भारत के स्पार्टाकस तिलका मांझी

वैसे तो विधर्मी आक्रांताओं के विरुद्ध भारत भूमि ने हजारों-लाखों लाल जन्मे हैं किंतु औपनिवेशिक आक्रांताओं के विरुद्ध जो आदि विद्रोही हुये या प्रथम लड़ाके हुये उस वीर को तिलका मांझी के नाम से जाना जाता है। तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया नाम से भी जाना जाता है। ऐसा निस्संकोच कहा जा सकता है कि 1857 के हमारे प्रसिद्ध स्वतंत्रता संघर्ष के बीज 90 वर्ष पूर्व वीर तिलका ने ही बोये थे। कहना न होगा कि 1947 तक चले हमारे स्वतंत्रता संग्राम के प्रत्येक सेनानी के मानस मे कहीं न कहीं वीर तिलका का वीरोचित भाव व उनकी वीरगति का प्रतिशोध भाव प्रेरणा बनकर धधक रहा था। वस्तुतः वे भारतभूमि के स्पार्टाकस सिद्ध हुये हैं।
अंग्रेज़ो से गोरिल्ला युद्ध के माध्यम से उनकी धन-संपत्ति छुड़ा लेना और उसे निर्धन-वंचितों को बांट देना, अंग्रेजों से हथियार छुड़ा लेना और अपने साथियों को सशस्त्र बनाने के लिए वे बड़े प्रसिद्ध हो गए थे। राजमहल (झारखंड) की पहाड़ियों मे उन्होने अंग्रेज़ो को लोहे के चने चबवा दिये थे। स्वतंत्रता संघर्ष के प्रसिद्ध संथाल आंदोलन के प्रणेता थे तिलका मांझी।
तिलका मांझी का जन्म बिहार के तिलकपुर ग्राम मे 11 फरवरी 1750 को पिता सुंदरा मर्मु नामक एक संथाल परिवार मे हुआ था। वीर तिलका का नाम उनके व्यक्तित्व के अनूरूप ही था। पहाड़िया भाषा मे तिलका का अर्थ होता है – लाल लाल आँखों वाला गुस्सैल व तेज तर्रार व्यक्ति। पहाड़िया समुदाय मे समाज प्रमुख को मांझी कहा जाता है। वस्तुतः उनका नाम जबरा पहाड़िया ही था। वीर जबरा के जबर्दस्त व्यक्तित्व से भयभीत रहे अंग्रेजों ने उन्हे तिलका मांझी नाम से पुकारना प्रारंभ किया था।
अपनी किशोरावस्था से ही वीर तिलका अंग्रेजों की दमनकारी व अत्याचारी नीतियों के विरुद्ध आवाज उठाने लगे थे। वे अपने संसाधनों पर अंग्रेजों के कब्जे के घोर विरोधी थे। बचपन मे ही उनके क्रांतिकारी मानस मे जन्मभूमि को विदेशी शासकों से मुक्त कराने की कल्पना जन्म लेने लगी थी व वे इस दिशा मे छुटपुट गतिविधियां करने लगे थे। वनवासियों के संसाधनों पर अंग्रेज़ सतत कब्जा जमा रहे थे फलस्वरूप 1767 मे तिलका मांझी ने अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया था। अनेकों वनवासियों के साथ वे कदम, भागलपुर, सुल्तानगंज राजमहल मे अंग्रेजों से सतत निरंतर संघर्ष कर रहे थे और अंग्रेजों को परेशान करने मे सफल सिद्ध हो रहे थे। तिलका के नेतृत्व मे चल रहे इन प्रचंड विद्रोहों से घबराए अंग्रेजों ने क्लीवलैंड नामक एक तेजतर्रार अधिकारी को राजमहल मे वनवासियों के दमन हेतु भेजा। झारखंड के जंगल, तराई, गंगातटों, ब्राम्ही नदी घाटी आदि क्षेत्रों मे तिलका माँझी अपनी छोटी सी स्‍वदेशी हथियारों वाली सेना लेकर अंग्रेजों के विरूद्ध लगातार संघर्ष करते हुए मुंगेर, भागलपुर, संथाल व परगना के पर्वतीय इलाकों में छिप-छिपकर सतत निरंतर लड़ाई करते रहे। वीर तिलका कहते थे – “यह भूमि धरती माता है, यह हमारी माता है, इस पर हम किसी को लगान नहीं देंगे।” इस बात से अंग्रेज़ प्रशासन बड़ा नाराज था और वीर तिलका को सबक सिखाना चाहता था। राजमहल के सुपरिटेंडेंट क्लीवलैंड व आयरकूट की सेना को वीर तिलका मांझी की सेना ने गोरिल्ला के माध्यम से कई कई बार छ्काया व बड़ी हानि पहुंचाई। पच्चीसों संघर्षों की इस श्रंखला मे वीर तिलका भागलपुर तक पहुँच गए। भागलपुर मे ही वीर तिलका ने 13 जनवरी 1784 को अंग्रेज़ सेना प्रमुख क्लीवलैंड को अपने धनुष बाण से मार गिराया। क्लीवलैंड की हत्या से अंग्रेज़ भयभीत तो हो गए किंतु अब दोगुनी शक्ति व वीर तिलका को खोजकर प्रतिशोध लेने व फांसी देने के लक्ष्य से उन्हे खोजने लगे।
