भारतीय इतिहास के विकृतिकरण के प्रति संकल्पित भारत-द्वेषी लोगों ने कई ढंग या उपाय अपनाएं हैं ।उनमें से एक उपाय यह भी है कि भारत प्रेमी इतिहासनायक या नायकों को बदनाम करो और फिर जनता में उनके प्रति तिरस्कार भाव उत्पन्न हो जाए तो धीरे-धीरे उन्हें इतिहास के पन्नों से विलुप्त कर दो।


ऐसा नहीं है कि यह केवल भारत के इतिहासनायकों के साथ ही हुआ है। उपद्रवी, आतंकी और दानवीय शक्तियों ने भारत से बाहर भी जहां- जहां अपना शासन स्थापित कर प्रजावत्सल शासकों का अंत किया, उन प्रजावत्सल शासकों के साथ भी इन राक्षसी शक्तियों ने ऐसा ही कार्य किया है। इनमें से एक उदाहरण रोम के प्रजावत्सल शासक नीरो का भी है। नीरो ने अपनी राष्ट्र विरोधी शक्तियों का अंत किया और उनका सामूहिक नरसंहार जलाकर कर दिया। जिस समय ऐसी राष्ट्रविरोधी शक्तियों का जलाकर अंत किया जा रहा था उस समय नीरो चैन की बंसी बजा रहा था अर्थात उसे बहुत अच्छा लग रहा था कि सारी राष्ट्र विरोधी शक्तियां एक साथ अपने अंत को प्राप्त हो रही हैं। उसे लग रहा था कि इसके बाद उसका देश चैन से सो सकेगा। इस प्रकार नीरो का यह कार्य बहुत ही प्रशंसनीय और राष्ट्रप्रेम से भरपूर था।

‘नीरो’ के साथ किया गया अन्याय

ऐसे में नीरो द्वारा अपने देश पर आक्रमण करने वाली राक्षसी शक्तियों का अंत कर दिये जाने से उसे विश्व इतिहास में एक सम्मान पूर्ण स्थान मिलना चाहिए था। वह बहुत ही साहसी और पराक्रमी शासक था, उसे इतिहास में ऐसा दिखाया जाना चाहिए था। पर जब कालांतर में वे राक्षसी शक्तियां नीरो को पराजित करने में सफल हुईं तो उन्होंने इतिहास में यह दर्ज करा दिया कि ‘जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था।’ इस प्रकार दानवीय शक्तियों ने एक देशभक्त राजा को बदनाम कर दिया और हम आज तक उसे बदनामी की नजरों से ही देखते हैं।
अपने देश की प्रजा के लिए लड़ने वाले वीर ,साहसी, बहादुर ,पराक्रमी हिन्दू शासकों को भी नीरो जैसी बदनामी का ही सामना करना पड़ा है। तभी तो आज तक हमारा नीरो अर्थात महाराणा प्रताप और उन जैसे अनेकों हीरे इतिहास की उपेक्षा की जेल में पड़े हैं। हमारे इतिहास नायकों के साथ बदनामी के ऐसे अनेकों विशेषण लगा दिये हैं जिससे वे हमारी ही नजरों में गिर गए हैं।
अब विचार करते हैं गुर्जर वंश के बारे में। इस वंश की वीरता, साहस, शौर्य और पराक्रम को छुपाने, बदनाम करने और उपेक्षा की जेल में डालने के भी अनेकों प्रयास किए गए हैं। अनेकों ऐसे विशेषण दिए गए हैं जिससे इस क्षत्रिय वीर वंश के प्रति लोगों में उपेक्षा और तिरस्कार का भाव पैदा हो। इसी सोच के दृष्टिगत यह मुहावरा गढ़ लिया गया कि ”गुर्जर उजड़ देखकर राजी होता है।” इस मुहावरे से ऐसा संकेत और संदेश दिया गया कि जैसे गुर्जर सुसभ्य, सुसंस्कृत और अच्छे लोगों को भी उजाड़ कर ही खुश होता है।
जैसे नीरो के बारे में कहा गया कि ‘जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था’ और उसके बारे में कहे गए इस कथन का कुछ दूसरा ही अर्थ था, वैसे ही गुर्जरों के बारे में गढ़े गए इस कथन का भी दूसरा ही अर्थ है। जो पूर्णतया इस वीर वंश की ऐतिहासिकता, वीरता और राष्ट्र की समृद्धि, प्रगति, एकता व अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के ऐतिहासिक कार्यों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। ऐसे में “उजड़ देखकर गुर्जर राजी” – के इस मुहावरे का वास्तविक अर्थ क्या है ? आइए, इसी पर विचार करते हैं।

