बिहार का चुनावी परिदृश्य

Biharबिहार विधानसभा के चुनावों की घोषणा कर दी गयी है। ये चुनाव आगामी 12 अक्टूबर से 5 नवंबर तक संपन्न होंगे। जबकि 8 नवंबर को वोटों की गिनती की जाएगी और दोपहर तक यह स्पष्ट हो जाएगा कि अगले 5 वर्ष के लिए बिहार पर शासन किसको होगा?

इस चुनावी महासमर की घोषणा होते ही बिहार में पिछले कई माह से चल रहा अघोषित चुनाव प्रचार अब अपने वास्तविक रूप में आ जाएगा। बिहार पिछले कुछ समय से राजनीतिक लोगों की ‘नौटंकियां’ देख रहा है, कार्य कुछ नही हो पा रहा था, सबके सब अगले पांच वर्ष के लिए तैयारी में जुटे थे। बिहार का मतदाता इस महासमर में पुन: यह निश्चित करेगा कि अब अगले पांच वर्ष के लिए वह किसे अपना भाग्य विधाता मानता है?

इस चुनावी समर में कांग्रेस ने पहले दिन से ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली थी। इसलिए पूरे परिदृश्य  में ‘मां-बेटे’  में से कोई सा भी बिहार में कहीं नही दिख रहा है। संसद में  दादागीरी दिखाकर और संसद को न चलने देकर ही लगता है कांग्रेस ने बिहार विजय कर ली है। इस पार्टी ने अपने सम्मान के लिए भी लडऩा छोड़ दिया लगता है इसने दिल्ली को और दलों के साथ मिलकर बड़ी सहजता से केजरीवाल को दे दिया और इस चुनाव में अपनी हार पर इसे इतना दुख नही हुआ जितना भाजपा की हार पर खुशी हुई। इसका अभिप्राय था कि कांग्रेस की सोच अब इस स्तर पर उतरकर काम कर रही है कि बिल्ली खाये नही तो बिखेर तो दे ही। अर्थात मैदान भाजपा के हाथ न लगने पाये।  कांग्रेस की इस पराजित मानसिकता ने नीतीश को बिहार के लिए ‘मजबूरी में जरूरी’ बनाने के लिए पेश कर दिया है।

यही स्थिति बिहार में लालू की है। लालू जी कभी कहा करते थे कि ‘समौसा में आलू और बिहार में लालू’ सदा रहेगा। पर अब उन्हें पता चल गया है कि समोसा आलू विहीन सब्जी से भी बनने लगा है, उनके विषय में भी यही कहा जा सकता है कि वह भी पराजित मानसिकता में फंस चुके हैं। तभी तो नीतीश के सामने ‘सरंडर’ कर दिया है-मि. लालू ने। अब बिहार में लालू किसी मंच पर अकेले नही दहाड़ते और ना ही किसी को अकेले दम पर चुनौती देते हैं। वह किसी की पूंछ पकड़ते हैं, और पूंछ पकडक़र बोलने वाले नेताओं के बोलने से ओज स्वयं ही लुप्त हो जाता है।

लालू प्रसाद यादव की नौटंकी को देखकर अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की याद आती है। जब वह अपने बहुत से क्रांतिकारी साथियों के उकसावे में आकर अंग्रेजों के विरूद्घ उठ खड़ा था तो उसने अपनी वीरता को इन शब्दों में व्यक्त किया था-

गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की।

तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।।

पर जब अंग्रेजों ने अपना क्रूर दमन चक्र चलाया और अपनी कठोरता का प्रदर्शन किया तो शीघ्र ही ‘जफर’ का ‘ज्वर’ उतर गया। कहने लगा-

‘‘दम दमे में दम नही खैर मांगू जान की।

बस ‘जफर’ अब हो चुकी शमशीर हिंदुस्थान की।’’

