कोणार्क सूर्य मंदिर – 7 , ऊर्मि भर तपस्विनी, काल भर प्रेम और पहला अर्घ्य

The Konark temple is widely known not only for its architectural grandeur but also for the intricacy and profusion of sculptural work. The entire temple has been conceived as a chariot of the sun god with 24 wheels, each about 10 feet in diameter, with a set of spokes and elaborate carvings. Seven horses drag the temple. Two lions guard the entrance, crushing elephants. A flight of steps lead to the main entrance.Konark houses a colossal temple dedicated to the Sun God. Even in its ruined state it is a magnificient temple reflecting the genius of the architects that envisioned and built it.

 

…क्षैतिज योजना तो हो गई, अब ऊर्ध्व की बारी। ऊर्ध्व शिखर जिनका स्पर्श कर आँखें मन को भावविभोर कर देती हैं। ऊर्ध्व शिखर जिन पर पंछी हवाई घरौंदे बनाते हैं, जिन पर बादलों की छाँह लुका छिपी खेलती है, जो आतप को सोख अक्षत अनुभूतियों को इतिहास देते हैं, आकार देते हैं। काल की भुलभुलइया में भूला हूँ मैं, प्रत्यूष काल है और ऊषा का आह्वान है:

The Konark temple is widely known not only for its architectural grandeur but also for the intricacy and profusion of sculptural work. The entire temple has been conceived as a chariot of the sun god with 24 wheels, each about 10 feet in diameter, with a set of spokes and elaborate carvings. Seven horses drag the temple. Two lions guard the entrance, crushing elephants. A flight of steps lead to the main entrance.Konark houses a colossal temple dedicated to the Sun God. Even in its ruined state it is a magnificient temple reflecting the genius of the architects that envisioned and built it.

उषो वाजेन वाजिनि परचेता सतोमं जुषस्व गर्णतो मघोनि।
पुराणी देवि युवतिः पुरन्धिरनु वरतं चरसि विश्ववारे॥
उषो देव्यमर्त्या वि भाहि चन्द्ररथा सून्र्ता ईरयन्ती।
आ तवा वहन्तु सुयमासो अश्वा हिरण्यवर्णां पर्थुपाजसो ये॥
उषः परतीची भुवनानि विश्वोर्ध्वा तिष्ठस्यम्र्तस्य केतुः।
समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या वव्र्त्स्व॥
ऊर्ध्व शिखरों पर नृत्यरत रश्मियों का दुन्दुभि नाद है और मैं पुरानी प्रार्थना पुस्तक के पन्नों में खो गया हूँ, शब्द जाने कहाँ हैं!
किसी ने कहा है कि तुम्हारे लेखन में केवल क्षिति और गगन रह गये हैं , अग्नि कहाँ है? समीर का प्रवाह किन कोटरों में जा छिपा? जल को कौन सूर्य सोख गया? मेरे पास उत्तर नहीं हैं। उत्तर तो इस प्रश्न का भी नहीं है कि यह तीर्थयात्रा कब तक चलेगी? इस बात पर क्या कहूँ कि कभी कभी तुम मुझे किसी और लोक के प्राणी लगते हो! …कैसे कहूँ कि इस अभिशप्त आशीर्वाद में मैं खोने वाला अकेला नहीं।
माघ शुक्ल सप्तमी यानि 13 जनवरी 1258, दिन रविवार को जन्मदिन था रविरूप विरंचि नारायण का और 14 जनवरी 1930 को 672 वर्षों के बाद लाल सागर की लहरों पर एक स्त्री पहली बार दक्षिणायन हो रही थी। पूर्व, पश्चिम, उदय, अस्त, उत्तर, दक्षिण, जीवन, मृत्यु। वह जीवन के मर्म ढूँढ़ने दक्षिण-पूर्व कोण की ओर निकली थी। उसका लिखा पढ़ कर लगा है कि ऊर्मि है…इतने वर्षों के बाद!! इस काल अंतरिक्ष में मैं कैसे न खोता? नियति कैसे कैसे खेल खेलती है। मैं सचमुच किसी और लोक में हूँ, मैं मिथक हूँ…
…पूर्वाभिमुख घर के ओसारे की सीढ़ियों को पार करती छाया रेख, पीछे पीछे अनुशासित पंक्तिबद्ध अनंत प्रकाश छागल। अम्मा का अनुशासन इस रेखा से संचालित होता है न कि पिताजी की घड़ी से। अनुशासनमुक्त रविवार को पाता हूँ कि दिन चढ़ने पर खुले आँगन की लौहजाल को भेद कृश रश्मिरेख जँगले से होती एक कोने पहुँचती है और वहाँ रखा गौर शिवविग्रह पारभासी हो उठता है। भागता हुआ बैठके में आता हूँ, जँगले के सारे कपाट बन्द करता हूँ। काठ के एक पल्ले में छोटा सा छेद है। अन्धेरा कमरा पिन होल कैमरा बन जाता है, दीवार की सफेदी पर उल्टे लहराते हैं – शिंशपा, आम, अमरूद, बेल…शब्दहीन अनुभूतियाँ सिर उठाने लगती हैं, मैं बस निहारता रह जाता हूँ…
…एलोरा के गुफा स्तम्भों की छाँव में बैठी उस स्त्री से मेरा क्या सम्बन्ध है जो अपने रेखाचित्रों में तांडवलीन नटराज की ज्यामिति के पीछे सृष्टि के जीवनमूल्यों के अन्वेषण में लगी है? किसी ने कभी लिखा था – कार्मिक सम्बन्ध! जाने लिखते हुये वह मुस्कुराई थी या नहीं…
क्या पिताजी ने घर बनाने के पहले यह सब सोच कर योजना बनाई होगी?
नहीं रे!
तो?
जब एक साधारण से घर में इतना कुछ घट सकता है तो वास्तुमंडल, गणित ज्योतिष और विद्या मार्तंडों की योजना में बने सूर्यमन्दिर में तो बहुत कुछ घट सकता है, तब और जब कि देवालय सूर्यदेव के लिये ही समर्पित हो!

