संसद में विपक्ष का अड़ियल रवैया कर रहा है देश के धन की बर्बादी

-ललित गर्ग –

कोरोना की संकटकालीन स्थितियों के बीच संसद का यह वर्षाकालीन सत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण होना था लेकिन वह प्रतिदिन अवरोध के कारण निरर्थकता की ओर बढ़ता चला जा रहा है। संसद के मॉनसून सत्र की आधे से ज्यादा अवधि संसदीय अवरोध एवं हंगामे की भेंट चढ़ चुकी है। 19 जुलाई को शुरू हुआ यह सत्र 13 अगस्त तक चलना है। अभी तक इसमें नाम मात्र का ही काम हुआ है। सरकार ने कुछेक बहुत जरूरी बिल बिना किसी बहस के भले ही पारित करवा लिए हो, लेकिन बहुत सारे बिलों को पारित किया जाने अपेक्षित है। लगातार संसदीय अवरोध का कायम रहना लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है। लोकतंत्र में संसदीय अवरोध जैसे उपाय किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते।

इस मौलिक सत्य व सिद्धांत की जानकारी से आज का विपक्षी नेतृत्व अनभिज्ञ है। सत्ता के मोह ने, वोट के मोह ने शायद उनके विवेक का अपहरण कर लिया है। कहीं कोई स्वयं शेर पर सवार हो चुका है तो कहीं किसी नेवले ने सांप को पकड़ लिया है। न शेर पर से उतरते बनता है, न सांप को छोड़ते बनता है।
पिछले लगभग दो सप्ताह से दोनों सदनों का काम-काज लगभग ठप्प है। दोनों सदन अनवरत शोर-शराबे के बाद रोज ही स्थगित हो जाते हैं। संसद चलाने का एक दिन का खर्च 44 करोड़ रु. होता है। लगभग 500 करोड़ रु. पर तो पानी फिर चुका है। ये पैसा उन लोगों से वसूला जाता है जो दिन-रात अपना खून-पसीना एक करके कमाते हैं और सरकार का टैक्स भरते हैं। ऐसा लगता है कि संसद का सत्र चलाने की परवाह न तो सरकार को है और न ही विपक्ष को! दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े हुए हैं, दोनों ही अपनी ढपली अपना राग अलाप रहे हैं। ये शायद अड़ते नहीं लेकिन पेगासस जासूसी का मामला अचानक ऐसा उभरा कि पक्ष और विपक्ष दोनों एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें भांजने लगे।
संसद के कामकाज में बाधा डालकर विपक्ष न केवल अपने को कमजोर साबित कर रहा है बल्कि भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को भी खोखला कर रहा है। अच्छा होता अगर वह संसद का इस्तेमाल सरकार से तीखे सवाल करने के लिए करता, आम जनता से जुड़े मुद्दों पर सरकार की विफलता को उजागर करता, सरकार नीतियों को सशक्त बनाने में सार्थक बहस करने में करता। उसके पास इसके लिए मुद्दों की कमी नहीं हैं। खासतौर पर कोरोना महामारी की दूसरी लहर की अव्यवस्था। बेरोजगारी, अफगान-संकट, भारत-चीन विवाद, जातीय जनगणना, बढ़ती महंगाई, गिरती कानून व्यवस्था आदि कई मुद्दों पर सार्थक संसदीय बहस के द्वारा विपक्ष स्वयं को जिम्मेदार होने का अहसास कराता। जैसे आरजेडी सांसद मनोज झा ने सदन में दूसरी लहर में हुई मौतों पर देश से माफी मांगते हुए सबके लिए स्वास्थ्य के अधिकार की मांग की तो उसकी काफी चर्चा हुई। ऐसा ही एक मुद्दा वैक्सीन का भी है। टीकाकरण की रफ्तार बहुत धीमी क्यों हो गई है? इसकी गति बढ़ाने के लिए क्या हो रहा है? और यह काम कब तक पूरा होगा? विपक्ष को सरकार से इसका जवाब मांगना चाहिए। संसद में पूछे गए सवालों के जवाब में स्वास्थ्य राज्यमंत्री भारती पवार ने कोवैक्सीन और कोविशील्ड के प्रॉडक्शन के अलग-अलग आंकड़े बताए। विपक्ष को इस पर सरकार को घेरना चाहिए था। ऑक्सिजन की कमी से हुई मौतों पर भी सवाल पूछे जाने चाहिए और पूछे गये सवालों के आधे-अधूरे जबावों पर सरकार को घेरना चाहिए।
विपक्ष के पास मुद्दों की कमी नहीं है, देश की खराब अर्थव्यवस्था का मुद्दा भी है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने देश की जीडीपी ग्रोथ का अनुमान 3 फीसदी घटा दिया। इसका मतलब यह है कि एक तरफ जहां कोरोना की दूसरी लहर ने आर्थिक रिकवरी को धीमा कर दिया, वहीं दूसरी तरफ सरकार के दिए गए आर्थिक पैकेज से उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं मिले। पेट्रोल, डीजल पर भारी टैक्स भी एक बड़ा मुद्दा है, जो हर इंसान की जिंदगी पर असर डाल रहा है। लगातार पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ने से महंगाई आसमान छू रही है, सकारात्मक एवं प्रभावी सोच हो तो एक प्यास के बढ़े दाम सरकारों को गिराने का माध्यम बना है। अभी तो मुद्दें ही मुद्दें है। कृषि कानूनों का भी मामला है, जिस पर किसान आंदोलनरत हैं।
