कांग्रेस का सिकुड़ता जनाधार देश और लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय


डॉ. वेदप्रताप वैदिक 

कांग्रेस से ही अन्य दलों ने भी सीखा है कि कोई भी सांसद संसद में अपनी स्वतंत्र राय प्रकट नहीं करता। उससे कोई पूछे कि तुम किसके प्रतिनिधि हो? अपने मतदाताओं के या अपनी पार्टी के ? तुम्हें संसद में चुनकर किसने भेजा है? जनता ने या तुम्हारी पार्टी ने?

भारतीय लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा चिंता का विषय क्या हो सकता है कि भारत में कोई सशक्त विरोधी दल नहीं है। इस खाली जगह को कांग्रेस भर सकती थी लेकिन वह निरंतर कमजोर होती जा रही है। भाजपा के बाद यही एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी है लेकिन इसकी प्रांतीय सरकारें और पार्टी शाखाएं भी अस्थिरता की शिकार हो रही हैं। पंजाब का मामला अभी तक अधर में लटका हुआ है और राजस्थान व छत्तीसगढ़ के बारे में लगातार अफवाहें उड़ती रहती हैं। संसद के दोनों सदनों में उसकी संख्या और गुणवत्ता इतनी घट गई है कि हमारा लोकतंत्र मूक-बधिर-सा हो गया है। 

कांग्रेस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी पार्टी रही है। इसी को श्रेय दिया जाता है कि इसने भारत को आज़ाद करवाया और इसने ही सारी दुनिया को अहिंसक आंदोलन की राह दिखाई। आज भी संसद और विधानसभा में इसका अस्तित्व चाहे सिकुड़ गया हो लेकिन भारत के लगभग हर जिले में इसके कार्यकर्त्ता मौजूद हैं। लेकिन इसकी दुर्दशा देखकर शंका होती है कि इस पार्टी की स्थापना 1885 में विदेश में जन्मे ए.ओ. ह्यूम ने की थी, कहीं इसका विसर्जन भी विदेश में जन्मी सोनिया गांधी के हाथों तो नहीं होगा? भारतीय लोकतंत्र के लिए यह इंदिरा गांधी के आपातकाल से भी अधिक खतरनाक घटना होगी।