मैं द्रष्टा हूँ, ऊर्ध्वरेता ऋषियों के सान्निध्य में ऊर्ध्व योजना पर लिखने के पहले आराधन करना चाहता हूँ। बचपन से सँजोयी रश्मियों को भगवान भुवन भास्कर को समर्पित कर देना चाहता हूँ।
नटमन्दिर के मंडप में अनंत रश्मियों के नृत्य हैं, स्तम्भों पर नाचती अप्सराओं के मृदंग, बाँसुरी, शंख, घंटादि की ध्वनियाँ हैं। आरती के स्वर हैं और काल के आवर्त को निहारती आँखों में प्रश्न कि कब रश्मियाँ 54 धनु दूर गर्भगृह तक अपने अर्घ्य ले पहुँच पाती होंगी? ये तो चंचला हैं, वर्ष भर उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर का झूलना झूलती रहती हैं! भला ऐसे कोई आराधना हो सकती है?
हो सकती है, चंचल गति में अनुशासन है। उत्तर दक्षिण झूलने का कुल आयाम 47 अंश है। विषुवत वृत्त से लगभग 23.5 अंश दक्षिण में मकर वृत्त और उतने ही उत्तर में कर्क वृत्त। ये इन्हें पार नहीं करतीं।
उस वर्ष तब जब कि देव की स्थापना हुये दो माह बीत चुके थे, 13 मार्च को पड़ा था महाविषुव। रश्मियाँ ठीक पूर्व दिशा में पंक्तिबद्ध हुईं और अर्घ्य अंजलियाँ उठने लगीं। मनुष्य की भौतिक देह पार हुई, देवों की ऊँचाई पार हुई। अढ़ाई पोरसा भर ऊँचाई, 8/3 अंश का कोण – विरंचिनारायण का सिंहासन आलोकित हो उठा। गर्भगृह के अन्धेरे में दो माहे नवजात को पहली बार बाहरी संसार के उजाले के दर्शन हुये।…
…घंटा, घड़ियाल, डमरू निनाद तीव्रतर हैं। सहेजी रश्मियों की उथल पुथल में ऊर्ध्व, और ऊर्ध्व! नेतृत्त्व ऊर्मि ने सात वितस्तियों की ऊँचाई पार कर ली है। अंजलियों में सातो वार सिमट आये हैं, झुके नेत्र वन्दन वारि, देवचरणों में आराधना के पहले प्रकाश पुष्प टपक पड़े हैं।

…ध्वस्त महालय है या आलोकित गर्भगृह? 2012 है या 1258? कितने बजे होंगे? कालयंत्र में चन्द्रभागा की गैरिक रेत धीरे धीरे नीचे उतर रही है। प्रात: के सवा छ: बजे होंगे। ऊर्मि ने हाथ पकड़ लिया है – बुद्धू! तुम हो, केवल हो, काल को क्या पूछना? बस चौथाई घड़ी और, और रश्मियों के साथ हमें भी बाहर होना पड़ेगा, चलो अभी! …
…जगमोहन से बाहर कुछ पग आगे सागर का चन्द्रभागा तट है। दूर क्षितिज से आगे कहीं बहुत दूर सैकड़ो वर्षों के अंतराल पर स्विटजरलैंड से भारत आते जलयान पर लाल सागर से घिरी एक स्त्री दिखी है। मैं देख सकता हूँ, वह डायरी लिख रही है:
“… लाल सागर में जलयान पर जगी थी। अद्भुत प्रभात था।…जल को घेरे दोनों ओर दीप्त, स्यात पारदर्शी पर्वतमालायें हैं। …पर्वत की तीक्ष्ण ढाल के आगे बालुका के पीत प्रसार, डोलते छायावृत्त, लहरों की मन्द क्रीड़ा…पहली बार दक्षिणी गोलार्द्ध का अनुभव किया है… यहाँ संसार में अधिक रूप है, अधिक गहराई है और अधिक, अत्यधिक आनन्द है..”
उसकी डायरी में अंतिम प्रविष्टि है:
“अब मैं अपने तीसरे अभियान में हूँ।
पहला था भारतीय नृत्य।
दूसरा था भारतीय पवित्र मूर्तिकला।
तीसरा है भारतीय मन्दिर स्थापत्य: कोणार्क का रथ
और यंत्र, तंत्र, सृजनात्मक रूपाकार के प्रतीक सिद्धांतों का सहजबोधी शोध।“
दिनांक 7 फरवरी, 1967। स्थान – अस्सी घाट, वाराणसी।
नाम – एलिस बोनर, आयु – 78 वर्ष।
… भारतीय रूप संसार की आध्यात्म अन्वेषी, एक जोगन, एक तपस्विनी।
(जारी)

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