लोकतंत्र को सशक्त बनाएगा ‘राइट टू रिकॉल’

निधि शर्मा

जनता को आवाज बुलंद करने के लिए प्रतिनिधि के रूप में हथियार तो दिए गए हैं, लेकिन इन हथियारों के उद्देश्यों की पूर्ति न होने पर इन्हें बदलने का अधिकार नहीं दिया गया है। आज इस असहाय परिस्थिति को बदलना काफी जरूरी हो गया है। इसमें बदलाव देश के सभी राज्यों में ग्रामीण स्तर से राष्ट्रीय स्तर की ओर किया जाना चाहिए भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। हर पांच वर्ष बाद यहां करोड़ों रुपए खर्च करके लोगों द्वारा सरकार चुनी जाती है। चुनी हुई सरकार से आशा की जाती है कि वह समाज में लंबित पड़े विकासात्मक कार्यों का निष्पादन करके परिस्थितियों को बेहतर बनाने के लिए प्रयास करेगी। जनता भी राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए वादों की फेहरिस्त में उलझ जाती है। यह सिलसिला देश की आजादी के वक्त से लेकर जारी है और शायद मजबूती के साथ आगे भी जारी रहेगा। यही उदाहरण भारत में ही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक रूप से मजबूत कहे जाने वाले देशों अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस व कई यूरोपीय देशों में भी देखने को मिलता है। सवाल यह है कि लोकतांत्रिक देशों में जनता द्वारा प्रतिनिधि चुन लेना ही क्या लोकतंत्र है? चुने हुए प्रतिनिधियों के किए गए कार्यों व जनता के प्रति जवाबदेही का मूल्यांकन करने का अधिकार क्या जनता के पास नहीं होना चाहिए।  आज इस मुद्दे पर सभी लोकतांत्रिक देशों को विचार करना होगा। विश्व के लगभग 123 लोकतांत्रिक देशों में से मात्र छह ही ऐसे राष्ट्र हैं जो जिम्मेदारियों को सही न निभाने के कारण निर्धारित समय के लिए चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता द्वारा समय अवधि समाप्त होने से पहले ही वापस बुलाने की अवधारणा पर काम कर रहे हैं। इनमें से कनाडा, जहां यह अवधारणा 1995 से अपनाई गई है, वहां केवल पंजीकृत वोटर ही अपने प्रतिनिधि को प्रोविंस ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया में पटीशन दायर कर बुला सकते हैं। स्विट्जरलैंड, जहां राष्ट्रीय स्तर पर तो नहीं, बल्कि छह कैंटूस (राज्यों) में ही यह अवधारणा अपनाई गई है। तीसरा विश्व को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले अमरीका में भी मात्र 19 राज्यों में रिकॉल टू रिप्रेजेंटेटिव अवधारणा स्थानीय प्रतिनिधियों तक सीमित है। यहां राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के सीनेटर यानी जनप्रतिनिधि पर यह अवधारणा लागू नहीं होती। चौथा उत्तरी अमरीका का छोटा सा समाजवादी विचारधारा वाला देश वेनेजुएला अपने संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुला सकता है। 2004 में राष्ट्रपति ह्यगो शावेज को इसी अवधारणा के तहत जनता द्वारा वापस बुला लिया गया। आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड भी अपने कुछ क्षेत्रों में इस अवधारणा को अपनाए हुए हैं।

राष्ट्रमंडल राष्ट्रों के मुखिया ब्रिटेन में भी 2014 में इस अवधारणा के तहत हाउस ऑफ कॉमन में बिल रखा गया, जिसे 2015 में अधमने तरीके से पास किया गया। इसके अनुसार संविधान में क्लॉज एक जोडक़र प्रावधान किया गया कि यदि कोई चुना हुआ प्रतिनिधि जेल जाता है या धन संबंधित किसी मामले में संलिप्त पाया जाता है, तो उस प्रतिनिधि की सदस्यता रद्द हो जाएगी। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश  है, लेकिन लोकतंत्र का पूर्ण स्वरूप यहां पर भी देखने को नहीं मिलता। 125 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले इस देश में जनता अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार से वंचित है। इस देश में प्रखर रूप में इस अवधारणा को परिभाषित करने का श्रेय जाने-माने समाजवादी एमएन रॉय को जाता है, जिन्होंने 1946 में ‘भारत का संविधान’ नामक पुस्तक में किया था। जो बाद में समाजवाद की अवधारणा पर आंदोलन चलाने वाले जेपी द्वारा भी मुख्य मांगों में से एक था। 1977 में बनने वाली जनता पार्टी की सरकार द्वारा इस विषय को अपने मैनिफेस्टो में रखा गया, लेकिन सरकारें बदलती गईं और वोट बैंक बढ़ाने वाले मुद्दे जैसे आरक्षण, पूंजीवाद को अपनाना आदि पर काम होता गया, लेकिन इसकी अनदेखी होती रही।  90 के दशक के बाद तो भारत वैश्विक युग में प्रवेश कर गया।  समाजवाद भी पूंजीवाद हो गया। पूंजीवाद आने से चुनाव तकनीक व पैसे के ज्यादा करीब हो गए।  प्रतिनिधियों को चुनना व रुपयों के तराजू पर तोला जाने लगा और जो लगातार जारी है। भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने वाले प्रेरक अन्ना हजारे ने भी इस विषय को मंचों से उठाना शुरू किया। भारत के 28 राज्यों में से सिर्फ पंजाब में पंचायती राज अधिनियम-1994 में 19 सेक्शन जोडक़र पंचायत स्तर पर चुने गए प्रतिनिधियों को रिकॉल करने का प्रावधान किया है। मध्यप्रदेश के भी म्युनिसिपल कारपोरेशन एक्ट-1956 व नगर पंचायत एक्ट 1961 में 200वें संशोधन के जरिए इस अवधारणा को जोड़ा गया है। दूसरी ओर मध्यप्रदेश से अलग हुए राज्य छतीसगढ़ में भी नगरपालिका अधिनियम को संशोधित कर इसे ग्रामीण व नगरों के स्तर पर जनता को अधिकार दिए गए हैं।

विधानसभा व संसद में चुने जाने वाले प्रतिनिधियों के स्तर पर सभी सरकारें मौन हैं। जनता को आवाज बुलंद करने के लिए प्रतिनिधि के रूप में हथियार तो दिए गए हैं, लेकिन इन हथियारों के उद्देश्यों की पूर्ति न होने पर इन्हें बदलने का अधिकार नहीं दिया गया है। आज इस असहाय परिस्थिति को बदलना काफी जरूरी हो गया है। इसकी शुरुआत देश के सभी राज्यों में ग्रामीण स्तर से राष्ट्रीय स्तर की ओर किया जाना चाहिए। अगर इस व्यवस्था को अपनाया जाता है, तभी सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतांत्रिक भावना सुदृढ़ हो पाएगी।

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