की है राष्ट्र की अनुपम सेवा

हमारा मानना है कि जिस वीर गुर्जर वंश ने सैकड़ों वर्ष तक इस राष्ट्र की अनुपम और अद्वितीय सेवा की, विदेशी आक्रमणकारियों को हमला करने से सफलतापूर्वक रोका और भारत की संस्कृति और वेद धर्म की रक्षा के लिए अपने अनगिनत सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिए ,उस वंश के ऊपर यह आरोप लगाना कि वह ‘उजड़ देखकर राजी होता है’ – उसे बदनाम करने के लिए गुर्जर द्वेषी और भारत विरोधी लोगों का सुनियोजित षड़यंत्र है। यद्यपि जैसे यह कहना सही है कि ‘जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था’- वैसे ही यह कहना भी सही है कि ‘गुर्जर उजड़ देखकर ही राजी होता है।’ कैसे ? हमारे लेख का यही प्रतिपाद्य विषय है।
गुप्त वंश के पश्चात भारत की वीर सम्राटों की परंपरा को थोड़ा विराम लगा। उस समय क्षत्रिय परंपरा के अनुकूल देश पर एकछत्र राज करने और विदेशी आक्रमणकारियों बर्बर जातियों से देश की रक्षा करने के लिए क्षत्रिय जातियों में विचार मंथन चल रहा था। उस विचार मंथन का जो अमृत हमारे तत्कालीन नेताओं को हाथ लगा वह ‘गुर्जर’ नाम का एक ऐसा पवित्र और वीरता सूचक शब्द था जो ‘क्षत्रिय’ का स्थानापन्न बनने के लिए तैयार था। भारत के तत्कालीन सुसभ्य, सुशिक्षित, सुसंस्कृत विद्वान मंडल अथवा ऋषिमंडल ने इस पवित्र शब्द को भारत की वीर क्षत्रिय परंपरा का नेतृत्व करने की अपनी अनुमति प्रदान की।
फलस्वरूप पांचवी शताब्दी में भीनमाल गुर्जर साम्राज्य की राजधानी बनी। वास्तव में भीनमाल वीर गुर्जर जाति का ‘हिरण्यगर्भ:’ होने का गौरव होता है। क्योंकि यहीं से भारत के आने वाले स्वर्णिम इतिहास के ऐसे अनेकों रत्न, हीरे और जवाहरात मिलने का मार्ग प्रशस्त हुआ जो आने वाले भारत की तकदीर और तस्वीर बदलने के लिए प्राणपण से कार्य करने को संकल्पित होने वाले थे । भीनमाल राज्य की स्थापना वीर गुर्जरों ने देश की रक्षा, सुरक्षा और संरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए की थी। उनका उद्देश्य ऐसी सभी शक्तियों का विनाश करना अर्थात उन्हें उजाड़ना था जो भारत विरोध में कार्य कर रही थीं या भारत के धर्म व संस्कृति को मिटाने के किसी भी षड़यंत्र में लगी हुई थीं।

