न्यायात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीरा:


महर्षि दयानन्द ने अपने ५९ साल के अल्पकालीन जीवन में धर्म की उन्नती के लिए बहुत बड़ा कार्य कर दिखाया। उनमें कार्य करने की अद्भुत क्षमता थी। असीम शक्ति थी। वे निडर और साहसी थे। कर्मठ थे। कार्य करते हुए थकते नहीं थे। अपने लक्ष्य की ओर बिना रुके बढ़े जाते थे। अपने पथ से विचलित हुए बिना लगातार अपने लक्ष्य पथ पर बढ़ते रहने की शक्ति का स्रोत उनके हृदय में निरन्तर बहता रहता था।
ऐसी शक्ति उन्होंने कहाँ से प्राप्त की थी?
अवश्य ही वेदों के अध्ययन द्वारा उनको यह शक्ति प्राप्त हुई थी। जैसा कि सभी जानते हैं महर्षि दयानन्द वेदों के अप्रतिम विद्वान थे। उन्होंने विधिवत् वेद का अध्ययन किया था। उनका पूर्ण जीवन ही वेद के अध्ययन के फल स्वरूप अद्भुत आभा से चमकता रहा। अतः वेदों के अध्ययन द्वारा उनको निश्चय ही ऐसी दृढ़ कार्य शक्ति प्राप्त हुई होगी जिसके रहते वे अपने लक्ष्य पथ पर निरंतर बढ़ते रहे। वेद के स्वाध्याय ने ही उनके हृदय में धर्मोन्नति की भावना का संचार किया था।
यह तो है ही इसके साथ ही कुछ नीति वाक्य भी उनके कार्य शक्ति को अवश्य ही बल देते होंगे। पिछले दिनों एक पुस्तक देखने को मिली “महर्षि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन”। इसमें महर्षि के पत्रों और विज्ञापनों का सुन्दर संकलन किया गया है।
महर्षि दयानन्द के पत्रों में, एक से अधिक पत्रों में नीति का एक श्लोक मिलता है – जिसमें कर्मठ पुरुषों के बारे में अपने जीवन में निरंतर कार्य करते हुए सफलता प्राप्त करने वाले धीर पुरुषों के, महान पुरुषों के लक्षण बताए गए है। महर्षि दयानन्द अकसर अपने प्रिय जनों को धर्म पथ पर आरूढ़ रहने की प्रेरणा देते हुए उस श्लोक को उद्घृत करते थे। वह नीति वाक्य, श्लोक अवश्य ही हमारे लिए ज्ञानवर्धक और प्रेरणाप्रद होगा। श्लोक है –
निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समा विशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्यायात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।
(निन्दन्तु) अर्थात् निंदा करें, (नीति निपुणाः) – नीति में चतुर लोग जो लोग व्यवहार कुशल हैं, (स्तुवन्तु) अर्थात् स्तुति करें गुण गाएं। (लक्ष्मी) अर्थात धन-दौलत रुपया पैसा, (समाविशतु) – प्राप्त हो, (लक्ष्मीः समाविशतु) – धन दौलत रुपया पैसा प्राप्त हो – कितना? (यथेष्टम्) – जितनी इच्छा हो, जितना चाहें उतना धन दौलत मिल जाए। (वा गच्छतु) – या चली जाए। या धन दौलत अपने हाथ से निकल जाए। धन की हानि हो जाए। (अद्य एव) – आज ही – (अद्यैव वा मरणमस्तु) – चाहे आज ही मरना पड़ जाए – चाहे आज ही मृत्यु हो जाए। (युगान्तरे वा) – या कई युगों के पश्चात मृत्यु हो। (न्यायात् पथः) न्याय के रास्ते से, सही रास्ते से, उचित कार्य से – (न प्रविचलन्ति) – विचलित नहीं होते हैं – नहीं हटते हैं – (पदं) – अर्थात् एक पग भी। (धीराः) अर्थात् धीर पुरुष, विद्वान पुरुष, उत्तम पुरुष, धर्म पर चलने वाले लोग।
अर्थ है नीति निपुण लोग निन्दा करें या स्तुति करें, चाहे खूब अधिक धन मिल जाए या अपने पास का धन भी चला जाए, नष्ट हो जाए, चाहे आज ही मृत्यु हो जाए या कई युगों बाद मृत्यु हो, धीर पुरुष, न्याय के पथ से कभी भी, एक कदम भी विचलित नहीं होते हैं। नहीं हटते हैं।
निन्दन्तु नीति निपुणाः –
