हिन्दू समाज में जातीय समन्वय के अद्भुत ऐतिहासिक प्रसंग (2)

दिनेश चंद्र त्यागी

गतांक से आगे….

विजय नगर हिंदू साम्राज्य सन 1335 ई. में स्थापित होकर लगभग तीन सौ वर्ष तक अविजित रहा। यादव जाति ने जहां अपने शौर्य व पराक्रम का परिचय दिया वहीं इस साम्राज्य की स्थापना में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा बलात मुसलमान बना लिये गये हरिहर व बुक्का को फिर से हिंदू धर्म में लौटने की प्रेरणा देने का अद्भुत कार्य ब्राह्मण सन्यासी विद्यारण्य ने किया। हरिहर और बुक्का अलाउद्दीन की ओर से सेना लेकर आंध्र को जीतने आए थे। किंतु विद्यारण्य स्वामी के मार्गदर्शन से पूरी सेना ही हिंदुओं के पक्ष में कर ली गयी और एक अजेय हिन्दू साम्राज्य का निर्माण कर लिया गया। यही स्वामी विद्यारण्य बाद में श्रंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए।

छत्रपति शिवाजी की प्राण रक्षा करने वाला जीवा नाई

शिवाजी ने जब अफजलखां का वध करने के लिए बघनखा उसके पेट में घुसेड़ दिया तो अफजल खां के अंगरक्षक ने तलवार से एक जोर का वार शिवाजी का हाथ काट डालने के लिए किया किंतु पलक झपकते ही शिवाजी के अंगरक्षक जीवा ने अफजलखां के अंगरक्षक का तलवार वाला हाथ काट डाला। यह जीवा नाई जाति का था। कहावत बन गयी।

यदि न होता जीवा, तो बचता शिवा।

मराठा व ब्राह्मण पेशवाओं के जातीय समन्वय से हिंदू राष्ट्र का ध्वज अटक तक फहराया जा सका।

छत्रपति शिवाजी के देहावसान के पश्चात संभाजी ने राज्य संभाला। संभाजी का बलिदान 1689 ई. में हुआ। इस बलिदान से सारा महाराष्ट्र एक राष्ट्र के रूप में खड़ा हो गया। महाराष्ट्र में कदाचित ही कोई ऐसी जाति रही हो जो इस जनक्रांति में सम्मिलित न हुई हो। औरंगजेब को औरंगाबाद की कब्र में सुला देने का श्रेय इसी जनक्रांति को प्राप्त है।

मराठा शासक के चितपावन ब्राह्मण मंत्री पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में दिल्ली तक महाराष्ट्र से उठा हिंदुत्व का ज्वार थामने का साहस कोई न कर सका। दिल्ली भी पेशवाओं के आधिपत्य में आ गयी। इस प्रकार विभिन्न जातियों में बंटे हिंदू समाज की एक एक ईंट को हिंदुत्व के सीमेंट से जब-जब भी जोडऩे में सफलता मिली तो विरोधियों के सिर हिंदू राष्ट्र की चट्टान से टकराकर चूर-चूर होते रहे।

समर्थ गुरू रामदास का उत्तर भारत प्रवास

शिवाजी के गुरू समर्थ रामदास 1640-50 के दशक में उत्तर भारत आए। उनहोंने मराठा तथा आसपास के क्षेत्र में ढाई वर्ष तक धर्म प्रचार कार्य भी किया। ग्रामीण अंचलों से उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार कुरडी नांगल इस्सेपुर टीला और गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में सर्वजाति सर्व खाप पंचायत के माध्यम से अनेक प्रवचन होते रहे। समर्थ स्वामी जी की मांग पर सर्वखाप पंचायत ने तीन मल्ल योद्घा स्वामी जी को दिये जिसमें एक जाट, दूसरा राजपूत तीसरा यादव था। उस समय मल्ल युद्घ का केन्द्र कुरडी नांगल मेरठ के टीले पर था। इन तीनों मल्ल योद्घाओं ने महाराष्ट्र जाकर मराठा सैनिकों को समर्थ स्वामी के निर्देशानुसार मल्ल विद्या सिखाने का कार्य किया।