शत्रु संहार कर किए अप्रतिम कार्य

भरूच अर्थात भृगुकच्छ का साम्राज्य भी गुर्जर शासकों के अधीन ही रहा था। छठी से 12वीं शताब्दी में गुर्जर वंश के कई प्रतापी शासकों ने और सम्राटों ने देश में कई जगहों पर अपनी सत्ता स्थापित करने में सफलता प्राप्त की । इस काल में गुर्जर वंश के अनेकों प्रतापी शासकों, सम्राटों, सरदारों और वीर योद्धाओं ने भारत की संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए अपने अप्रतिम बलिदान दिए और भारत को बचाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। गुर्जरों की वीरता, शौर्य और साहस के कारण इन्हें विदेशी मुस्लिम शासकों ने और उनके इतिहास लेखकों ने कभी भी प्रशंसा के योग्य नहीं माना। यही कारण रहा कि नागभट्ट प्रथम, नागभट्ट द्वितीय, सम्राट मिहिर भोज और उन जैसे अन्य अनेकों गुर्जर सम्राटों, शासकों और वीर योद्धाओं को इन लोगों ने उपेक्षा और तिरस्कार की जेल में डाल दिया।
मुगलों के पश्चात जब अंग्रेज इस देश पर आए तो उस समय भी अपनी परंपरागत रणनीति और युद्ध नीति के आधार पर गुर्जरों ने अंग्रेजों का भी हर क्षेत्र में और हर स्थान पर विरोध किया। 1857 की क्रांति हो या उससे पहले के मुस्लिम तुर्क और मुगल शासकों के आक्रमण हों, प्रत्येक अवसर पर गुर्जरों ने देश की रक्षा के लिए अपने बलिदान देने में और इतिहास रचने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। इस कारण अंग्रेजों ने भी इन्हें ‘बदमाश, क्रिमिनल, जरायम पेशा’ जैसे निरादर सूचक शब्दों से संबोधित किया। लेकिन देश की रक्षा करते – करते मिलने वाले इस ‘तिरस्कार भाव’ को भी गुर्जर समाज ने अपने लिए ‘पुरस्कार भाव’ से स्वीकार किया और कभी भी अपने भीतर यह भाव नहीं आने दिया कि मैं किसी भी प्रकार से कमजोर दुर्बल या देश की रक्षा करने में असहाय और असमर्थ हूँ।
कभी भी पुरस्कार की भावना न रखकर देश के लिए समर्पित होकर काम करने की प्रेरणा यदि किसी समाज से ली जा सकती है तो निसंदेह वह गुर्जर समाज ही है। विदेशी सत्ताधारियों का विरोध करने वाली गुर्जर जाति के लिए विदेशी लेखकों और इतिहासकारों से ऐसे ही शब्दों या व्यवहार की अपेक्षा थी, परंतु देश की आजादी के बाद भी यह सब चलता रहा – यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।

क्षत्रिय शब्द का वास्तविक अर्थ

अब हम ‘गुर्जर’ और ‘क्षत्रिय’ शब्द की समानता पर विचार करते हैं। वास्तव में प्राचीन काल में जहां ब्राह्मण वर्ण के लोग सांस्कृतिक व्यवस्था का निर्माण करते थे या कहिए कि अपनी ज्ञान परंपरा के माध्यम से सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए रखने में अपना योगदान देते थे, वहीं क्षत्रिय वर्ण के लोग इस सांस्कृतिक परंपरा में विघ्न डालने वाले लोगों का विनाश करने का काम करते थे। सांस्कृतिक मूल्यों से ही भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का निर्माण हुआ और उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की रक्षा गुर्जर समाज ने की। जो लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक परंपरा के विनाश की योजना में लगे होते थे उन्हें दैत्य या राक्षस के नाम से जाना जाता था। इन दैत्यों या राक्षसों का संहार कर मानव जाति की रक्षा करने का महान दायित्व क्षत्रियों के ऊपर होता था। इसलिए इस व्यवस्था प्रेमी शब्द क्षत्रिय का अभिप्राय क्षरण होती हुई व्यवस्था को रोकने वाले वीर बहादुर लोगों से लिया जाता था। इस प्रकार यह शब्द अपने आप में उस पूरे के पूरे वर्ण को समाविष्ट कर लेता था जिसके नेतृत्व में काम करते हुए लोग बड़ी संख्या में देश सेवा के लिए अपने आपको प्रस्तुत करते थे। ये लोग अपने बाहुबल से या क्षत्रबल से देश सेवा, राष्ट्र सेवा, धर्म सेवा और संस्कृति सेवा का महान कार्य संपादित करते थे।

