प्रकृति को देखिए, करती रोज परार्थ

 

 

प्रकृति को देखिए ,
करती रोज पदार्थ।
नर तो वही श्रेष्ठ है ,
जो करता परामर्श॥ 1481॥

व्याख्या :- हमारे ऋषि – मुनि प्रकृति की सुरम्य उपत्यका में बैठकर चिंतन-मनन और ध्यान करते थे। वे प्रकृति से बहुत कुछ सीखते थे । जैसे प्रकृति के पंचभूत – पृथ्वी सबको आश्रय देती है ,भरण – पोषण करती है। इसलिए है मनुष्य तू भी किसी आश्रम बन। जल अपनी प्यास बुझाने के लिए नहीं बहता बल्कि वह दूसरों की प्यास बुझाने के लिए बहता है। वायु अपने प्राण- रक्षा के लिए प्रवाहित नहीं होती है अपितु वह दूसरों को प्राणवायु देने के लिए बहती है।अग्नि , प्रकाश और ऊर्जा का संचरण अपने लिए नहीं करते हैं अपितु दूसरों के हित के लिए निरंतर ऊष्मा और प्रकाश देती है।आकाश अपना विकास करने के लिए विस्तृत नहीं है अपितु वह दूसरों को बढ़ने और विकसित करने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए मनुष्य को भी प्रकृति के पंच भूतों की तरह परार्थ में अर्थात लोकोपकार में जीवन व्यतीत करना चाहिए। वास्तव में मनुष्य तो वही महान है, जिसका जीवन दूसरों की भलाई में व्यतीत होता है।

माया में उलझे जीव को ,
देख तरस आ जाय।
पाप की गठरी सिर धरे ,
माल दूसरे खाएं ॥1482॥

व्याख्या :- यह संसार भी बड़ा विचित्र है। जैसे मकड़ी अपने बुने हुए जाले में स्वयं फंस जाती है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य मोह- ममता के जाल में स्वयं फंसता चला जाता है। अपनी तीनों प्रकार की ऐषणाओ (पुत्रेष्णा,वित्तेष्णा, यशेष्णा) की पूर्ति करने के लिए जायज और नाजायज सभी प्रकार के हथकंडे अपनाता है। कोई जीवन रक्षक औषधियों में मिलावट करता है ,कोई खाद्य- पदार्थों में मिलावट करता है, कहीं कोई डॉक्टर अथवा वकील रिश्वत (कमीशन) खाते हैं ₹10 के काम के लिए अपने ग्राहक से हजारों ऐठते हैं,कहीं कई अधिकारी व कर्मचारी सुविधा शुल्क लेकर अपनी जमीर की हत्या कर रहे हैं। कहीं कई किसान फल – सब्जियों में कीटनाशकों का छिड़काव करके तथा जहरीले इंजेक्शन से लोगों को मौत के मुंह में धकेल रहे हैं।कहीं हलवाई ,दूधिया बनावटी मावे की मिठाई बनाकर अथवा सिंथेटिक दूध पिलाकर घोर पाप कर रहे हैं। जिसका भी दाव लग रहा है वही धोखा देने में मशगूल है।कई नेता गड़बड़ घोटाले करने में व्यस्त हैं।कई इंजीनियर और ठेकेदार पुलों, सड़कें,इमारतों के निर्माण में घटिया सामग्री लगाकर देश को चूना लगा रहे हैं।यह राष्ट्र और समाज के साथ गद्दारी नहीं तो और क्या है ? यह महापापों की गठरी नहीं तो और क्या है ?
कैसी विडंबना है कि आप तो स्वयं मर जाते हैं, महानरक में जाते हैं और इनके कमाये हुए धन को बेटा, पोते, पोती अथवा नाती अपने ऐशो- आराम पर खर्च करते हैं। कैसा अजीब खेल है – कमाता कोई है, खाता कोई है, भुगतता कोई है।ऐसे लोगों को देखकर तरस आता है।अतः याद रखो, पवित्र कमाई ही लोक और परलोक में कल्याण करेगी पाप कि नहीं ।
क्रमशः

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