हिन्दू संगठन का महान आधार सर्वजातीय सर्वखाप पंचायत

संपूर्ण हिंदू समाज की आविच्छन्न एकता का जैसा अदभुत प्रयत्न सर्वखाप पंचायत द्वारा मुसलमानों के अत्याचारों से जूझने के लिए किया गया वैसा प्रमाण ढूंढऩा आज भी कठिन है। यहन् संगठन एक स्वायत्तशासी जनसंगठन था जिसने तैमूरलंग से लेकर बाबर और नादिरशाह तक के विरूद्घ संघर्ष किये थे। इस संगठन ने बाबर के विरूद्घ राधा सांगा का साथ दिया था, औरंगजेब के विरूद्घ दाराशिकोह का साथ दिया था, औरंगजे के विरूद्घ दाराशिकोह का साथ दिया था। तैमूरलंग का आक्रमण 1398 में अचानक भारत पर हुआ। वह भयंकर अत्याचारी, खूंखार आक्रमणकारी था। उसने उत्तर भारत में लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएं की थीं। उस समय दिल्ली तुगलकों की राजधानी थी। दिल्ली  को रौंदता हुआ तैमूरलंग मेरठ पहुंचा। सर्वखाप पंचायत ने तैमूरलंग का सामना किया। पंचायत ने अपना प्रधान सेनापति एक वाल्मीकि पहन्लवान को चुना। उसी के आदेश पर जाट, राजपूत, ब्राह्मण, त्यागी, गूजर, यादव आदि सभी ने अपने शस्त्र उठा लिये और तैमूर का पीछा किया। आगे-आगे तैमूर और पीछे-पीछे सर्वखाप पंचायत के योद्घा उसे खदेड़ते हुए मेरठ, शुक्रताल व हरिद्वार ले गये। वहां से तैमूर कश्मीर होता हुआ 19 मार्च 1399 अपने देश वापिस लौट गया।

पानीपत की तीसरी लड़ाई

दिल्ली में सदाशिव राव भाऊ (पेशवा सेनापति) इससे जाट समाज मराठों तथा मेशवाओं के विरूद्घ हो गया। परंतु पानीपत का युद्घ एक विदेशी आक्रमणकारी आहमदशाह अब्दाली से था। इस कारण जाट समुदाय की एक महापंचायत युद्घ स्तर विचार करने के लिए बुलाई गयी। सिसौली मुजफ्फरनगर ग्राम में चौधरी श्यौराम सिंह की अध्यक्षता में बैठक हुई जिसमें निर्णय हुआ कि हमें इस युद्घ में मराठों व ब्राह्मणों का ही साथ देना चाहिए।

अत: बीस हजार पदचर और उन्नीस हजार घुड़सवार सैनिक युद्घ के लिए तैयार किये गये। इस सेना को तीन भागों में बांटा गया जिसका प्रधान सेनापति चौधरी श्योराम सिंह, दूसरे सेनापति चौधरी कलिराम सोरम, तीसरे सेनापति पंडित कान्हाराम जी थे। पंडित कान्हाराम जी के अधीन चार हजार सेना थी जो ईशोपुर टीले पर मोर्चा संभाले थी। इसी सेना के द्वारा मराठा सेना को चारों ओर से खाद्य सामग्री बंद हो जाने पर भी खाद्य सामग्री पहुंचती रही। यह मोर्चा पानीपत के मैदान के पूर्वी दिशा यानी यमुनाजी के तट पर था।

14 जनवरी 1761 मकर संक्रांति को अब्दाली और भाऊ में भयंकर युद्घ छिड़ गया। विश्वास राव ग्राम कुंजापुरा में मारे गये। भाऊ के मरने की अफवाह फैल गयी थी। ऐसी स्थिति में मराठा सेना के पैर उखड़ गये थे। तब वह सभी महिलाएं जो युद्घ में साथ आई थीं उनमें सदाशिव भाऊ की धर्मपत्नी श्रीमती पार्वती देवी भी थीं।

ऐसी घड़ी में जाट वीरों ने जो युद्घ अब्दाली से लड़ा वह बड़ा ऐतिहासिक है। युद्घ क्षेत्र मुस्लिम सेना को गाजर मूली की तरह काटकर हिंदू महिलाओं को उनके घेरे से बाहर लाने में उन्हें सफलता प्राप्त हुई। ग्राम एलम में हिंदू महिलाओं के कैंप लगाये गये फिर उन्हें भरतपुर के डींग किले में भेजा गया। वहां से उन्हों स्वयं महाराजा सूरजमल की धर्मपत्नी अपनी देखरेख में पूना पहुंचाने गयीं।

बड़े-बड़े इतिहासकार यह लिखते हैं कि पेशवा सेनापति ने यदि राजा सूरजमल्ल जाट का अपमान न किया होता तो पानीपत की लड़ाई अब्दाली न जीत पाया।

क्रमश:

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