‘गुर्जर’ शब्द बना क्षत्रिय शब्द का स्थानापन्न

कालांतर में क्षत्रिय शब्द के स्थान पर ‘गुर्जर’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। उस समय गुर्जर किसी वर्ग या संप्रदाय या जाति विशेष के लिए प्रयुक्त नहीं होता था, बल्कि पूरे क्षत्रिय समाज के लिए प्रयुक्त किया जाता था। ऐसा कहना हमारी कल्पना मात्र नहीं है बल्कि गुर्जर शब्द के व्यापक अर्थ से यह बात स्वत: सिद्ध हो जाती है। गुर्जर शब्द में ‘गुर’ का अर्थ शत्रु है जबकि ‘जर’ का अर्थ उसका नाश करने वाले से है। इस प्रकार ‘गुर्जर’ शब्द का यह शाब्दिक अर्थ क्षत्रिय शब्द के समानार्थक सिद्ध होता है। क्षत्रिय वर्ण के भीतर आने वाली अन्य जातियों के किसी भी नाम से क्षत्रिय और उस जाति के नाम का इतना गहरा संबंध प्रकट नहीं होता जितना गुर्जर और क्षत्रिय का होता है।
‘वृहद संस्कृत हिंदी शब्दकोश’ के अनुसार गुर’ का एक अर्थ प्रयत्न करना भी है। जबकि ‘जर’ का अर्थ विनाश ,क्षरण / जरण (बूढा, क्षीण, निर्बल) होता है।
इन दोनों शब्दों का मिलान करके भी यदि देखा जाए तो भावार्थ यही निकलता है कि गुर्जर वह है जो विनाश की, क्षरण की या जरण की अवस्था से लोगों को या समाज को या राष्ट्र को बाहर निकालने का प्रयत्न करता है। जो व्यक्ति या समाज या वर्ण या जाति राष्ट्र सेवा के लिए अपने आपको इसी महान उद्देश्य के प्रति समर्पित करके प्रस्तुत करती है वह ‘गुर्जर’ कहलाती है।

‘उजड़’ शब्द पर चिंतन

अब आते हैं ‘उजड़’ शब्द पर। गुर्जरों ने संस्कृति विनाशक शक्तियों का विध्वंस करना अपना लक्ष्य बनाया अर्थात उनको उजाड़ देना, नष्ट कर देना, उन्हें क्षीण कर देना – यह गुर्जरों का जीवन व्रत था। गुर्जर सम्राट नागभट्ट द्वितीय और उन जैसे अन्य कई गुर्जर शासकों ने संस्कृति नाशक मुस्लिमों को आज के पाकिस्तान से लेकर ईरान तक के विशाल भूभाग से उजाड़ कर अरब की ओर प्रस्थान करने के लिए बाध्य किया और अपने उन हिंदू भाइयों की ‘घर वापसी’ कराई जो मुस्लिमों के दबाव में या उनके भय से हिंदू धर्म को त्याग कर मुस्लिम बन गए थे। जिन-जिन क्षेत्रों से मुस्लिमों को उजाड़ा गया, वहाँ – वहाँ पर फिर भगवा लहराया गया। उस क्षेत्र को देखकर हमारे वीर गुर्जर शासकों को अतीव प्रसन्नता होती थी। उन्हें अपने हिंदू भाइयों की घर वापसी पर भी वैसी ही प्रसन्नता होती थी जैसी सूखी हुई फसल को वर्षा के पश्चात लहलहाती देखकर किसी किसान को खुशी होती है। इस प्रकार शुद्धि अभियान चलाना, अपने स्वधर्मी भाइयों के मुस्लिम बन जाने पर उनकी घर वापसी की व्यवस्था करना और फिर विदेशी आक्रमणकारियों को उजाड़ कर उन्हें उनके देश भगाने या समाप्त करने की प्रक्रिया के पश्चात भगवा लहराना इस देश में सबसे पहले गुर्जर समाज ने आरंभ किया। इस प्रकार गुर्जर समाज इस देश की संस्कृति की रक्षा करने वाला एक आंदोलन था, एक अभियान था, एक विचार था, एक ऐसा चिंतन था जो भारतवर्ष की नब्ज पर हाथ रखकर जब काम करता था तो संपूर्ण देश क्रांति के लिए मचल उठता था। ऐसे विचार या आंदोलन या अभियान या चिंतन को मार कर जो देश आगे बढ़ने की सोचता हो ,वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता । इसलिए गुर्जर समाज के विचारात्मक सांस्कृतिक आंदोलन को भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की मूल चेतना का अक्षय स्रोत कहकर भारतीय इतिहास में उसका इसी प्रकार अभिनंदन कर स्थापित करना समय की आवश्यकता है। गुर्जर समाज अपने अभियान को फलीभूत होते देखने के लिए किसी न किसी को उजाड़ता तो था और उस पर खुश भी होता था, पर किसे उजाड़ कर खुश होता था ? इस पर चिंतन होना चाहिए।

