बोल सको तो विटप भी बोलो, कहां गये तुम्हारे पात?
आता पतझड़ धरती पर क्यों, उसे कौन बुलाने जाता है?

सजी संवारी धरती के, सारे गहने ले जाता है।
दुल्हन धरती को विधवा कर, तू जरा तरस नही खाता है।
लगता बसंत रोता गम में, जब मेघ बरसता आता है।

मेघ गर्जना बसंत का गुस्सा, है चपला भी आमर्ष में।
छोडूंगी नही पतझड़ तुमको,
क्यों विघ्न डाला ऋतुराज के हर्ष में
प्रकृति सहायक बसंत की, इस सारे संघर्ष में।

फिर लाती नूतन कलियां, कुछ दिवस महीने वर्ष में
ये अनवरत क्रम चलता रहता,
और कान में कुछ ऋतुएं कहतीं।

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