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स्वयं में पूरा अर्थशास्त्र है गाय

cow_gaay_indian-cowडा. भरत झुनझुनवाला

गाय और भैंस के दूध की गुणवत्ता के अंतर को जनता तक पहुंचाना चाहिए। वर्तमान में उपलब्ध फैट की मात्रा के आधार पर दूध की खरीद होती है। फैट की होड़ में गाय पीछे रह जाती है। बच्चों को भैंस का दूध पिलाया जा रहा है और उनकी बुद्धि भी भैंस जैसी होती जा रही है। सरकार को चाहिए कि एक व्यापक शिक्षा कार्यक्रम लागू करे, जिसके माध्यम से गाय के गुणों से जनता को अवगत कराया जाए। लक्ष्य होना चाहिए कि गाय के दूध की मांग बढ़े और उसके दाम बढ़ें, जिससे किसान के लिए गाय को पालना लाभप्रद हो जाएज्महाराष्ट्र एवं हरियाणा की सरकारों ने गौ संरक्षण कानूनों को सख्त बना दिया है। सोच है कि गाय को कटने नहीं दिया जाएगा तो उसका संवद्र्धन होगा। इससे लोगों को गाय का पौष्टिक दूध मिलेगा। गांव की अर्थव्यवस्था भी सुधरेगी, लेकिन गाय को केवल कटने से बचाने से बात नहीं बनेगी। गाय को जीवित रखते हुए उसे कोमा में भी डाला जा सकता है। जरूरत है कि गाय समेत कृषि को सुदिशा दी जाए। हमारी संस्कृति में गाय की पूजा की जाती थी, क्योंकि वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की पूर्ति में मददगार थी। वह शामलाती चरागाहों में चराई करके गाय गोबर का उत्पादन करती थी, जिससे भूमि का स्वास्थ्य बना रहता था। यह धर्म हुआ। गाय दूध देती थी और बैल पैदा करती थी। बैल से खेती की जाती थी। यह अर्थ हुआ। गाय के दूध में सालिड नॉन फैट की मात्रा ज्यादा रहती है। ये मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए विशेषकर बुद्धि के विकास के लिए लाभदायक होते हैं। गाय का दूध पीने से लोगों का स्वास्थ्य अच्छा बना रहता था। यह काम हुआ। गाय के स्पर्श से मनुष्य का भगवान से संपर्क बनता है। यह मोक्ष हुआ। गाय से चारों पुरुषार्थों को हासिल करने में मदद मिलती थी। पिछले 50 वर्षों में गाय के इस अर्थशास्त्र में मौलिक परिवर्तन हो गया है। शामलाती चरागाह लुप्तप्राय हो गए हैं। पूर्व में इन चरागाहों से गाय चरान करके आती थी। उसे अतिरिक्त भोजन नहीं देना पड़ता था। घास को वह दूध और गोबर में परिवर्तित कर देती थी। गाय के गोबर से खाद बनाई जाती थी, जो खेत की उर्वरकता को बनाए रखती थी। बीते समय में शामलाती चरागाहों पर बाहुबलियों ने कब्जा कर लिया है। फलस्वरूप गाय को चराने के लिए घास उपलब्ध नहीं है। अब गाय केवल भूसे पर आश्रित हो गई है। चरागाह के अभाव में गोबर का उत्पादन कम हो रहा है। उपलब्ध गोबर खेत की उर्वरकता को बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। अत: किसानों को रासायनिक उर्वरकों का सहारा लेना पड़ रहा है। गाय को पालने की अनिवार्यता समाप्त हो गई है। साथ-साथ टै्रक्टर ने बैलों का सफाया कर दिया है। शहरों में तमाम रोजगार उत्पन्न होने के कारण गांव से पलायन हुआ है। गांव में श्रमिक उपलब्ध नहीं हैं। बच्चों की शिक्षा पर जोर देने से इनके द्वारा भी चराई नहीं कराई जा रही है। फलस्वरूप गाय को चराई के लिए ले जाना कठिन हो गया है। गाय को चरना पसंद है। भैंस को चरने के लिए नहीं ले जाना होता है। इसके अलावा भैंस के दूध में फैट ज्यादा होता है जो उपभोक्ता को पसंद है, यद्यपि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। महाराष्ट्र ने गाय की नर संतान यानी बछड़े का वध करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया है। ये बछड़े किसान के लिए तनिक भी उपयोगी नहीं हैं। भैंस की नर संतान का वध करना वर्जित नहीं है। भैंस को पालने से गाय के अवांछित बछड़े से किसान को मुक्ति मिल जाती है। इन अनेक कारणों से किसान भैंस को ज्यादा पसंद कर रहा है और गाय की संख्या कम होती जा रही है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की चौकड़ी में अर्थ बिदक गया है। गाय से भूमि का संरक्षण हो, बच्चों की बुद्धि बढ़े और वृद्धों को मोक्ष मिले तो भी किसान की आर्थिक स्थिति गड़बड़ा रही है। महाराजा रणजीत सिंह ने गौवध पर प्रतिबंध लगाया तो किसान की आर्थिकी को भी संभाला था। उस समय लोग स्वाद के लालच में गोमांस खाना चाहते थे। इस अल्पदर्शिता से जनता को ऊपर उठाने के लिए गौवध पर प्रतिबंध लगाया गया था। आज गाय के वध पर प्रतिबंध लगाने से किसान की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा रही है। ऐसे में गाय के वध पर प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं होगा। उन आर्थिक नीतियों को ठीक करना होगा जिनके कारण किसान के लिए गाय को पालना घाटे का सौदा हो गया है। गांव के शामलाती चरागाहों को विकासवादी माफिया से मुक्त कराना होगा। सीमांध्र की नई राजधानी के लिए अथवा गुडग़ांव के सॉफ्टवेयर पार्क बनाने के लिए अथवा मंत्रियों के चहेतों को लाभ पहुंचाने के लिए भूमि प्राप्त करने का सबसे अच्छा और आसान उपाय गांव के शामलाती चरागाहों पर कब्जा करना है। सभी राज्य सरकारों द्वारा शामलाती भूमि का बड़े पैमाने पर लैंड यूज में बदलाव करके शहरी कार्यों के लिए डायवर्ट किया जा रहा है। इसे बंद करना चाहिए। शामलाती चरागाहों को बाहुबलियों के कब्जे से मुक्त कराना चाहिए। रासायनिक उर्वरकों पर सबसिडी दी जा रही है।

