खाने- पीने की चीजों तक में भी प्रदर्शन करते थे। यदि उन्हें कोई चीज खाने पीने के लिए मिलती थी तो उसे  पहले वह अपने भाइयों को देना उचित मानते थे। जिस समय उनका राज्याभिषेक हो रहा था, उस समय उन्होंने लक्ष्मण से कहा था – “लक्ष्मण ! तुम मेरे साथ पृथ्वी का शासन करो । तुम मेरे दूसरे अंतरात्मा हो। यह राजलक्ष्मी तुम्हें ही प्राप्त हुई है । सुमित्रानंदन ! तुम मनोवांछित भोग और राज्यफल का उपभोग करो। मैं जीवन और राज्य तेरे लिए ही चाहता हूं।”
उन्होंने राज्य जैसी चीज को भी अपने लिए नहीं माना। इसके विपरीत उन्होंने उस पर पर अपने प्रत्येक भाई का समान अधिकार माना। अपनी इसी पवित्र भावना को प्रकट करते हुए श्रीराम ने संसार से जाने से पहले अपने राज्य को अपने पुत्र लव और कुश के साथ-साथ अपने प्रत्येक भाई के पुत्र को भी समान रूप से दे दिया था। आज जब इंच- इंच भूमि पर भाई -भाई आपस में लड़ रहे हैं तब श्रीराम का यह आदर्श आज के सामाजिक मूल्यों की पतन की अवस्था को रोकने में बहुत अधिक सहायक सिद्ध हो सकता है।
  श्री राम अपने भाई भरत के प्रति उस समय भी अत्यंत आत्मीय भाव रखे हुए थे जिस समय भरत की माता ने उन्हें अयोध्या का राजा बनवाने में सफलता प्राप्त कर ली थी। जब भरत को अपने भाई श्रीराम के वनवास की सूचना प्राप्त हुई तो वह अत्यंत दु:खी हुए । उन्होंने अपने भाई श्रीराम को वन से वापस लाने का संकल्प लिया और अपने इसी मनोरथ को पूर्ण करने के लिए वह वन की ओर चल दिये । जब विशाल सेना, अधिकारियों व अयोध्या के नागरिकों के साथ भरत वन की ओर बढ़ रहे थे तो दूर से उनके साथ इतने लोगों की संख्या को देखकर लक्ष्मण को यह भ्रांति हो गई कि भरत के मन में घमंड आ गया है। वह श्रीराम पर हमला करने के दृष्टिकोण से अपने सैन्य बल सहित यहां पर आ रहा है। इस पर भ्रांति वश लक्ष्मण ने भरत के विरुद्ध अपशब्दों का प्रयोग करते हुए श्री राम से कहा कि भैया ! निश्चय ही भरत इस समय घमंड में है और वह आप पर हमला करने के उद्देश्य से यहां पर आ रहा है। यदि उसने ऐसा किया तो आज मैं उसका वध कर दूंगा।

भरत घमंडी हो गया चढ़ गया सिर पाखंड।
ऐसे अपराधी भरत को –  अब दूंगा मैं दंड।।

इस पर श्री राम ने बड़े आत्मीय भाव से जिन शब्दों को लक्ष्मण के समक्ष अभिव्यक्त किया, वह आज के लिए एक आदर्श व्यवस्था हो सकते हैं।आज रामराज्य की स्थापना यदि होती तो श्री राम के वे शब्द निश्चय ही हमारे लिए एक विधिक व्यवस्था का काम करते।
उन्होंने कहा था कि – “लक्ष्मण ! मैं सच्चाई से अपने आयुध्द की शपथ लेकर कहता हूं कि मैं धर्म ,अर्थ, काम और सारी पृथ्वी सब कुछ तुम्हारी तुम्हीं लोगों के लिए चाहता हूं अर्थात अपने भाइयों के आनंद और सुख के समक्ष मेरे लिए यह सब अर्थहीन है। लक्ष्मण ! मैं राज्य को भाइयों की भोग्य सामग्री मानता हूँ। राज्य को उनके सुख के लिए ही चाहता हूं। इससे अतिरिक्त मेरा कोई अन्य मनोरथ नहीं है। मेरे विनयी भाई ! भरत और शत्रुघ्न को छोड़कर यदि मुझे कोई भी सुख होता हो तो उसमें आग लग जाए अर्थात तुम भाइयों की कीमत पर मुझे संसार का कोई भी सुख नहीं चाहिए । मेरे लिए सबसे पहले अपने भाई हैं । मैं समझता हूं कि मेरे वन में आने की बात कान में पड़ते ही भरत का हृदय स्नेह से भर गया है। शोक से उसकी इंद्रियां व्याकुल हो गई हैं। अतः वह मुझे देखने के लिए आ रहा है। उसके आने का कोई दूसरा कारण नहीं है।
  लक्ष्मण !मुझे लगता है कि शायद तुम्हारे अपने मन में राज्य भोगने की इच्छा पैदा हो गई है । यदि तुम ऐसा सोचते हो तो मैं अपने महात्मा भाई भरत से उसके यहां पहुंचने पर कह दूंगा कि वह यह राज्य तुम्हें दे दे और तुम देखना कि वह मेरे कहने पर तुरंत ही यह राज्य तुम्हें सौंप देगा।”

भरत महात्मा श्रेष्ठ है निष्पापी मेरा भ्रात।
शक मत उस पर कीजिए नहीं करेगा घात।।

  लक्ष्मण को अपने कहे पर पश्चाताप हुआ और उस समय तो वह वेदना और पश्चाताप की आग में पूरी तरह जलने लगा जब उसने देखा कि भरत किस प्रकार विनयी भाव लेकर श्रीराम को वन से लौटा कर उन्हें अयोध्या के राज्यसिंहासन पर  बैठाने के लिए उनसे अनुनय – विनय करने लगा। जो लोग भी उस समय राम और भरत के उस मिलाप के साक्षी रहे थे वह इस बात पर भाव विभोर हो रहे थे कि दोनों भाइयों ने किस प्रकार साम्राज्य को फुटबॉल बना दिया था ? दोनों एक-दूसरे की ओर साम्राज्य को गेंद की भांति उछल रहे थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
     

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