सरकार की विफलताएं कम नहीं है, समस्याएं भी अनेक हैं। संसदीय अवरोध से हम प्रतिपल देश की अमूल्य धन-सम्पदा एवं समय-सम्पदा बहुत खो चुके हैं। जिनकी भरपाई मुश्किल है। इसके साथ ही भाईचारा, सद्भाव, लोकतंत्र के प्रति निष्ठा, विश्वास, करुणा यानि कि जीवन मूल्य भी खो रहे हैं। मूल्य अक्षर नहीं होते, संस्कार होते हैं, आचरण होते हैं। उन्माद, अविश्वास, राजनैतिक अनैतिकता, गैरजिम्मेदाराना व्यवहार, दमन एवं संदेह का वातावरण उत्पन्न हो गया है। उसे शीघ्र कोई दूर कर सकेगा, ऐसी सम्भावना दिखाई नहीं देती। ऐसी अनिश्चय और भय की स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए संकट की परिचायक है। विशेषतः लोकतंत्र के लिये दुर्भाग्यपूर्ण है।
विपक्ष ने विरोध प्रकट करने का असंसदीय एवं आक्रामक तरीका ज्यादा से ज्यादा अपनाकर अपने विरोध को विराट बनाने के लिये सार्थक बहस की बजाय शोर-शराबा, नारेबाजी एवं संसद को अवरुद्ध करने का जो तरीका अपना रखा है, उससे लोकतंत्र की मर्यादाएं एवं गरिमा तार-तार हो रही है।  संसद में रचनात्मक बहस तभी हो सकती है जब दोनों पक्षों में एक-दूसरे के विचारों को शान्ति के साथ सुनने की क्षमता जागे और दूसरे की बात पूरी हो जाने पर अपने सवालों को उठाया जाये। बहस का मतलब टोका-टाकी, छींटाकशी, आरोप-प्रत्यारोप या दूसरे के भाषण के दौरान अपना भाषण शुरू करना नहीं हो सकता। इससे संसद का माहौल बिगड़ता है।
विपक्ष सशक्त मुद्दों को उठाकर, शालीन एवं शिष्टता का परिचय देकर न केवल स्वयं को मजबूती दे सकता है, बल्कि असंख्य जनता का विश्वासपात्र भी बन सकता है, लेकिन ऐसा न होना विडम्बनापूर्ण है। बेशक, पेगासस भी एक मुद्दा है, लेकिन इसे लेकर अदालत में याचिकाएं दाखिल की गई हैं। विपक्ष को देखना चाहिए कि वहां इसे लेकर क्या होता है। उसे समझना होगा कि राज्यों में हुए पिछले दौर के चुनाव में उम्मीद के मुताबिक भाजपा का प्रदर्शन न कर पाने, महामारी और आर्थिक मुद्दों को लेकर सरकार दबाव में है। संसद में सवाल पूछकर उसे केंद्र पर दबाव और बढ़ाना चाहिए। संसद के कामकाज में बाधा डालने से उसके हाथ कुछ नहीं लगेगा, उलटे भाजपा इससे खुश होगी।
सदन की गरिमा अक्षुण्ण रखना विपक्ष का भी दायित्व है। लोकसभा कुछ खम्भों पर टिकी एक सुन्दर ईमारत ही नहीं है, यह एक अरब तीस करोड़ जनता के दिलों की धड़कन है। उसके एक-एक मिनट का सदुपयोग हो। वहां शोर, नारे और अव्यवहार न हो, अवरोध पैदा नहीं हो। ऐसा होना निर्धनजन और देश के लिए हर दृष्टि से महंगा सिद्ध होता है। यदि हमारा विपक्ष ईमानदारी से नहीं सोचंेगा और आचरण नहीं करेंगा तो इस राष्ट्र की आम जनता सही और गलत, नैतिक और अनैतिक के बीच अन्तर करना ही छोड़ देगी। देश का भविष्य संसद के चेहरे पर लिखा होता है, यदि वहां मर्यादाहीनता एवं अशालीनता का प्रदर्शन होता है तो समस्याएं सुलझने की बजाय उलझती जाती है। छोटी-छोटी बातों पर अभद्र शब्दों का व्यवहार, हो-हल्ला, छींटाकशी, हंगामा और बहिर्गमन आदि ऐसी घटनाएं है, जिनसे संसद जैसी प्रतिनिधि संस्था का गौरव घटता है। यह बात चुने हुए प्रतिनिधियों एवं विपक्ष को समझाना ही चाहिए। भारतीय संस्कृति के इन मूलमंत्रों को समझने की शक्ति भले ही वर्तमान राजनीतिज्ञों में न हो, पर इस नासमझी से सत्य का अंत तो नहीं हो सकता। अंत तो उसका होता है जो सत्य का विरोधी है, जो ईमानदारी से हटता है। अंत तो उसका होता है जो जनभावना के साथ विश्वासघात करता है। जनमत एवं जन विश्वास तो दिव्य शक्ति है। उसका उपयोग आदर्शों, सिद्धांतों और मर्यादाओं की रक्षा के लिए हो। तभी अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति होगी। तभी होगा राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान। तभी होगी अपनत्व और विश्वास की पुनः प्रतिष्ठा। वरना ईमानदारी की लक्ष्मण रेखा जिसने भी लांघी, वक्त के रावण ने उसे उठा लिया।

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