लॉबस्टर, जॉर्डन पीटरसन और भगवद्गीता

घूम-घूम कर खाने-पीने की चीज़ें दिखाने वाला कार्यक्रम था और शायद एनडीटीवी के माल्या के साथ वाले एनडीटीवी गुड टाइम्स पर आया करता था। इसमें होस्ट एक नामी पत्रकार थे विनोद दुआ और “ज़ायका इंडिया का” में ये दक्षिणी भारत में कहीं पहुंचे हुए थे! उनके सामने जो परोसा गया था, उसके बारे में उन्होंने कहा “दिव्य स्वाद”! अब दिव्य स्वाद सुनते ही मेरा ध्यान भी टीवी पर गया। देखने लगे तो पता चला वो लॉबस्टर खा रहे हैं! वही जिसके छोटे रूप को हमलोग झींगा मछली बुलाते हैं।
असल में ये मछली होती भी नहीं, इसे एक किस्म का कीड़ा माना जाता है। ठीक-ठाक मीट-मुर्गा खाने वाले लोगों को भी अगर इस कीड़े को पकते दिखा दिया जाए तो वो भी इसे खाने में हिचकिचाने लगेंगे। और उसके बारे में विनोद दुआ कह रहे थे “दिव्य स्वाद”!

खैर, हमारा ध्यान उनके लॉबस्टर पर था। ये अनोखा किस्म का कीड़ा दुनिया में हज़ारों साल से है। डायनासोर इसके बाद आये और दुनियां से चले भी गए, लेकिन ये मजबूत और टिकाऊ कीड़ा बिलकुल तिलचट्टों की तरह धरती पर जमा हुआ है। इसकी जीवनशैली कम से कम इतनी महत्वपूर्ण तो जरूर है कि जॉर्डन बी पीटरसन की किताब में इसका जिक्र आ जाये।
वैसे तो धर्म की बातें करने पर तथाकथित लिबरल गिरोह किसी भी व्यक्ति को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं, लेकिन ये जॉर्डन बी पीटरसन के साथ नहीं हो पाया। उन्होंने 2018 में अपनी ही एक क्वोरा पर लिखी पोस्ट (जवाब) के आधार पर “12 रूल्स फॉर लाइफ” लिखी थी। ये विश्व भर में चर्चित हुई और हाल के दौर की प्रेरक किताबों में से सबसे चर्चित है। इसका विश्व भर में अनुवाद हुआ है, और अब तो ये हिंदी में भी आती है। तो उनकी किताब के पहले ही अध्याय में इस लॉबस्टर और उसकी अनोखी जीवनशैली की कहानी मिलती है।
ये झींगा समुद्र तल में पाया जाने वाला प्राणी है। इनके मस्तिष्क की संरचना अपेक्षाकृत रूप से सरल होती है, इसलिए वैज्ञानिकों ने काफी हद तक उसका मॉडल बनाने में सफलता भी पाई है। ऊपर चल रही दूसरे जीवों की छिना-झपट में कुछ चीज़ें नीचे गिरती रहती हैं। तल तक पहुँचने वाले इस सड़े-गले आहार में से ही झींगा अपना आहार ढूंढता है। ऊपर जो जीव मर गए, वो जब तल तक पहुंचेंगे तो उनसे इसे भोजन मिलेगा, इसलिए ये एक इलाके पर अपना कब्ज़ा जमाते हैं। आकार बढ़ने पर इन्हें अपना खोल छोड़कर दूसरा खोल शरीर पर बनने का इंतजार करना पड़ता है।
जबतक नया खोल न बने, मुलायम शरीर का प्राणी जल में आसान और स्वादिष्ट शिकार है। इसलिए इन्हें अपने लिए एक छुपने की जगह भी खोजनी पड़ती है। ऐसी जगहें गिनती की ही होंगी, इसलिए इनमें आपस में जगह के लिए लड़ाई भी होती है। हारने वाले को भागना पड़ता है। इस हार में एक मजेदार चीज़ होती है। अगर कोई मजबूत झींगा हारा हो तो उसका पुराना मस्तिष्क विलीन हो जाता है और जो नया मस्तिष्क उपजता है, वो उसकी हारी हुई क्षमता के अनुरूप होता है। वो कोने में कहीं अपनी जगह बनाएगा, दब्बू किस्म का हो जायेगा! जिन झींगों से वो पहले कभी जीत चुका है, उनसे भी वो दोबारा लड़ने को तैयार नहीं होगा।
