बाहर की प्रताड़ना देती मन को त्रास

बिखरे मोती

 

हरि भजै दुर्गुण तजै,
मन होवै प्रपन्न।
ऐसे साधक से सदा,
हरी रहे प्रपन्न॥1458॥

प्रपन्न – अहंकार का गलना और प्रभु के समर्पित होना,प्रभु के शरणागत होना
साधक -भक्त

धन – माया दोनों छिनें,
मृत्यु छीने प्राण।
सर सूखे हंसा उड़़े,
सब कुछ हो सुनसान॥1459॥

बाहर की प्रताड़ना,
देती मन को त्रास।
जो होवे अंतस्थ की,
करती आत्म-विकास ॥1460॥

व्याख्या:- प्रायःयह देखा गया है कि यदि किसी व्यक्ति को कोई डांट दे ,धमका दे ,लताड़ दे अथवा उसके स्वाभिमान को धिक्कार दे तो उसके मन को बड़ा कष्ट होता है,ह्रदय में प्रतिशोध की ज्वाला जलती है,मानस में न जाने कैसी – कैसी प्रतिक्रियाएँ अवतीर्ण होती हैं,कालांतर में यह सब ऐसे ठंडी हो जाती हैं जैसे सोडावाटरी जोश ठंडा हो जाता है किंतु जब व्यक्ति की आत्मा उसे डांटती है,धमकाती है,लताडती है अथवा उसके आत्मगौरव यानी कि उसकी अस्मिता को धिक्कारती है, तो कामी काम पर संयम करता है और क्रोधी क्रोध पर पश्चाताप करता है, लोभी लोभ को,मोहानंद मोह को,अभिमानी अभिमान को, कपटी कपट को, हत्यारा हत्या अथवा हिंसा को, चोर चोरी को, डकैत डकैती को, व्यभिचारी व्यभिचार को, वाचाल वाणी के उद्वेगों को,शराबी शराब को,जुआरी जुआ को,नशेड़ी नशे को ऐसे छोड़ देता है,जैसे सर्प केंचुली को सदा-सदा के लिए छोड़ देता है। इसके उदाहरण इतिहास में एक नहीं अनेक है जैसे – अंगुलीमाल डाकू संत बन गया ,तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली की प्रताड़ना से गोस्वामी तुलसी दास बन गए जिन्होंने ‘रामचरितमानस’ जैस महाकाव्य की रचना की और महाकवि की उपाधि से महिमामंडित हुए।
जब मनुष्य की जमीर पर चोट लगती है अथवा वह आहत होता है तो मनुष्य की आत्मचेतना का विकास होता है।साधारण व्यक्तित्व का व्यक्ति फिर असाधारण व्यक्तित्व का धनी हो जाता है। विश्व के जितने भी विचारक तत्ववेत्ता अथवा विज्ञानवेत्ता हुए हैं उनके जीवन में कोई ना कोई घटना ऐसी अवश्य हुई है जिसने उन्हें चर्मोत्कर्ष तक पहुंचाया है, अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंचाया है।भारत माता के मस्तक का सिंदूर बनने वाले जितने भी महापुरुष अथवा स्वतंत्रता सेनानी हुए हैं उनकी आत्मा उन्हें धिक्कारती थी कि मां भारती के सपूतों ! तुम्हारे अतीत गौरवमय रहा है, तुम विश्वगुरु रहे हो,चक्रवर्ती सम्राट रहे हो , तुम अमृत पुत्र हो, तुम शेर पुत्र हो, तुम्हारे रहते हुए तुम्हारी भारत माँ श्रंगालों (सियारों) अर्थात् अंग्रेजों की गुलाम बनी रहे,यह तुम्हें शोभा नहीं देता। उनके सीने में यह आग वन की आग बन गई, ज्वालामुखी की धधकती ज्वाला बन गई जिसने अंग्रेजो को भारत से ऐसे भगा दिया जैसे तेज आंधी रुई के फोहे को उड़ा देती है। अन्ततोगत्त्वा 15 अगस्त 1947 को स्वर्णिम प्रभात हुआ, भारत आजाद हुआ।कहने का अभीप्रायः यह है कि जब व्यक्ति की जमीर उसे धिक्कारती है,तो आत्मचेतना का विकास होता है, जो केवल व्यक्तिगत जीवन को ही नहीं अपितु सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को गौरवशाली बनाता है।
क्रमश:

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