ब्रह्मचर्य से ही सदाचरण और सामाजिक संस्कृति की रक्षा होना संभव है

डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज

उत्तम ब्रह्मचर्य हमें सदाचरण और सामाजिक संस्कृति की सीख देता है। स्वयं में निवास करना, आत्म की पहचान करना ब्रह्मचर्य है। आत्मा ही ब्रह्म है, उस ब्रह्म स्वरूप आत्मा में चर्या करना, रमण करना वास्तविक ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य जो हमारी साधना का मूल है, सभी साधनाओं में ब्रह्मचर्य को सबसे प्रमुख स्थान दिया गया हैं। मनुष्यों की ऊर्जा इन्द्रिय-द्वारों से निरन्तर बाहर की ओर बहती रहती है। जिससे उसकी शक्ति क्षीण होती रहती है। ब्रह्मचर्य उस ऊर्जा को केन्द्रित कर आत्म स्फूर्ति प्रदान करता रहता है। तेजस्विता को बल प्रदान करता है। ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करने से शक्ति का संचार होता है, स्मरण शक्ति बढ़ती है और चेहरे पर चमक आती है। ब्रह्मचर्य धर्म के निर्वाह के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण रखना आवश्यक है।  ब्रह्मचर्य को धारण करने का मतलब स्त्री-पुरुषों का एक-दूसरे के संसर्ग से दूर रहना मात्र नहीं हैं अपितु शरीर की अशुचिता को समझकर काम से विरत होने का नाम ब्रह्मचर्य हैं। जिसकी दृष्टि आत्मा पर केंद्रित हो जाती हैं, उसके हृदय में ब्रह्मचर्य का विलास प्रकट होता हैं और जिसकी दृष्टि में केवल शरीर होता हैं वह भोग की वासना का शिकार बनता है।
शील वाढ़ नौ राख, ब्रह्मभाव अन्तर्लखो।
शीलव्रत को नौ वाढ़- जैसे खेत की सुरक्षा हेतु बाढ़ लगाई जाती है उसी तरह शील को नौ बढ़ों से सुरक्षित रखने की बात कही है। डॉ. श्रेयांस जी ने कहा है कि- शीलव्रत की सुरक्षा के लिए अधोलिखित नौ बातों का अवश्य ही पालन करना चाहिए। ये नौ कार्य शील की सुरक्षा के लिए बहुत आवश्यक हैं-
1. स्त्रियों के सम्पर्क से दूर रहना।
2. स्त्रियों के रूप और सौन्दर्य कोे विकार भाव से नहीं देखना।
3. स्त्रियों के साथ रागात्मक सम्भाषण से बचना।
4. पूर्व में भोगे हुए विषयों का स्वरूप स्मरण कर कथन नहीं करना।
5. कामोद्धीपक पदार्थों का सेवन नहीं करना।
6. कामशास्त्रों का पठन-पाठन व श्रवण नहीं करना।
7. परस़्ित्रयों के साथ शय्या आसन आदि पर नहीं बैठना।
8. कामभोग की कथा में आसक्ति नहीं करना।
9. कामोत्तेजक भोजन नहीं करना।
इन शील रक्षा के उपायों का जो पालन करता है उसका ब्रह्मचर्य पूर्ण सुरक्षित रहता है। महाभारत में कहा गया है कि ‘परं तत्सर्व धर्मेभ्यस्तेन यान्ति परां गतिम्’ अर्थात् ब्रह्मचर्य सब धर्मों में सर्वश्रेष्ठ धर्म है और इससे परम पद की प्राप्ति होती है। इसीलिए दशधर्मों में इसे सबसे अन्तिम धर्म के रूप में कहा है। सभी धर्मों का यह फल है।
हमें तुलसीदास जी के जीवन का वो प्रसंग हमेशा याद रखना चाहिए जब तुलसीदास जी अपने विवाह के उपरांत अपनी धर्मपत्नी के विछोह को नहीं सह पाए और बिना सूचना के रात-अंधेरे उससे मिलने की तत्परता में चल दिए। कहते हैं कि जब निकले तो नदी में प्रचुर पानी था, प्रवाह था और नदी उफान पर थी लेकिन मन में था कि मुझे प्रिया से मिलना है, प्रिया से मिलना है, प्रिया से मिलना है, कोई सहारा नहीं मिला, बिजली चमकी और कुछ तैरता हुआ तख्ता सा दिखाई पड़ा, उसके सहारे ही तैरकर नदी के इस पार से उस पार पहुंच गए। एकदम तेज वेग के साथ बहती हुई नदी को उन्होंने पार कर लिया और पार करते ही जैसे ही बिजली चमकी तो देखा जिसे मैं तख्ता समझा था, वह तो मुर्दा था। एक शव के सहारे नदी पार कर गए, निकले और पहुंच गए अपनी ससुराल, लेकिन आधी रात में बिना सूचना के पत्नी के यहां कैसे पहुंचे, यह बड़ा उनको पशोपेश लग रहा था और सोचा चलो सरप्राइज देना चाहिए। देखा कहां से जाया जाए? घर में दीप जल रहा