श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी का संदेश-भाग-4

इस नियुक्ति का शिशुपाल ने उद्दण्डता पूर्वक विरोध् किया। उसके विरोध् को शांत करने का भीष्म पितामह और अन्य सभी महानुभावों ने प्रयास किया। कृष्ण शांतमना सारा दृश्य देखते और झेलते रहे। अंत में जब शिशुपाल उनका वध् करने भागा तो कृष्ण जी के द्वारा उसी का वध् कर दिया गया। उसके पश्चात् वह यज्ञ आरंभ किया गया।

हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ के मध्य वैमनस्य को बढ़ावा देने का घिनौना कार्य धृतराष्ट्र के साले अर्थात दुर्योधन के मामा शकुनि ने अधिक किया। उसके कुकृत्यों से हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ की दूरियां बढ़ती गयीं और वह व्यक्ति कुटिलतापूर्वक यह खेल खेलता चला गया। उसी की कुटिलतापूर्ण नीति के द्वारा ही हस्तिनापुर में द्यूतक्रीड़ा का आयोजन किया गया था। इस द्यूतक्रीड़ा ने भारत के भविष्य को ही पलट दिया। हस्तिनापुर की यह जीत भारत के दुर्भाग्य की निर्णायक तिथि सिद्घ हुई। जिस दुभाग्र्यपूर्ण मार्ग का शुभारंभ महाराज शांतनु द्वारा सत्यवती से विवाह करने और भीष्म द्वारा यह प्रतिज्ञा करने पर कि ‘‘मैं विवाह नहीं कराऊंगा, राज्य प्राप्त नहीं करूंगा…से हुआ था, उसी रास्ते पर राष्ट्र दो कदम और आगे बढ़ गया। अब इस रास्ते पर भारत को आगे बढ़ाने की सारी जिम्मेदारी शकुनि ने संभाल ली थी। कृष्ण इस सारे घटनाक्रम पर सावधानी से दृष्टि गढ़ाये बैठे थे। शतरंज के इस खेल की प्रत्येक गोटी को वह चौकन्ने होकर दूर से ही देख रहे थे। फ लस्वरूप शकुनि को आत्मसंतोष हेतु क्षणिक संतोषपूर्ण सफ लता मिली। कौरवों ने पांडवों को वनवास देने और एक वर्ष का अज्ञातवास देने में सफ लता प्राप्त कर ली। बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पांडवों द्वारा काम्यक वन और राजा विराट की राजधानी विराट नगरी में गुप्त भेष में व्यतीत किया गया। समय पूर्ण होने पर कृष्ण विराट नगरी में उपस्थित हुए। यहीं पर राजा विराट सहित सभी पांडवों और स्वयं कृष्ण जी ने युधिष्ठिर द्वारा खोये गये राज्य की प्राप्ति हेतु मंत्रणा की। मंत्राणोपरांत निश्चय किया गया कि कृष्ण जी युधिष्ठिर के शांति दूत बनकर प्रथम हस्तिनापुर जायें और द्यूतक्रीड़ा में निश्चित की गई शर्तों के अनुसार दुर्योधन से युधिष्ठिर का राज्य वापस करने का अनुरोध् करें। कृष्ण जी इस बैठक में पारित प्रस्ताव के संदेशवाहक बनकर हस्तिनापुर पहुंचे। वहां उन्होंने विदुर के गृह पर रात्रि निवास किया। महारानी कुंती वहीं पर थीं। महारानी कुंती को भी युद्घ अब अवश्यम्भावी लग रहा था तभी तो उन्होंने कहा था-‘‘यदर्थं क्षत्रिय सूते तस्य कालोअयमागत:।’’ अर्थात् क्षत्राणियां जिस हेतु से वीरों को उत्पन्न करती हैं उसका समय अब आ गया है।’’ कृष्ण ने कौरवों की राज्यसभा में जाकर दुर्योंधन से याचना की कि-