अब आते हैं भगवद्गीता पर। अर्जुन चौथे अध्याय के चौथे श्लोक में श्री कृष्ण से पूछते हैं कि ये योग आपने पहले किसी को सिखाया था, ये कैसे मान लूं? आपका और मेरा जन्म तो अभी का है और जिनका जिक्र आप कर रहे हैं, वो सभी काफी पहले के हैं। इसके जवाब में श्री कृष्ण बताते हैं कि मेरे तुम्हारे कई जन्म हो चुके हैं, जिन्हें मैं जानता हूँ मगर तुम नहीं जानते –
श्री भगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5
हिन्दुओं का पुनःजन्म का सिद्धांत कुछ वैसा ही है जैसे हारने वाले झींगों के मस्तिष्क का नष्ट होना। शरीर समाप्त होने पर जब पुनः जन्म मिलेगा तो पुराना मस्तिष्क नष्ट हो चुका होगा। प्रकृति और वातावरण के प्रभाव से उसके मस्तिष्क का पुनः निर्माण होगा। यहाँ वो प्रश्न भी महत्वपूर्ण हो जाता है जिसमें अर्जुन पूछते हैं कि जो किसी कारण योगभ्रष्ट हो गए, उनका क्या होगा? इसका जवाब छठे अध्याय में है –
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।6.42
इनमें मोटे तौर पर ये बताया गया है कि योग पूरा ना भी हो तो व्यक्ति लम्बे समय तक स्वर्ग आदि सुख भोगने के बाद ऐसी जगहों पर जन्म लेता है जहाँ से आगे का मार्ग उसके लिए सरल हो जाए।
ये कुछ कुछ वैसा है जैसे झींगे पर सेरोटोनिन और ऑक्टोपमाइन का प्रभाव। हारा हुआ झींगा ऑक्टोपमाइन के प्रभाव में होता है लेकिन अगर उसे सेरोटोनिन नाम का हार्मोन दे दिया जाए तो वो फिर से लड़ने को तैयार हो जाता है। इन रसायनों का मनुष्यों पर भी झींगे जैसा ही असर होता है। डिप्रेशन से जूझ रहे लोगों को जो प्रोजैक दी जाती है, उसका असर भी सेरोटोनिन जैसा ही होता है। बिलकुल वैसे ही जैसे एक बार हारा हुआ झींगा उन झींगों से भी लड़ने को तैयार नहीं होता जिनसे वो पहले जीत चुका हो, अर्जुन भी उनसे लड़ने को तैयार नहीं था जिनसे वो पहले कई बार जीत चुका था। उसे भी कुछ प्रोजैक या सेरोटोनिन जैसा ही भगवद्गीता के रूप में मिला।
जैसे झींगे का पुराना मस्तिष्क नष्ट होता है, वैसे ही शरीर के नष्ट होने पर, मनुष्यों का भी होता है। इसे छोटे रूप में देखना हो तो प्रेम में असफलता पाए पुरुषों में देखिये, नौकरी से निकाल दिए गए पुरुषों में देखिये। जैसे वो दोबारा प्रेम जैसे भाव को समझने के लिए तैयार नहीं होते, या फिर दूसरी नौकरी के इंटरव्यू के लिए प्रयाप्त आत्मविश्वास नहीं जुटा पाते, वैसा ही होता है। ऐसी ही स्थितियों के लिए दूसरे अध्याय में भगवान कहते हैं –
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37
अर्थात युद्ध में मारे गए तो तुम स्वर्ग प्राप्त करोगे और अगर जीते तो पृथ्वी पर राज्य भोगोगे; इसलिय, हे कौन्तेय ! युद्ध का निश्चय कर खड़े हो जाओ।
तो इस तरह से देखें तो भगवद्गीता केवल मोक्षप्राप्ति का ग्रन्थ नहीं है, इसे आप एक प्रेरक पुस्तक के रूप में भी इसलिए पढ़िए क्योंकि जीवन है तो हार-जीत दोनों ही होगी, और हार की स्थिति में अगले मोर्चे पर फिर से आपको स्वयं ही डटकर खड़े होना पड़ेगा। बाकी ये जो लॉबस्टर-झींगा के माध्यम से दिखाया वो नर्सरी स्तर का है, और पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा!