गुर्जरों ने देशभक्ति की, गद्दारी नहीं

अकबर के दरबार के नवरत्नों में से एक अबुल फजल हिंदुओं के अन्य महान गुणों की प्रशंसा के साथ-साथ उनके साहस की प्रशंसा करते हुए यह भी कहता है कि – “विपत्ति के समय उनके चरित्र का उज्जवल पक्ष प्रकट होता है। उनके सैनिक युद्ध स्थल से पलायन करना नहीं जानते हैं और जब उन्हें अपनी विजय संदिग्ध लगती है तो वे अपने घोड़े से उतरकर साहस पूर्वक अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं।” वास्तव में हिंदू वीर योद्धाओं की इस परंपरा का नाम ही गुर्जर परंपरा है। जिसे थोड़े शब्द परिवर्तन के साथ हमें गुर्जर समाज की इतिहास परंपरा के साथ समन्वित करके देखना चाहिए।
गुर्जर वीर योद्धाओं ने ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को घृणा का पात्र माना जो युद्ध स्थल से पलायन करता हो। उन्होंने युद्ध स्थल में खड़े होकर शत्रु को ललकारने में ही अपना राष्ट्रधर्म देखा। जिसके प्रति वह अंतिम क्षणों तक समर्पित रहे। यही कारण है कि जहां देश की कई क्षत्रिय जातियों के लोगों ने समय विशेष पर या आपत्ति के काल में देश के साथ गद्दारी करने तक के काम कर दिखाए, वहीं किसी भी गुर्जर वीर ने कभी देश, धर्म और जाति के साथ गद्दारी नहीं की। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जिसमें इस महान जाति के किसी वीर योद्धा ने ऐसा घृणास्पद कार्य किया हो। यह स्वयं उन विदेशी राक्षस आक्रमणकारियों को उजाड़ने का काम करता रहा जो देश में यत्र तत्र या तो बसे हुए दिखाई देते थे या कहीं ना कहीं छुपकर हमारे देशवासियों का अहित कर रहे होते थे। यह स्वयं भी उजड़ा और जंगलों में जाकर सुरक्षित स्थानों को खोज कर वहां रहकर शत्रुओं पर प्रहार करता रहा। कुल मिलाकर इसका उद्देश्य केवल यह रहा कि शत्रुओं को उजाड़ना है, भगाना है, नष्ट करना है, क्षीण करना है।
बस इसी से गुर्जरों के बारे में उनकी वीरता, शौर्य, साहस और देशभक्ति को प्रदर्शित करने वाला यह मुहावरा समाज में चल गया कि ‘गुजर उजड़ देखकर राजी होता है।’ उस समय अपने प्रति सम्मान के इन शब्दों को सुनकर प्रत्येक गुर्जर का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था। क्योंकि वास्तव में गुर्जर क्षत्रिय परंपरा के अनुसार राक्षस शक्तियों का विनाश करने के लिए अर्थात उनको उजाड़ देने के लिए ही बना था। इस प्रकार यह मुहावरा उसकी शान के अनुकूल था।
गुर्जर वंश की ऐसी वीरता पर प्रत्येक देशवासी को गर्व होना चाहिए। गुर्जर ने भारत की भाषा (संस्कृत ( भारत की पहचान (संस्कृति ), भारत के प्रतिष्ठान( धर्म) भारत के गौरव (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) के लिए कार्य किया। समझ लीजिए, जो लोग आज किसी तथाकथित गुर्जर भाषा, गुर्जर संस्कृति या गुर्जर प्रतिष्ठान के लिए कार्य कर रहे हैं और इस राष्ट्र की चेतना के प्रतीक गुर्जर शब्द को देश व समाज से अलग दिखाने का प्रयास कर रहे हैं, वे इस वीर जाति और भारतीय राष्ट्र के शत्रु हैं। गुर्जर अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए कभी भी उन देश विरोधी शक्तियों का समर्थन नहीं कर सकता, जो किसी न किसी प्रकार से हमारे देश को कमजोर करने के प्रयासों में लगी हुई हैं या पाकिस्तान व चीन जैसे शत्रु राष्ट्रों के गीत गाकर राजनीतिक ध्रुवीकरण के नाम पर लोगों को भ्रमित करने का काम कर रही हैं । गुर्जर वंश के वीर योद्धाओं की ऐसी वीरता के कारण ही देश अंधकार के उस काल में अपने आपको सुरक्षित अनुभव करता रहा जब सर्वत्र तुर्कों और मुगलों की तलवारों की खनखनाहट दिखाई दे रही थी। इतिहास बोध ना होने के कारण हमारे गुर्जर वीर योद्धाओं की ऐसी वीरता को मिट्टी में मिला दिया गया।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

 

 

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