‘‘इंद्रप्रस्थं, वृकप्रस्थम्, वारणाव्रतम्, जयंतम् च।

ददाति चत्वारि ग्रामान कंचिदेकम् च पंचमम्।

अर्थात इंद्रप्रस्थ, बागपत, वारणाव्रत अर्थात बरनावा और जयंत अर्थात जानसठ ये चार गांव पांडवों को दे दो। जिसमें और पांचवा स्वेच्छा से देकर संध् कर लो। शांति का यह प्रस्ताव और शांति की यह अपील दुर्योधन की हठधर्मिता पर कोई प्रभाव न कर सकीं। उसने बहुत ही निमर्मता से इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। साथ ही यह भी कह दिया-

‘‘सूच्यग्रं न प्रदास्यामि विना युद्घेन केशव:’’

अर्थात् हे केशव, बिना युद्घ के मैं सूई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा। इस प्रकार भारत अपने दुर्भाग्य के दुर्दिनों में प्रविष्ट होकर अब उसकी दहलीज पर आ खड़ा हुआ था। अंतत: कुरूक्षेत्र का मैदान भारत के भविष्य के निर्धरण के लिए युद्घ क्षेत्र के रूप में सज गया। कुरूक्षेत्र के मैदान में भीष्म सहित सभी महायोद्घा और छली, कपटी दुष्टात्माएं शकुनि जैसे युद्घ के लिए आ खड़े हुए। कृष्ण द्वारा अपने योग बल से कुरूक्षेत्र के रण के चारों ओर एक रेखा खींची गई जिसके बाहर युद्घ के रासायनिक हथियारों का दुष्प्रभाव नहीं जाना था। इसका उद्देश्य जन सामान्य को युद्घ के दुष्प्रभावों से बचाना था। यह तथ्य बरनावा के कृष्णदत्त ब्रह्मचारी द्वारा अपने प्रवचनों में कहा गया है। युद्घ क्षेत्र में खड़े वयोवृद्घ भीष्म और अन्य स्वजन महारथियों को देखकर अर्जुन ने युद्घ न करने की घोषणा कृष्ण के समक्ष कर डाली। अर्जुन के यह अप्रत्याशित वचन कृष्ण को उद्वेलित कर गये। नीति के नाम पर यह अनीति ही थी। क्योंकि अर्जुन की इस मोहपूर्ण पलायनवादी आदर्श नीति से अंतत: अनीति को ही प्रोत्साहन मिलना था। कृष्ण के लिए यह घड़ी अत्यंत सुलभ थी। वह समझते थे कि धर्म की संस्थापनार्थ सज रहे इस युद्घ से ही सम्पूर्ण राष्ट्र में वैदिक व्यवस्थांतर्गत नीति की स्थापना संभव हो सकेगी। यदि यह अवसर प्रमाद और आलस्य में खो दिया गया तो अनर्थ हो जायेगा। इसलिए वह किसी भी प्रकार के आलस्य, प्रमाद अथवा मोह के विरूद्घ थे। वैसे भी जो व्यक्ति जग की नश्वरता और परिवर्तनशीलता को अच्छी तरह समझता हो उसके यहां कर्तव्यवाद ही सबसे बड़ा रास्ता है।

आज कर्तव्य की परीक्षा की घड़ी थी। इसे कृष्ण अर्जुन के द्वारा ऐसे ही गंवा देने के पक्ष में कदापि नहीं थे। वह उसे क्षत्रियों के धर्म के अनुसार लडऩे मरने के लिए ही प्रेरित कर सकते थे। अर्जुन को युद्घ से भगाकर दुर्योधन की अनीति को नीति में परिवर्तित करने के लिए खुला छोडऩा कृष्ण के लिए असंभव था। उधर अर्जुन की इच्छा नहीं थी कि पृथ्वी के विशाल साम्राज्य को भोगने हेतु स्वजनों, बंधु-बांधवों का रक्त बहाया जाये।