शोध होगा तो प्रयोग भी होंगे ही। प्रयोगों के बिना शोध कैसा? हाँ, ये जरूर था कि उनके शोध अक्सर मानवों पर होते हैं! ऐसा इसलिए क्योंकि डॉ. डेनियल सिमोन्स बिहेवियरल साय्कोलोगिस्ट और कोगनिटिव साइंटिस्ट हैं। मनोविज्ञान से जुड़े होने के कारण उनका विषय मानव होते हैं। तो एक दिन उन्हें एक अनूठा प्रयोग करने की सूझी। वो लोगों को बैठाकर एक वीडियो दिखाते। इस वीडियो में छह लोगों दिखाए जाते थे। वीडियो बिलकुल पास से लिया गया है। इतने पास से कि कब कौन सा व्यक्ति हंसा-मुस्कुराया, ये भी देखा जा सकता है।
इस वीडियो में लोग दो टीम में बंटे हुए हैं। तीन लोगों ने सफ़ेद टी-शर्ट/शर्ट पहनी होती है और तीन ने काली। सभी लोग एक दूसरे को बास्केटबाल पास कर रहे हैं। प्रयोग में भाग लेने वालों से कहा गया कि टेस्ट बिलकुल साधारण सा है। आपको बस ये गिनकर बताना है कि सफ़ेद कपड़े वालों ने एक दूसरे को कितनी बार गेंद पास की। लोग भाग लेते, और अक्सर सही गिनकर बताते। फिर उनसे पूछा जाता कि क्या आपने गोरिल्ला देखा? अब भाग लेने वाला घबराता! पूछता, कौन सा गोरिल्ला? ऐसे में उसे वीडियो फिर से दिखाया जाता। वीडियो में सचमुच एक गोरिल्ला जैसा खोल पहने व्यक्ति बीच में घुसता है, फ़िल्मी गोरिल्ला वाले स्टाइल में अपनी छाती पीटता है और फिर निकल जाता है।
वीडियो में गोरिल्ला इतनी देर तक तो जरूर है कि वो लोगों को दिख जाए, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से लगभग किसी ने भी गोरिल्ला नहीं देखा! ये प्रयोग उन्होंने बाद में अलग-अलग तरीकों से दोहराया। कभी बाजार में कोई गोरिल्ला का खोल पहने घूमता रहा, किसी ने ध्यान नहीं दिया। कभी वो किसी लाल बत्ती पर सड़क पार करता है, वहाँ अधिकांश लोगों का ध्यान नहीं जाता। सुबह जोग्गिंग कर रहे लोगों को पार कर जाने पर भी कोई उसपर ध्यान नहीं देता। अपने शोध से डॉ सिमोन्स ने ये नतीजा निकाला कि लोगों के पास अगर पहले से निर्धारित लक्ष्य हों, तो वो आस पास की दूसरी घटनाओं पर बिलकुल ध्यान नहीं देते। वो उन्हें नजर ही नहीं आएँगी।
हमें यकीन है कि अपने आप को चतुर सिंह चीता मानने वाले कई लोग इस शोध को मानने के लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे। वो कहेंगे कि नहीं-नहीं जी! हम तो देख लेते जी! हमपर शोध करता तो डॉक्टर जमीन पर आ जाता जी! सचमुच उनपर शोध कर दिया जाए, और फिर उन्हें गोरिल्ला ना दिखे, तो भी कुछ ऐसे कूढ़मगज होंगे जो कह बैठेंगे कि हम तो देख लेते जी! मगर मोदी जी ने देखने नहीं दिया जी! ऐसा इसलिए कि अधिकांश भारतीय पुरुष अपने जीवन में ये कर चुके होते हैं। किसी चुनाव में गिनती के वक्त पत्नी जी या माता जी खाने के लिए बुला रही हों, या भारत-पाक के मैच का लास्ट ओवर हो और किसी काम से आवाज दी जाए तो सुनाई देना तो बंद होता ही है ना?