सच यही है कि लालू में ईमान की बू समाप्त हो चुकी है, उनकी शमशीर टूट चुकी है और टूटे धनुष से वह शत्रु को ललकार रहे हैं। इसलिए वाणी में मस्खरापन तो है, पर ओज नही है। उन्होंने भी ‘नीतीश को मजबूरी’ में अब बिहार के लिए जरूरी मान लिया है।

अब आते हैं नीतीश पर। इस बार उनका करिश्मा गिरा है। वह स्वयं के बल पर मोदी का सामना करने की स्थिति में नही है। उन्होंने कांग्रेस और लालू का भयादोहन तो कर लिया है, जिससे उन्हें कुछ ऊर्जा भी मिली है, परंतु उनके भीतर ‘मोदीभय’  और देर तक बिहार में शासन करने पर ‘सत्ता विरोधी लहर’ के चलने का खतरा भी है। जिसे स्पष्ट पढ़ा जा सकता है। फिर भी वह अपना चुनाव प्रबंधन बढिय़ा कर रहे हैं तो इसके पीछे कारण यही है किउन्हें यह भी पता है कि यदि इस बार नही तो फिर कभी नही। ऐसा उनके साथ चुनाव बाद हो सकता है। क्योंकि उनकी पार्टी में कई ‘अपने लोग’ अब भी ऐसे हैं जो भाजपा से दूरी बनाने या संबंध विच्छेद करने के उनके निर्णय को आज भी अच्छा नही मानते हैं। यदि नीतीश इस बार गिर गये तो फिर कभी उठ नही पाएंगे। लोग गाड़ी से उनके उतरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं और यदि वह उतरे तो उनके स्थान पर एक साथ दस लोगों में बैठने की आपाधापी मचेगी। यह प्रकृति का नियम भी है। स्थान रिक्त होते ही प्रकृति बिना किसी प्रकार की देरी किये रिक्त स्थान को भरने का प्रयास करने लगती है। नीतीश अपने स्थान के लिए पार्टी में मचने वाली आपाधापी को रोकने का जितनी देर में प्रबंध करेंगे, उतनी देर में उनके हाथ से गाड़ी छूट जाएगी। इसलिए वह तैयारी अच्छी कर रहे हैं पर चुनाव परिणामों को लेकर अभी वह भी आश्वस्त नही है।

इधर भाजपा की स्थिति भी अच्छी नही है। ‘फीलगुड’ में सड़ी मरती रहने वाली यह पार्टी इसी बीमारी के कारण पहले दिल्ली को गंवा चुकी है। अब बिहार में भी इसने वही किया है कि वहां भी अपने सहयोगी दलों के साथ मिल बैठकर सीटों का बंटवारा आज तक नही किया है। यह पार्टी केवल ‘रामभरोसे’ रहती है। अब बिहार में यह ‘मोदी भरोसे’ है। मोदी जी का चुनावी अभियान आक्रामक रहा है। बिहार में भी उनके जाने से विपक्ष की चूलें हिल गयीं थीं। अब भी सारे डर रहे हैं। ‘डरती हुई सारी बिल्लियां’ नीतीश के पीछे छिप रही हैं। यह दृश्य देखने लायक है। बिहार का चुनावी परिदृश्य अभी तक तो इतना ही लिखने की अनुमति दे रहा है। अभी तस्वीर साफ नही है कि मैदान किसके हाथ रहेगा। बस यही कहा जा सकता है कि टक्कर नीतीश और भाजपा में है। भाजपा यदि सत्ता में आती है तो उसे प्रचण्ड बहुमत मिलता नही दिख रहा और नीतीश यदि सत्ता से हटाये जाते हैं तो उनका ‘सूपड़ा साफ’ होता नही दिख रहा। अभी किसी गठबंधन की लहर नही है। ‘सपा’ या ‘आप’ या किसी अन्य दल के विषय में हमने जानबूझकर कुछ नही कहा है क्योंकि ये बिहार में नगण्य है।

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