कृष्ण ने अर्जुन के इस मोह को समाप्त करने के लिए जिस ओजपूर्ण शैली में उसे समझाया और उपदेश दिया, उनका वही उपदेश गीतामृत है। यह गीता हजारों वर्ष से भारत की जनता का मार्गदर्शन करती आ रही है। दु:ख क्लेश की हर घड़ी में भारत का जनसाधरण इसी से शांति प्राप्त करता है। जिस ग्रंथ के अध्ययन मात्र से दु:ख से आहत मन को शांति का झरना प्राप्त हो जाये उसे ईश्वरीय पुस्तक मान लेना कोई बड़ी बात जनसामान्य के लिए नहीं है। कृष्ण को भगवान मान लेना उनके प्रति भारतीय जनता की असीम श्रद्घा का परिणाम है। यद्यपि इस अंधविश्वास से हमारे भीतर जो अकर्मण्यता और भीरूता प्रविष्ट हुई है वह भी हमारे लिए कम हानिकारक नहीं रही। व्यक्तिवाद की पूजा ने भारत को ‘भारतीयता’ से दूर कर एक नई संस्कृति में प्रवेश दिला दिया। यह नई संस्कृति पौराणिकों ने विकसित की। इस संस्कृति में वैदिक मान्यताएं धीरे-धीरे समाप्त होती चली गईं और लम्पट व स्वार्थी पंडित वर्ग ने कृष्ण के प्रति जनता की असीम श्रद्घा को अपनी लम्पटता व स्वार्थपरता को सिद्घ करने के लिए प्रयुक्त करना आरंभ कर दिया। महाभारत का प्रसिद्घ युद्घ मात्र 18 दिन चला था। ये अटठारह दिन भारत के दुर्भाग्य के दिन थे। यह ठीक है कि कृष्ण की नीति ने भारत के तत्कालीन कर्णधारों के पापों का प्रक्षालन इस युद्घ के माध्यम से करा दिया। इससे भी अधिक कटु और दु:खदायी सत्य ये है कि इसी युद्घ ने भारत की संस्कृति के भव्य भवन को बहुत अधिक क्षति पहुंचाई। क्षति का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसकी क्षतिपूर्ति आज तक नहीं हो पायी है, और भी स्पष्ट कहें तो क्षतिपूर्ति की तो बात छोडिय़े इस क्षतिपूर्ति की दल-दल में हम फं सते ही जा रहे हैं। कृष्ण जी के अनुरोध् को यदि मानकर दुर्योधन पांडवों को पांच गांव दे देता तो यह महामानव संसार को कुछ अलग ही प्रकार का बना डालता।

कृष्ण जी का अंत समय: भगवान कृष्ण भी विध् िके विधान से परे नहीं थे। वह भी जन्मे थे तो मरना उन्हें भी था। जीवन के सभी महत्वपूर्ण कार्य कर लेने के पश्चात् धीरे-धीरे बारी काल गति की आ रही थी। कालचक्र के समक्ष सभी का बुद्घि चातुर्य मद्घम पड़ जाता है। कृष्ण भी इसका अपवाद नहीं थे। सारे राष्ट्र में जो महामानव शांति स्थापना का कार्य करता रहा, वह अंतत: अपने पारिवारिक कलह के कुचक्र को समाप्त नहीं कर सका। उनका यादव कुल मद्यपान में प्रवृत्त हो चला था। मद्यपान राक्षसवृत्ति और कलह-क्लेश की जड़ है। यह जड़ कृष्ण के घर में जम चुकी थी। अत: दुष्ट और दुराचारी घर में ही उत्पन्न हो गये। कृष्ण का बुद्घि चातुर्य और कौशल सब दूर ही खड़ा रहा। कहते हैं एक बार जब त्रयोदशी में अमावस्या का संयोग बना और उस पर सूर्यग्रहण पड़ा तो सारे यादव सरस्वती नदी के संगम स्थल प्रभास तीर्थ में स्नान के लिए गये। क्रमश:

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