न्यूज़ ही देखने के बाद पुरुषों से पूछ लीजिये कि एंकर ने पहना क्या था, तो उन्हें पूरा समाचार याद होगा मगर एंकर ने क्या पहना था ये नहीं दिखा होगा। स्त्रियाँ ये बता देंगी कि एंकर ने पहना क्या था, मगर किस मुख्यमंत्री ने कौन सी किरंतिकारी योजना शुरू कर दी है, ये नहीं दिखा होगा। ड्राइंग रूम में बैठे हों, टीवी चल रहा हो तो भी बहुत कम पुरुषों को सीरियल दिखता है और बहुत कम स्त्रियों को क्रिकेट-फुटबाल का स्कोर नजर आयेगा। ये सिर्फ लक्ष्यों का मामला है। जहाँ ध्यान था वो दिखा, जहाँ ध्यान नहीं था वो नजर नहीं आएगा।
बहुत से लोगों के लिए ये स्वीकार करना कठिन होता है कि आँखों के सामने रखी कोई चीज़ नजर कैसे नहीं आएगी। हिन्दुओं के लिए इसे समझना बिलकुल भी मुश्किल नहीं। वो बचपन से ही “सब माया है” से परिचित होते हैं। अब जब माया के जिक्र से समझ में आ गया है कि हमने फिर से धोखे से भगवद्गीता पढ़ा डाली है, तो देखते हैं कि भगवद्गीता में माया के लिए कहा क्या गया है।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14
सातवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में भगवान कहते हैं कि मेरी इस तीन गुणों वाली माया को पार करना कठिन है, परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं। इसके आगे के श्लोकों में भगवान बताते हैं कि मूर्ख और नराधम तो मेरी शरण में नहीं आते लेकिन चार प्रकार के भक्त मेरी शरण में आते हैं। पहला अर्थार्थी यानि धन-सम्मान इत्यादि पाने की लालसा वाला होता है। दूसरा आर्त यानी किसी ऐसी परेशानी में फंसा व्यक्ति जिसे कोई और चारा नहीं सूझ रहा हो। तीसरा जिज्ञासु होता है और ज्ञान प्राप्ति की इच्छा रखता है इसलिए आता है। चौथा ज्ञानी होता है, जो पहले से ही जानता है कि भगवान की शरण ही उत्तम है। भगवान चारों प्रकार के भक्तों में से किसी से कोई दुराव नहीं रखते।
अब सवाल है कि अगर माया है तो उसे पार करके केवल अपना लक्ष्य ध्यान में रहे, ऐसा किया जा सकता है क्या? ये प्रश्न अर्जुन छठे अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में अर्जुन पूछ्ते हैं। उनका मानना था कि मन तो वायु की तरह चंचल है और इसे रोकना बहुत कठिन है। इसके जवाब में श्री कृष्ण कहते हैं –
श्री भगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35
अर्थात: श्रीभगवान् ने कहा कि महबाहो नि:सन्देह मन चंचल और कठिनाई से वश में होने वाला है परन्तु, उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है। श्री कृष्ण थोड़ा आगे (6.46 में) अर्जुन को योगी बनने कहते हैं। योग के आसन, प्राणायाम, ध्यान, समाधी जैसे अंग तो अक्सर सुनाई देते हैं, लेकिन पूरे तौर पर इसे अष्टांग योग कहा जाता है। इन आठ अंगों में प्राणायाम मन की चंचलता को वश में करने के लिए, या विक्षुब्ध स्थिति के नियंत्रण के लिए होता है। इसके अलावा प्रत्याहार भी छठे अध्याय के पैंतीसवें श्लोक के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है।
छठे अध्याय के इसी हिस्से में भगवान ये भी बताते हैं कि योग अगर अधूरा छूट जाए तो भी कोई नुकसान नहीं होता। इसलिए आठों अंग नहीं आते, केवल एक दो ही आते हैं, तो भी परेशान होने जैसी कोई बात नहीं। केवल एकाग्रता बढ़ाने और जीवन के दूसरे क्षेत्रों में उस एकाग्रता का उपयोग करना हो तो भी प्राणायाम तो किया ही जा सकता है। या फिर ये सोचकर भी मुस्कुरा सकते हैं कि जिन विषयों पर हॉवर्ड में पढ़ा चुके डॉ. डेनियल सिमोन्स शोध करते हैं, उन बातों पर भारत में शोध क्यों नहीं हुआ? जैसे शोध में भाग लेने वालों को गोरिल्ला नहीं दिखता, वैसे ही भारत में आसानी से उपलब्ध भगवद्गीता ना दिखे ये भी हो सकता है।
बाकी डॉ. डेनियल सिमोन्स के गोरिल्ला वाले शोध के जरिये जो बताया है वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको खुद ही पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा।
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित

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