यदि हम पिछले 50-55 साल के इतिहास को थोड़ी देर के लिए भूल जाएं तो हमें पता चलेगा कि कांग्रेस कोई संकरा संगठन नहीं थी। वह एक विशाल मंच थी। एक ऐसा मंच जिसमें विविध, विभिन्न और विरोधी विचारों के लोग एकजुट होकर आजादी के लिए लड़ते रहे। आजादी के बाद भी नेहरु और शास्त्री-काल में पार्टी में यह वैचारिक और वैयक्तिक सहिष्णुता बनी रही लेकिन अब कांग्रेस के पास क्या है? विचार के नाम पर उसके पास शून्य है। न तो वह अपने को समाजवादी कह सकती है, न पूंजीवादी और न राष्ट्रवादी! उसकी अपनी न तो कोई राष्ट्रीय दृष्टि है और न ही अंतरराष्ट्रीय दृष्टि!
जहां तक नेतृत्व का सवाल है, उसका स्वरूप बिल्कुल एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह हो गया है। क्योंकि कांग्रेस सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी रही है, सभी पार्टियाँ इसी की नकल पर चलने लगी हैं। यदि कांग्रेस माँ-बेटा पार्टी है तो उसकी टक्कर में भाई-भाई पार्टी है। प्रांतों में बाप-बेटा पार्टी, चाचा-भतीजा पार्टी, बुआ-भतीजा पार्टी, पति-पत्नी पार्टी, साला-जीजा पार्टी आदि खड़ी हो गई हैं। याने हमारे देश में पार्टियों ने अपने आंतरिक लोकतंत्र को सहज विदाई दे दी है।
कांग्रेस से ही अन्य दलों ने भी सीखा है कि कोई भी सांसद संसद में अपनी स्वतंत्र राय प्रकट नहीं करता। उससे कोई पूछे कि तुम किसके प्रतिनिधि हो? अपने मतदाताओं के या अपनी पार्टी के ? तुम्हें संसद में चुनकर किसने भेजा है? जनता ने या तुम्हारी पार्टी ने? जब हमारे सांसद अपनी पार्टी की बैठकों में ही खुलकर नहीं बोलते हैं तो वे संसद में कैसे बोलेंगे ? इस प्रवृत्ति का असर मंडिमंडल की बैठकों में भी साफ़-साफ़ दिखाई देता है। यदि ऐसा नहीं होता तो 1975 में आपातकाल थोपने का कोई एक मंत्री तो विरोध करता। यदि नोटबंदी पर मंत्रिमंडल में खुलकर बहस होती तो क्या इतनी नादानी का फैसला कोई सरकार कर सकती थी?
इंदिरा कांग्रेस के ज़माने में चली यह परंपरा आज भी कांग्रेस में ज्यों की त्यों कायम है। जब कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं द्वारा लिखे गए पत्र के आधार पर अगस्त 2020 में कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई तो राहुल गांधी की डाँट-फटकार ने सभी वरिष्ठ नेताओं की बोलती बंद कर दी। उसके बाद साल भर गुजर गया लेकिन कांग्रेस का अध्यक्ष पद अब भी अधर में लटका हुआ है। सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष की व्हीलचेयर पर बैठी हुई हैं और राहुल और प्रियंका उसे धकाए जा रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में योग्य नेताओं का अभाव है। ऐसे दर्जन भर कांग्रेसी नेताओं को मैं जानता हूँ, जो कांग्रेस को इस लकवाग्रस्त स्थिति से मुक्ति दिला सकते हें लेकिन वे भी हकला रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनके मुँह में जुबान नहीं है लेकिन जो जिंदगी भर अपने मालिकों को झुकझुक कर सलाम बजाते रहे, अब उनके सामने खम ठोक कर वे कैसे खड़े होंगे? उर्दू शायर मोमिन के शब्दों में ‘इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन! आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे?’

कांग्रेस में इस समय कोई शरद पवार और ममता बनर्जी जैसा नेता नहीं है, जो पारिवारिक नेतृत्व को चुनौती दे और अपनी स्वतंत्र सत्ता कायम कर ले। जो भी योग्य नेता हैं, वे बिखरती कांग्रेस को देखकर बेहद दुखी हैं लेकिन यह उनकी मजबूरी है। कांग्रेस के लाखों कार्यकर्ता कुछ बोलते नहीं हैं लेकिन परेशान हैं। वे कुछ नहीं कर सकते। ऐसे में यदि कांग्रेस को बचाया जा सकता है तो वह सोनिया-बुद्धि से ही बचाया जा सकता है। किसी ने ठीक ही कहा है कि ‘तुम्ही ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना’।
2004 में भाजपा की हार के बाद अचानक जीती कांग्रेस की प्रधानमंत्री बनने से सोनिया गांधी को कौन रोक सकता था लेकिन उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को आगे किया और खुद पीछे से डोरियां थामे रहीं। वह व्यवस्था 10 साल खिंच गई। अब जबकि कांग्रेस आखिरी सांस लेती दिखाई पड़ रही है, वही तुरूप का पत्ता उन्हें फिर से चलना पड़ेगा। राहुल और प्रियंका सक्रिय रहें लेकिन पार्टी की लगाम कुछ स्वच्छ और अनुभवी नेताओं के हाथ में रहे तो शायद आम जनता को कोई योग्य विकल्प भी दिख सकता है और ऐसे नेता दिशाहीन कांग्रेस पार्टी को कोई सुनिश्चित वैचारिक दिशा भी दे सकते हैं। इन नेताओं की नियुक्ति पार्टी के भीतर आम चुनाव द्वारा होनी चाहिए। यदि कांग्रेस के पास नेता और नीति दोनों हों तो हमारे प्रांतीय विपक्षी दलों का गठबंधन भी मजबूती से बन सकता है। यदि विपक्ष मजबूत होगा याने अंकुश जितना नुकीला होगा, हाथी उतना ही संभलकर चलेगा।

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