हर कोई नहीं पा सकता

अग्निधर्मा लोगों का साथ

– डॉ. दीपक आचार्य

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एक-दूसरे के साथ रहना और निभाना वैचारिक और व्यवहारिक धरातल पर निर्भर है। जिन लोगों में वैचारिक समानता होती है, जिनका व्यवहार, चरित्र और कर्म समान है उनमें प्रतिस्पर्धा भी होती है, प्रतिद्वन्दि्वता भी, और सजातीय  आकर्षण- विकर्षण भी।

कई लोग ऎसे हैं जो सभी स्थानों पर फिट हो जाते हैं और अवसरों के अनुरूप पूरी तरह ढल जाया करते हैं। इन लोगों की अपनी कोई विचारधारा या लक्ष्य नहीं होता बल्कि जमाने के अनुसार अपने आपको बदलते रहते हैं और जमाने भर से लाभ पाते रहते हैं। ऎसे लोग सिद्धान्तहीनता और स्वार्थपरक मित्रता में अव्वल होते हैं क्योंकि इन लोगों का उद्देश्य सिर्फ अपने उल्लू सीधे करना ही होता है।

ऎसे में इन्हें न किसी के प्रति आत्मीयता के भाव रखने पड़ते हैं, न किसी के प्रति संवेदनशील रहने की कोई जरूरत पड़ती है। अपना काम सधे तब तक मित्रता, पूरा हो जाए फिर अपने-अपने रास्ते। दुनिया भर में कुछ प्रतिशत ही लोग ऎसे होते हैं जो अग्नि की तरह शुद्ध-बुद्ध होते हैं। इन लोगों की वाणी और कर्म में समानता होती है तथा जीवन में शुचिता भरी हुई होती है।

यही कारण है कि ये लोग फालतू की बातों और मालिन्य को कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। जहाँ कहीं इन्हें कोई बात चुभती है, खराब लगती है अथवा गड़बड़ी दिखती है, ये बिना देरी किए रोक-टोक कर देते हैं और सही-सही कह डालते हैं। इन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि सामने वाले को अच्छा लग रहा है अथवा बुरा।

ये इतने निर्भय और फक्कड़ होते हैं कि इन्हें इस बात की भी कोई परवाह नहीं होती कि कोई इनके साथ रहे, या साथ छोड़कर चला जाए। स्पष्टवादी होने के साथ ही ऎसे अग्निधर्मा लोग सहज, सरल और निष्काम हुआ करते हैं। जो-जो खासियतें अग्नि का प्रतीक हुआ करती हैं वे सभी इनमें कूट-कूट कर भरी    हु  ई  होती हैं।

ऎसे अग्निधर्मा लोगों के साथ रहना और साथ निभाना हर किसीसामान्य व्यक्ति  के बूते में नहीं हुआ करता। यही कारण है कि नापाक और मलीन मन वाले और गंदे कामों में रमे  रहने वाले लोग इनसे दूरी बनाए रखते हैं और उनका यह साफ मानना होता है कि ऎसे लोगों से दूर रहना ही उनके लिए निरापद होता है क्योंकि अग्निधर्मा लोग बुरे कामों और बुरे आदमियों को कभी भी, किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर।

ऎसे अग्निधर्मा लोगों से संपर्क साधने और साथ रहने की कोशिश हमें तभी करनी चाहिए जब हम इनकी ही तरह शुद्ध-बुद्ध वैचारिक भावभूमि, शुचितापूर्ण और निष्काम लोक व्यवहार को मन से अपना लें। ऎसा होने पर ही साथ निभ सकता है अन्यथा कुछ ही दिनों में संबंधों को सायास विराम लेना ही पड़ता है।

चापलुसी, समझौतों और सैटिंग में माहिर लोग कहीं भी संबंध बना सकते हैं क्योंकि ये हर प्रकार के उन हथकण्डों में  माहिर होते हैं जिनसे अपनी भौतिक तरक्की का सफर और अधिक रफ्तार पाता है। अपने स्वार्थ के लिए समझौतों और दासत्व का सहारा लेने वाले लोगों में न स्वाभिमान होता है, न मनुष्यत्व-मुमुक्षुत्व।

यही कारण है कि स्पष्ट और बेबाक बयानी करने वाले, शुद्ध चित्त लोग उन लोगों को कभी पसंद नहीं आते जो अपने क्षुद्र स्वार्थो ं और ऎषणाओं को ही जिंदगी मान बैठे होते हैं।  जिन लोगों को यह भी भान नहीं है कि वे मनुष्य क्यों बनें हैं और उनका लक्ष्य क्या है ? ऎसे लोगों को उन्हीं की किस्म के वे लोग पसंद आते हैं जो अपने लिए जीते हैं।

जो लोग अग्निधर्मा हैं उन लोगों को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि वे अकेले  हैं क्योंकि जहां शुचिता होती है वहाँ अग्निशिखाओं की तरह ओज-तेज और प्रभाव अपने आप ही जाता है।अग्नि की तरह पाक-साफ रहने वाले लोगों के भीतर दिव्यत्व और दैवत्व अपने आप आ जाता है और इन्हीं दैवीय ऊर्जाओं की बदौलत ये लोग उन सारे कामों को पूरा करने का सामथ्र्य पा जाते हैं जो समाज और देश के लिए करने होते हैं।

दूसरी ओर जो लोग अपने बारे में या किसी के भी बारे में साफ-साफ, सही-सटीक और प्रामाणिक बातों को सुनने से कतराते हैं  उन्हें चाहिए कि वे अपने कामों में रमे रहें, उन्हें क्या फर्क पड़ने वाला है, कोई कुछ भी कहे। यों भी स्वार्थ और ऎषणाओंघिरे लोगों की नॉन स्टॉप व फुलस्पीड़ तरक्की तभी संभव है जब वे  बेशर्म हो जाएं। जितने अधिक ये लोग निर्लज्ज होंगे, उतनाअधिक से अधिक  फायदा उन्हें संसार से प्राप्त होगा। फिर जिनका लक्ष्य ही भौतिक और पाश्चात्य अंधानुकरण है उन्हें लाज-शरम कैसी। जहाँ जो जैसा है वैसा बना रहे, इसी में सबका भला है।

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