हमारे भारत मे विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध यदि हमारे वीर तिलका जैसे हजारों यौद्धाओं की गाथाएँ भरी पड़ी है तो जयचंदों की भी कमी नहीं रही। तिलका मांझी की वीर गाथा मे भी एक जयचंद आता है जिसका नाम था सरदार जाऊदाह। एक रात तिलका माँझी और उनके क्रांतिकारी साथी जब एक पारंपरिक उत्सव में नृत्‍य-गान कर रहे थे, तभी अचानक इस गद्दार सरदार जाउदाह ने अंग्रेजों के साथ आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुए आक्रमण से तिलका माँझी तो बच गये, किन्तु उनके अनेक देशभक्त साथी वीरगति को प्राप्‍त हुए व कई क्रांतिकारियों को बन्दी बना लिया गया। वीर तिलका माँझी वहां से वीरतापूर्वक संघर्ष करके बच निकले व भागकर सुल्तानगंज के पर्वतीय अंचल में शरण ली। भागलपुर से लेकर सुल्तानगंज व उसके आसपास के पर्वतीय इलाकों में अंग्रेजी सेना ने उन्हें पकड़ने के लिए जाल बिछा दिया। मैदानी क्षेत्रों मे संघर्ष की अभ्यस्त रही वीर तिलका की सेना को पर्वतीय क्षेत्र मे संघर्ष का अभ्यास ही नहीं था। फलस्वरूप उसे अपार कष्ट व अनेकों प्रकार की हानि होने लगी। पर्वतीय क्षेत्र मे अन्न व अन्य संसाधनों का भी अभाव होने लगा। इस परिस्थिति मे वीर तिलका छापामार पद्धति से अंग्रेजों को छ्काते परेशान करते रहे थे। अत्यंत कष्टपूर्ण परिस्थितियों मे व अत्यल्प संसाधनों से इस प्रकार दीर्घ समय तक संघर्ष संभव ही नहीं था। इसी प्रकार के एक संघर्ष मे जब उन्होने वारेन हेस्टिंग्ज़ की सेना पर अपनी संथाल जाति के बंधुओं के साथ प्रत्यक्ष हमला किया। इस संघर्ष मे वारेन हेस्टिंग्ज़ की विशाल व साधन सम्पन्न सेना के सामने वीर तिलका के मुट्ठी भर साधनहीन संथाल बंधु टिक नहीं पाये व पकड़ लिए गए। इस विषमता भरे युद्ध मे भी अंग्रेज़ वीर तिलका को धोखे व छल से ही पकड़ पाये थे।
वीर तिलका को पकड़कर उन्हे अमानवीय यातनाएं देना प्रारंभ की गई। उन्हें 4 घोड़ों के पीछे मोटी रस्सियों से बाँधकर मीलों घसीटा गया। अंततः 13 जनवरी 1785 मे एक वटवृक्ष से लटकाकर
वीर तिलका माँझी को अंग्रेजों ने फाँसी दे दी थी। वीर तिलका तो वीरगति को प्राप्त हुये किंतु अंग्रेजों के विरुद्ध हमारे जनजातीय समाज का संघर्ष उनकी प्रेरणा से सतत चलता रहा। वीर तिलका स्वतंत्रता संग्राम की कहानियों मे व हमारे आरण्यक समाज के गीतों मे जीवित रहकर समूचे समाज को अंग्रेजों के विरुद्ध जागृत करते रहे। वीर तिलका के स्मरण का एक ऐसा ही जनजातीय गीत है जिसका अनुवाद प्रस्तुत है –
तुम पर कोड़ो की बरसात हुई
तुम घोड़ों से बांधकर घसीटे गए
फिर भी तुम्हें मारा न जा सका
तुम भागलपुर मे सरे आम फांसी पर लटका दिये
तुमसे फिर भी डरते रहे जमींदार अंग्रेज़ तुम्हारी तिलका (तेज तर्रार) आंखो से
प्रसिद्ध उपन्यासकर महाश्वेता देवी जी ने वीर तिलका की गाथा पर एक बांग्ला भाषा मे उपन्यास लिखा है – “शालगिरर डाके”। हिन्दी के कथाकार, उपन्यासकार राकेश कुमार जी ने भी अपने उपन्यास “हुल पहाड़िया” मे तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के नाम से बड़ा ही सुंदर चित्रित किया है। हमारे देश ने इस वीर शिरोमणि क्रांतिकारी की स्मृति मे उनके नाम से भागलपुर मे “तिलका मांझी विश्वविद्यालय” की स्थापना की है। भागलपुर मे उनकी शहादत के स्थान पर एक प्रतिमा भी स्थापित है।

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