भारतीय संस्कृति में मानवाधिकार

rp_hands-300x227.pngअपने राष्ट्र की महान संस्कृति और उसकी मानवाधिकारवादी प्रकृति के प्रति कृतघ्नता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि लोग अपने देश को जंगलियों का देश मानकर ‘मैग्नाकार्टा’ और यू.एन.ओ. के घोषणापत्रों में मानवाधिकारों का अस्तित्व खोजते हैं। ऐसे लोगों की बुद्घि पर तरस आता है और क्षोभ भी होता है? तरस इसलिए आता है कि पढ़-लिखकर भी राष्ट्र की संस्कृति की महानता को ये समझ नहीं सके और न ही उसे विश्व की महानतम और श्रेष्ठतम संस्कृति सिद्घ करने के लिए उचित प्रयास कर सके। जबकि क्षोभ इसलिए उत्पन्न होता है कि राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों और कत्र्तव्यबोध् से हीन ये लोग ही राष्ट्र के वास्तविक शत्रु हैं।

भारत ऋषि मुनियों का, सन्तों का और दार्शनिकों का देश रहा है। इसकी संस्कृति के निर्माण में बहुत बड़े-बड़े त्यागियों और तपस्वियों का योगदान रहा है। इन त्यागी, तपस्वी महामानवों की श्रृंखला इतनी लम्बी है कि उसे लिखा नहीं जा सकता। एक अरब सत्तानवे करोड़ से अधिक वर्ष पुरानी इस मानव सभ्यता को मर्यादा और नैतिकता का पाठ केवल और केवल भारत ने ही पढ़ाया है। ये ‘मर्यादा’ और ‘नैतिकता’ दो शब्द ही ऐसे हैं कि जो मानवाधिकारों की सबसे उत्तम गारण्टी हैं। मैं स्वयं मर्यादा में रहूँ और नैतिकता का पालन करूँ तो यह स्वाभाविक है कि आपके अधिकारों का स्वयं ही संरक्षण हो जायेगा।

भारत ने मानवाधिकारों के लिए लडऩा नहीं सिखाया। अपितु मानव को मानव बनाने के लिए शिक्षा के बड़े-बड़े केन्द्र स्थापित किये। शिक्षक ऐसे कि जो स्वयं ही शिक्षा प्रदान करने के लिए नदियों के तट पर या पर्वतों की कन्दराओं में अथवा जंगलों के शान्त और एकान्त स्थान में अपना आश्रम अर्थात विद्या केन्द्र स्थापित कर लेते थे। ये लोग व्यक्ति के कत्र्तव्यवादी स्वरूप को निखारते थे। उसे मानवीय गुणों से भरते थे। अत: तब समाज में शोषण नहीं था, उत्पीडऩ नहीं था, अत्याचार नहीं था और कदाचार नहीं था। इन बातों के लिए हमें अपने वेदों को उपनिषदों को, नीतियों को, यथा विदुर नीति, शुक्रनीति स्मृतियों को यथा मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति रामायण, महाभारत, दर्शन शास्त्रों को देखना होगा। इन ग्रन्थों के अध्ययन से स्वयं स्पष्ट हो जायेगा कि भारत कितना मानवाधिकारवादी देश रहा है। भारत की ये मानवाध्किारवादी नीतियां संसार के लिए आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि अब से हजारों, लाखों ही नहीं अपितु करोड़ों वर्ष पूर्व थीं। संसार के सभी विद्वान इस बात से शत-प्रतिशत सहमत हैं कि ‘वेद’ विश्व की प्राचीनतम धरोहर हैं। अब यह बात समझ लेनी चाहिए कि यदि वेदों में हमारे लिए कुछ ज्ञान है तो वह भी तो सबसे प्राचीन हुआ। पुनश्च यह कैसे सम्भव है कि ‘मैग्नाकार्टा’ और यू.एन.ओ. जैसी विश्व संस्था द्वारा की गयी मानवाधिकारों की घोषणा ही मानवाधिकारों की दिशा में पहला और ठोस कदम है?

यदि ऐसा है तो फि र से भारत की सर्वमंगलकामनाकारी संस्कृति को आप क्या कहेंगे? इस सारे संसार को आर्य श्रेष्ठ बनाने वाली भारतीय संस्कृति को आप क्या कहेंगे?

सर्व मंगलकामना तभी सम्भव है कि जब आप उस दिशा में ठोस कार्य भी कर रहे हों। इसी प्रकार सारे संसार को आर्य बनाना भी तभी सम्भव है कि जब आप स्वयं श्रेष्ठता के कीत्र्तिमान स्थापित कर रहे हों। इन दोनों बातों को हमारे ऋषियों ने ‘धर्म’ शब्द के द्वारा हमारे भीतर स्थापित किया। यह धर्म हमें धरता है साधता है, हमे निखारता है, संवारता है। यही कारण है कि हर धर्मशील व्यक्ति दूसरों के अधिकारों का संरक्षण करता है और हर अधर्मी व्यक्ति दूसरों के अधिकारों का हनन करता है। इसीलिए कृष्णजी ने धर्मशील लोगों के कल्याण और अधिर्मयों के विनाश की बात ‘परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्टकृताम्’ का उद्घोष करके कही। मानवाधिकारों की रक्षा करके श्रेष्ठ-समाज आर्य समाज की रचना करने का इससे उत्तम उपाय और क्या हो सकता है। अस्तु। अपनी महान संस्कृति में मानवाध्किारों को किस प्रकार प्रमुखता दी गयी है, इस पुस्तक का प्रतिपाद्य विषय यही है। मैंने भारत की मानवाधिकारवादी संस्कृति के सागर से ‘दो-बूंदें’ ही ली हैं, सागर का मन्थन सुबुद्घ पाठक स्वयं करें। क्योंकि आपका मन्थनवादी चिन्तन ही मेरे परिश्रम का उचित पारितोषिक होगा।

भारत की संस्कृति मानवाधिकारवादी संस्कृति है। इसने अपना प्रारम्भ ही वेद के इस आदेश से किया है। ‘सत्यम वद धर्मम् चर’’ अर्थात सत्य बोल और धर्म का आचरण कर। सत्य और धर्म दोनों ही मानवाधिकारों की सुरक्षा की सबसे बड़ी प्रत्याभूति हैं। सत्य का अर्थ केवल सत्य बोलने तक लेना गलत होगा इसका वास्तविक अर्थ सत्याचरण को अपनाना भी होगा। सत्याचरण का अर्थ धर्मानुकूल व्यवहार सम्पादन होगा। इस प्रकार सत्य और ध्र्म मानवीय आचरण व्यवहार के एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ धर्म है वहाँ सत्य भी है और जहाँ सत्य है वहाँ धर्म भी है।

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