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भारत में सड़कों के कायदे कानून सिखाने की है बहुत आवश्यकता

पंकज चतुर्वेदी

हाल ही में उत्तर प्रदेश के लोक निर्माण विभाग ने राज्य के हर जिले को इस बात की अनुमानित लागत भेजने को कहा है, जिससे राज्यभर की सड़कों को गड्ढा मुक्त किया जा सके। इससे पहले आठ जुलाई को केंद्र सरकार के सड़क परिवहन मंत्रालय ने पूरे देश की राज्य सरकारों को सड़क से गड्ढों को पूरी तरह मिटाने के निर्देश दिए थे। राजधानी दिल्ली से दूरस्थ गांवों तक, आम आदमी इस बात से सदैव रुष्ट मिलता है कि उसके यहां की सड़क टूटी है, संकरी है या काम की ही नहीं है। लेकिन समाज कभी नहीं समझता कि सड़कों की दुर्गति करने में उसकी भी भूमिका कम नहीं है।
अब देशभर में 22 लाख करोड़ खर्च कर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। चालू वित्त वर्ष में केंद्र ने विभिन्न राज्यों को केंद्रीय सड़क फंड से 7000 करोड़ रुपये दिए हैं, जिसमें सर्वाधिक उप्र को 616.29 करोड़ मिले हैं। यह दुर्भाग्य है कि हमारे देश में एक भी सड़क ऐसी नहीं है, जिस पर कानून का राज हो। गोपीनाथ मुंडे, राजेश पायलट, साहिब सिंह वर्मा जैसे नेताओं को हम सड़क की साधारण लापरवाहियों के कारण गंवा चुके हैं। सीमा से अधिक गति से वाहन चलाना, क्षमता से अधिक वजन लादना, लेन में चालन नहीं करना, सड़क के दोनों तरफ अतिक्रमण व दुकानें, ऐसे कई मसले हैं, जिन पर माकूल कानूनों के प्रति बेपरवाही है और यही सड़क की दुर्गति के कारक भी हैं।
सड़कों पर इतना खर्च हो रहा है, इसके बावजूद सड़कों को निरापद रखना मुश्किल है। दिल्ली से मेरठ के सोलह सौ करोड़ के एक्सप्रेस वे का पहली ही बरसात में जगह-जगह धंस जाना व दिल्ली महानगर के उसके हिस्से में जलभराव बानगी है कि सड़कों के निर्माण में नौसिखियों व ताकतवर नेताओं की मौजूदगी कमजोर सड़क की नीव खोेद देती है। यह विडंबना है कि देशभर में सड़क बनाते समय उसके निरीक्षण का काम कभी कोई तकनीकी विषेशज्ञ नहीं करता है। यदि कुछ विरले मामलों को छोड़ दिया जाए तो सड़क बनाते समय डाले जाने वाले बोल्डर, रोड़ी, मुरम की सही मात्रा कभी नहीं डाली जाती। शहरों में तो सड़क किनारे वाली मिट्टी उठा कर ही पत्थरों को दबा दिया जाता है। कच्ची सड़क पर वेक्यूम सकर से पूरी मिट्टी साफ कर ही तारकोल डाला जाना चाहिए, क्योंकि मिट्टी पर गर्म तारकोल वैसे तो चिपक जाता है, लेकिन वजनी वाहन चलने पर वहीं से उधड़ जाता है। इस तरह के वेक्यूम-सकर से कच्ची सड़क की सफाई कहीं भी नहीं होती। हालांकि इसके बिल जरूर फाइलों में होते हैं।
सड़क का ढलाव ठीक न होना भी सड़क कटने का बड़ा कारण है लेकिन शहरी सड़कों का तो कोई लेवल ही नहीं होता। सड़कों की दुर्गति में हमारे देश का उत्सव-धर्मी चरित्र भी कम दोषी नहीं है। महानगरों से लेकर सुदूर गांवों तक घर में शादी हो या राजनैतिक जलसा; सड़क के बीचोंबीच टैंट लगाने में कोई रोक नहीं होती और इसके लिए सड़कों पर चार-छह इंच गोलाई व एक फीट गहराई के कई छेद किए जाते हैं। बाद में इन्हें बंद करना कोई याद नहीं रखता। इन छेदों में पानी भरता है और सड़क गहरे तक कटती चली जाती है।
नल, टेलीफोन, सीवर, पाइप गैस जैसे कामों के लिए सरकारी महकमे भी सड़क को चीरने में कतई दया नहीं दिखाते। सरकारी कानून के मुताबिक इस तरह सड़क को नुकसान पहुंचाने से पहले संबंधित महकमा स्थानीय प्रशासन के पास सड़क की मरम्मत के लिए पैसा जमा करवाता है। नया मकान बनाने या मरम्मत करवाने के लिए सड़क पर ईंटें, रेत व लोहे का भंडार करना भी सड़क की आयु घटाता है। कालोनियों में भी पानी की मुख्य लाइन का पाइप एक तरफ ही होता है, यानी जब दूसरी ओर के बाशिंदे को अपने घर तक पाइप लाना है तो उसे सड़क खोदनी ही होगी। एक बार खुदी सड़क की मरम्मत लगभग नामुमकिन होती है।
सड़क पर घटिया वाहनों का संचालन भी उसका बड़ा दुश्मन है। दुनिया में शायद भारत में ही देखने को मिलेगा कि सरकारी बसें हों या फिर डग्गामारी करती जीपें, निर्धारित से दुगनी सवारी भरने पर रोक के कानून महज पैसा कमाने का जरिया मात्र हाते हैं। ओवरलोड वाहन, खराब टायर, दोयम दर्जे का ईंधन, ये सभी बातें सरकार के चिकनी रोड के सपने के साकार होने में बाधाएं हैं।
सवाल यह खड़ा होता है कि सड़क-संस्कार सिखाएगा कौन? ये संस्कार सड़क निर्माण में लगे महकमों को भी सीखने होंगे और उसकी योजना बनाने वाले इंजीनियरों को भी। संस्कार से सज्जित होने की जरूरत सड़क पर चलने वालों को भी है और यातायात व्यवस्था को ठीक तरह से चलाने के जिम्मेदार लोगों को भी।
वैसे तो यह समाज व सरकार दोनों की साझा जिम्मेदारी है कि सड़क को साफ, सुंदर और सपाट रखा जाए लेकिन हालात देखकर लगता है कि कड़े कानूनों के बगैर यह संस्कार आने से रहे।

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