नीति में निपुण लोग, व्यवहार कुशल लोग, चतुर लोग क्या करते है? कार्य की सिद्धि को देखते हुए व्यवहार करते है। जिस व्यवहार से अपना पक्ष सिद्ध हो, अपना काम निकले वैसा व्यवहार करते है। उचित और अनुचित का विचार किए बिना कुछ लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा कहने लगते हैं। ऐसे लोग बड़ी चतुराई से सही को गलत और गलत को सही प्रमाणित कर देते हैं। साधारण लोग उनकी बातों में आ जाते हैं और उनकी गलत बातों को भी सही मानने लगते हैं।
निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु –
चतुर लोग अपने स्वार्थ से ही किसी की स्तुति करते हैं जिससे अपने स्वार्थ पूरे न हों उसकी निन्दा करते हैं। अतः ऐसे पुरुषों की निन्दा और स्तुति, किसी का भी कोई महत्व नहीं होता हैं। जब उनका काम पड़ेगा तब स्तुति करेंगे और जब काम निकल जाएगा निन्दा करेंगे। ऐसे व्यक्ति धर्म और अधर्म का विचार नहीं करते। उचित अनुचित का विचार नहीं करते। केवल अपने स्वार्थ का विचार करते है। अतः ऐसे स्वार्थी व्यक्तियों की निन्दा से घबड़ाना नहीं चाहिए और ऐसे व्यक्तियों की स्तुति का भी प्रभाव अपने पर नहीं पड़ने देना चाहिए, संयम धारण करना चाहिए।
दुष्ट विचार के व्यक्ति भी अपनी ओछी विचार धारा के कारण किसी सज्जन पुरुष की निन्दा बड़ी चतुराई से करने लगते हैं। ऐसे चतुर लोग चाहे निन्दा करें चाहे गुण गाएं, स्तुति करें, न्याय पथ पर चलने वाले लोग, धर्म पर स्थिर रहने वाले लोग, उनके द्वारा निन्दा की बातें सुन कर या स्तुति गुणगान सुन कर घबड़ाते नहीं है। संयम नहीं खोते है। वे पहले की तरह ही न्याय पथ पर धर्म के रास्ते पर चलते रहते हैं। जो व्यक्ति निन्दा और स्तुति से परे हो जाता है, निन्दा और स्तुति पर ध्यान नहीं देता है, अपने कार्य अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है – वही अपने कार्य में सफल होता है।
महर्षि दयानन्द के जीवन को देखें तो वे ऐसे ही महान पुरुष थे जो निन्दा और स्तुति से उपर उठ चुके थे। कोई उनकी निन्दा करें वे दुखी नहीं होते थे। कोई उनकी प्रशंसा करें संयम नहीं खोते थे। धर्म पथ पर चले चलते थे। धर्म पथ से विचलित नहीं होते थे।
महर्षि दयानन्द पूना पहुँचे। उनके प्रवचन की धूम थी। बड़े बड़े विद्वान उनके प्रवचन सुनने के लिए आते थे। अज्ञान मिट रहा था। ज्ञान का प्रकाश फैल रहा था। धर्म और जाति से प्रेम करने वाले लोग महर्षि के उपदेश से लाभान्वित होकर प्रसन्न थे।
परन्तु जैसे उल्लू को दिन का प्रकाश अच्छा नहीं लगता है, चोर को पूनम की रात अच्छी नहीं लगती है उसी प्रकार दुष्ट लोगों को सत्य ज्ञान का उपदेश अच्छा नहीं लगता हैं।उनको डर लगता है कि सत्य ज्ञान के उपदेश से उनके स्वार्थ पर कुठारा घात होगा। यदि सत्य ज्ञान का प्रकाश फैल जाएगा तो लोगों को धर्म के नाम पर मूर्ख बना कर अपनी कमाई नहीं कर पाएंगे।अतः उन्होंने महर्षि को अपमानित करने की योजना बनाई।
महर्षि दयानन्द बैठे थे। तभी एक भक्त दौड़ा-दौड़ा आया और बोला – स्वामी जी अनर्थ हो गया। स्वामी जी ने पूछा – क्या हुआ? वह बोला – स्वामी जी कैसे कहें कि क्या हुआ? लोग आप को बहुत अपमानित कर रहे हैं। महर्षि ने पूछा कुछ कहो तो जानें क्या कर रहे है? वह बोला – महाराज क्या बताएँ। एक व्यक्ति को स्वामी दयानन्द बना दिया गया है।उसके गले में जूतों की माला डाल दी गई है। गधे पर बैठा दिया गया है। उसे नगर में घुमा रहे हैं। चारों ओर से लोगों-बच्चों की भीड़ ताली पीटती हुई जा रही है। महाराज बड़ा अपमान हो रहा है।
