मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना, अध्याय – 9 ( 5 )

 

चतुर्थ क्रूश युद्ध (1202-1204)

अभी तक पोप की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि हो चुकी थी । जिस प्रकार मुसलमानों के यहाँ खलीफा मजहब का मुखिया होता था, उसी प्रकार ईसाइयों के यहाँ पर पोप की स्थिति थी । मजहब के तथाकथित ठेकेदारों ने लोगों के भीतर मजहबी उन्माद पैदा करके अपनी सत्ता को मजबूत करने का षड़यंत्र रचते रहने में कुशलता प्राप्त कर ली थी। उसी का परिणाम था कि संसार की बड़ी जनसंख्या अपने-अपने मठाधीशों की अनुयायी बनकर उनकी आवाज पर काम करने वाली हो चुकी थी।

लोगों की इस प्रकार की साम्प्रदायिक भावनाओं का इन धर्माधीशों ने जमकर दुरुपयोग किया। इसी के चलते बड़े-बड़े सम्राटों को भी इन धर्माधीशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था।
इस युद्ध का प्रवर्तक पोप इन्नोसेंत तृतीय था। उसकी इच्छा थी कि ईसाई जगत अपने मतभेदों को भुलाकर एकता का परिचय दे और मुसलमानों को इस पवित्र भूमि से बाहर निकालने में सफलता प्राप्त करे। उसका मानना था कि मुसलमानों के यहाँ रहने से यह पवित्र भूमि पददलित है और ईसाइयों को इसकी मौन आवाज को सुनना चाहिए। इसलिए वह ईसाइयों में एकता स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहा। वह सारे भूमण्डल पर ईसाइयों की एकता के लिए काम करने का इच्छुक था। जिससे ईसा मसीह की शिक्षाएं संसार का मार्गदर्शन कर सकें और उनका प्रचार-प्रसार हो सके। पोप की शक्ति इस समय चरम सीमा पर थी। वह जिस राज्य को जिसे चाहता, दे देता था।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मुसलमानों का खलीफा हो चाहे ईसाइयों का पोप हो इन्हें जनता नहीं चुनती थी बल्कि ये स्वयं अपने लिए ऐसे रास्ते बनाते रहे जिनसे जीवन भर के लिए उनका चयन खलीफा या पोप के स्थान पर हो जाता था। उसके पश्चात ये लोगों की धार्मिक आस्थाओं का लाभ उठाते हुए उन्हें भरमाते और भटकाते थे। जिससे विश्व में इनका वर्चस्व स्थापित रहे और उनकी सत्ता को किसी प्रकार की चुनौती कहीं से भी ना मिल सके । अपने इस निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए ये लोग तत्कालीन राजशाही, बादशाही या राजाओं को भी अपने हाथों की कठपुतली बनाने का प्रयास करते थे। जन भावनाओं का उभार व लगाव लगाव इन धर्म के ठेकेदारों के साथ होने के कारण कई बार राजाओं को भी इन्हीं की हाँ में हाँ मिलानी पड़ती थी । जिससे आम लोगों को ऐसा लगता था कि जैसे खलीफा और पोप धरती पर ईश्वर के ही दूसरे रूप हैं। यदि उन्होंने इनकी कही हुई बात को स्वीकार नहीं किया तो निश्चय ही उन्हें नर्क में जाना पड़ेगा।
सन् 1202 में पूर्वी सम्राट् ईजाक्स को उसके भाई आलेक्सियस ने अंधा करके हटा दिया था और स्वयं सम्राट् बन बैठा था। पश्चिमी सेनाएँ समुद्र के मार्ग से कोंस्तांतान पहुँची और आलेक्सियस को हराकर ईजाक्स की गद्दी पर बैठाया। उसकी मृत्यु हो जाने पर कोंस्तांतीन पर फिर घेरा डाला गया और विजय के बाद वहाँ बल्डिविन को, जो पश्चिमी यूरोप में फ़्लैंडर्स (बेल्जियम) का सामंत था, सम्राट् बनाया गया। इस प्रकार पूर्वी साम्राज्य भी पश्चिमी फिरंगियों के शासन में आ गया और 60 वर्ष तक बना रहा।
इस क्रान्ति के अतिरिक्त फिरंगी सेनाओं ने राजधानी को भली प्रकार लूटा। वहाँ के कोष से धन, रत्न और कलाकृतियों लेने के अतिरिक्त प्रसिद्ध गिरजाघर संत साफिया को भी लूटा जिसकी छत में, कहा जाता है, एक सम्राट् ने 18 टन सोना लगाया था।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : राष्ट्रीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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