साठ के दशक में देश के सामने खाद्यान्न की समस्या उत्पन्न हो गई थी। देश को शीघ्रातिशीघ्र खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाना था। उस समय रासायनिक उर्वरकों पर सबसिडी देकर इनका उपयोग बढ़ाया गया, जिसके बल पर आज देश अपनी जरूरत के खाद्यान्न पैदा कर रहा है। लेकिन उस आपद धर्म को हमने लंबे समय तक बढ़ा दिया है। आज हम पोटाश और फास्फेट का बड़ी मात्रा में आयात कर रहे हैं। इनके स्थान पर हमें भूसे और गोबर का आयात करना चाहिए। सस्ते आयातित भूसे को किसान को मुहैया कराने से गउओं की संख्या में वृद्धि होगी। इनके द्वारा उत्पादित गोबर से उर्वरकों की जरूरत को पूरा करना चाहिए। नब्बे के दशक में गोबर का आयात करने का प्रयास किया गया था। तब देश के बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया था, जो कि गलत था। फास्फेट का आयात करके अपनी भूमि को बर्बाद करने के स्थान पर गोबर का आयात करके अपनी भूमि की दीर्घकालीन उर्वरकता बनाए रखनी चाहिए। ऐसा करने से किसान को गोबर की उपयोगिता समझ आएगी और गाय की ओर रुझान बढ़ेगा। गाय और भैंस के दूध की गुणवत्ता के अंतर को जनता तक पहुंचाना चाहिए। वर्तमान में उपलब्ध फैट की मात्रा के आधार पर दूध की खरीद होती है। फैट की होड़ में गाय पीछे रह जाती है। बच्चों को भैंस का दूध पिलाया जा रहा है और उनकी बुद्धि भी भैंस जैसी होती जा रही है। सरकार को चाहिए कि एक व्यापक शिक्षा कार्यक्रम लागू करे, जिसके माध्यम से गाय के गुणों से जनता को अवगत कराया जाए। लक्ष्य होना चाहिए कि गाय के दूध की मांग बढ़े और उसके दाम बढ़ें, जिससे किसान के लिए गाय को पालना लाभप्रद हो जाए।

बैल की समस्या पेचीदा है। ट्रैक्टर के कारण बैल अनुपयोगी हो गए हैं। हमारे सामने कठिन चुनौती है। बैल का संरक्षण करेंगे तो गाय को पालना भी किसान के लिए हानिप्रद हो जाएगा। बिजली और डीजल पर सबसिडी देकर सरकार द्वारा ऊर्जा के इन स्रोतों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके स्थान पर भूसे पर सबसिडी देकर बैल के उपयोग को बढ़ाया जा सकता है। परंतु इस कदम की सफलता पर मुझे संदेह है, क्योंकि खेती में कुल ऊर्जा की जरूरत को बैलों के माध्यम से पूरा करना संभव नहीं लगता है। इस बिंदु पर गहराई से अध्ययन करने की जरूरत है। मूल बात यह है कि सरकार गौहत्या पर कितने भी प्रतिबंध लगा ले, यह सफल नहीं होगी। जरूरत ऐसी नीतियों को बनाने की है जिनसे गाय को रखना किसान के लिए लाभप्रद हो.

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