था, लगा कि उसे कहीं संप्रेषण हो गया, वह मेरी प्रतीक्षा कर रही है, खिड़की खुली है, इसी मार्ग से चला जाए, कैसे चढ़ें यह रस्सी लटक रही है और लटकती हुई रस्सी के सहारे चढ़ गए। ऊपर चढ़े और जैसे ही अपनी धर्मपत्नी के पास पहुंचे और देखे, ये क्या, तुम यहां अचानक कैसे? तुलसीदास जी बोले, बस ऐसे ही तुम्हारी याद में। ऊपर कैसे आये, तुमने ही तो रस्सी लटका रखी थी। जब बिजली के प्रकाश में तुलसीदास जी ने देखा तो वहां रस्सी नहीं सांप लटक रहा था। रत्नावती एकदम अंदर से उद्वेलित हो उठी, धिक्कार है तुम्हें, जो मेरे पीछे अपनी जान हथेली पर रख कर के यहां आये। नदी कैसे पार किया, वो पूरी कहानी भी सुना दी, तब उन्होंने थोड़ा सा संबोधन दिया था और कहा था-
जैसा प्रेम है नारि से वैसा हरि सों होय। चलो जाय संसार सों, पला न पकड़े कोय।
मेरे हाड-मांस के प्रति तुम्हारे मन में जितना प्रेम हैं, उतना प्रेम तुमने यदि राम से किया होता तो तुम संसार में भटके नहीं होते, धिक्कार हैं तुम्हें जो इस हाड-मांस  के शरीर से रमने की इच्छा रख कर अपनी जान को दांव पर लगा कर यहाँ आ गये। अपने भीतर के राम को पहचानो, काम को छोड़ो। कहते हैं की ये एक वाक्य तुलसीदास जी के हृदय परिवर्तन का आधार बन गया फिर तुलसी तुलसी नहीं रहे, गोस्वामी तुलसीदास बन गए, यह परिवर्तन हैं।
मुनिश्री प्रमाणसागर जी ने दशलक्षण धर्म पर बहुत सारगर्भित प्रवचन किये हैं। हमारे पुराणों में ऐसे अनेक आख्यान भरे पड़े हैं, जिनने गृहस्थ अवस्था में भी अपने ब्रह्मचर्य के तेज से नये आदर्श उपस्थित किये। विजय सेठ और विजया सेठानी की कहानी आती है। पुराने जमाने में संस्कार कैसे होते थे और वो कैसे लोग अपने जीवन में उतारते थे। विजय और विजया दोनों अलग-अलग गुरुकुल में पढ़ते थे। विजय सेठ का गुरुकुल में अध्ययन हुआ और विजया का आर्यिकाओं के पास अध्ययन हुआ। उस समय गुरुकुल शिक्षा की प्रणाली थी, गुरुकुल में पढ़ाया जाता था और जब अपनी शिक्षा पूर्ण करने के बाद वह अपने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे तो गुरु चरणों में कुछ संकल्प लेकर जाते थे, प्रतिज्ञा लेकर जाते थे, दोनों ने प्रतिज्ञा ली और वो प्रतिज्ञा उनके मन तक थी। संयोगतः दोनों के मध्य विवाह हुआ, विवाह के बाद जब दोनों मिले तो विजय सेठ ने कहा, इन दिनों शुक्ल पक्ष चल रहा है और मेरा शुक्ल पक्ष में ब्रह्मचर्य का नियम है तो विजया ने कहा, यह तो अहोभाग्य है मेरे लिए पर आपके लिए चिंता का विषय हो सकता है। मैंने अपनी गुरुआणी से कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया है, मेरा कृष्ण पक्ष का ब्रह्मचर्य का व्रत है, अब आप एक काम करें मुझे तो एक बहुत अच्छी अनुकूलता मिल गई कि मैं आपकी पत्नी बनी। आपका शुक्ल पक्ष का ब्रह्मचर्य और मेरा कृष्ण पक्ष का ब्रह्मचर्य तो मैं पूरे के पूरे इस काम के कीच से बच जाऊंगी और मेरा अखंड ब्रह्मचर्य हो जाएगा। आप से निवेदन है, आपको अपने वंश को आगे बढ़ाना है तो किसी दूसरी स्त्री से विवाह कर ले ताकि आप अपना काम कर सके। विजय सेठ ने कहा, नहीं, अब इसकी जरूरत नहीं। अगर नियति को यही पसन्द है तो मुझे स्वीकार्य है, अगर तुम अखंड ब्रह्मचर्य व्रत ले सकती हो तो क्या मैं कमजोर हूं। अभी हम दोनों में एक का शुक्ल पक्ष, एक का कृष्ण पक्ष है। चलो, अब दोनों पूरे मास का ब्रह्मचर्य लेते हैं और अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। ये एक आदर्श है। ब्रह्मचर्य को हम आदर्श बनाएं और यह संकल्प लें कि हम विवाहेतर संबंध नहीं बनायेंगे जिससे सामाजिक  संस्कृति और सदाचार वृद्धिंगत होगा। श्रावकों के लिए स्वदार-संतोषव्रत कहा गया है, जो उत्तम ब्रह्मचर्य का अणुव्रत रूप है।

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