निन्दा और स्तुति से उपर उठे महर्षि ने स्वाभाविक सरल भाव में कहा – यह तो उचित ही है। जो व्यक्ति नकली दयानन्द बनेगा उसकी यही गति होनी चाहिए। असली दयानन्द तो यहाँ बैठा है। इसका अपमान करने की शक्ति किसी में भी नही है। जो बिना वेद पढ़े दयानन्द बनना चाहेगा उसे तो लोग अपमानित करेंगे ही। जूतों की माला डाल कर, लोग गधे पर बैठाएंगे। नगर में घुमाएंगे ही।
ऐसे थे स्वामी दयानन्द सरस्वती। निन्दा का, सार्वजनिक रूप से निन्दा करने का भी उन पर लेश मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा।
आप जानते हैं, काशी में शास्त्रार्थ हुआ। एक ओर दयानन्द अकेले, परन्तु वेदों के महान पण्डित। ऐसे विद्वान जैसा कि इधर पाँच हजार वर्षों में कोई नहीं हुआ। दूसरी ओर वैदिक ज्ञान से हीन तथिकथित पंडितों का झुण्ड। शास्त्रार्थ हुआ। वेद ज्ञान से रहित पंडितों का समूह स्वामी दयानन्द सरस्वती का सामना नहीं कर सका तो उन्होंने छल से काम लिया। अकारण ही “दयानन्द हार गया – दयानन्द हार गया” का शोर करने लगे। इस छल में काशी नरेश ने भी उनका साथ दिया।उन्होंने भी स्वामी दयानन्द के पराजय की बात कह कर शोर करने वालों का समर्थन किया। शास्त्रार्थ सभा बिखर कर समाप्त हो गई। नगर कोतवाल रघुनाथ प्रसाद सावधानी पूर्वक स्वामी दयानन्द को उस भीड़ में से निकाल ले गए।
महर्षि दयानन्द पर इस पक्षपात पूर्ण व्यवहार का क्या असर पड़ा है यह देखने के लिए पंडित ईश्वरसिंह नाम के एक निर्मला साधु उनके पास गए। वे जानना चाहते थे कि इस दुखद घटना से महर्षि दयानन्द कितने दुखी हैं। परन्तु उन्होंने देखा स्वामी दयानन्द के मुख मंडल पर दुख की, विषाद की, ग्लानि की, कोई रेखा तो दूर छाया तक नहीं है। वे शान्त भाव से आसन पर विराजमान थे। तब उस साधू ने कहा – मैं अब तक आपको वेद का अद्वितीय विद्वान ही समझता था। परन्तु मुझे अब यह विश्वास हो गया कि आप वीतराग स्थितप्रज्ञ महात्मा भी हैं।
काशी नरेश ने स्वामी दयानन्द को अपमानित करने में अपनी ओर से पूरा प्रयास किया। परन्तु विद्वानों, बुद्धिमानों को वास्तविकता का ज्ञान था। वे अच्छी तरह जानते थे कि दयानन्द की हार नहीं, जीत हुई है।
जब महर्षि दयानन्द दूसरी बार काशी पधारे काशी नरेश ने उन्हें आमन्त्रित किया।काशी नरेश के प्रतिनिधि ने महर्षि दयानन्द से निवेदन किया – काशी नरेश आप का दर्शन करना चाहते हैं। मैं आप को लिवा जाने के लिए आया हूँ।
महर्षि दयानन्द काशी नरेश के महल में गए। काशी नरेश ने उन्हें सोने के सिंहासन पर बैठाया। स्वयं स्वामी जी के पैरों के पास बैठ गए।उन्होंने स्वामी जी से निवेदन किया – महाराज जब पिछली बार आप काशी आए थे। मुझसे आप का अपमान हो गया था। मैं आप से क्षमा चाहता हूँ। महर्षि दयानन्द ने सरल भाव से उत्तर दिया – “राजन पिछली बातों का मेरे मन पर कोई संस्कार नहीं है”। काशी नरेश ने महर्षि दयानन्द का भव्य आतिथ्य किया। बाद में भी उनके लिए फल मिष्ठान आदि भिजवाए।
स्वामी दयानन्द का सामूहिक रूप से अपमान करने का प्रयास किया जाए या स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर स्तुति की जाए – इसका प्रभाव उन पर नहीं पड़ता था। वे न तो अपमान का अनुभव कर दुखी हुए और न ही स्वागत सत्कार पा कर, स्तुति सुन कर प्रसन्न हुए – वे निन्दा और स्तुति दोनों से उपर उठ चुके थे। इनके चक्कर में पड़ कर अपने पथ से विचलित होने वाले नहीं थे। यदि उनके मन में काशी नरेश का अशिष्ट व्यवहार घर कर लिया होता तो वे काशी नरेश के निमन्त्रण पर उनके महल में कदापि न जाते।
निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु

साभार – श्री Chintamani Verma जी

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