सावरकर ने हमें बताया था नेहरू के कारण हम चीन से हारे

आस्टे्रलियाई पत्रकार मेक्सवेल से भी पहले सावरकर ने हमें बताया था
नेहरू के कारण हम चीन से हारे

राकेश कुमार आर्य

जितना यह सत्य है कि अहिंसा की रक्षा हिंसा से होती है, उतना ही यह भी सत्य है कि सत्य की रक्षा शस्त्र से होती है। आजादी के बाद उभरे हमारे नेतृत्व ने भारत के इस सनातन चिंतन की उपेक्षा की और राजनीति में नये-नये मिथकों की रचना की। जिसका परिणाम ये निकला कि आजादीsavarkar1 के बाद के पहले दशक में ‘अहिंसा परमो धर्म:’ और ‘सत्यमेव जयते’ के नाम पर ‘स्वाहा-स्वाहा’ बोलते हुए पूरा देश कांग्रेसी यज्ञाहुतियों के रंग में रंग गया।
इन्हीं यज्ञाहुतियों के क्रम में 1962 का साल आ गया, तब चीन ने हमारे तत्कालीन नेतृत्व के मुंह पर चांटा मारा और सारे देश ने कांग्रेसी यज्ञाहुतियों के कायराना क्रम को रोककर अपने नेता के साथ ही मिलकर एक गीत गाया-”ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी। जिसने ये गीत बनाया और जिस महान शख्सियत की धनी लता मंगेशकर ने ये गीत गाया, वो दोनों ही देश के लिए आज तक सम्मान के पात्र हैं, परंतु इसी सम्मान के उत्कृष्टï भाव के नीचे से कुछ लोगों के दोष उसी प्रकार हमारी आंखों से बचकर बह गये जैसे नदी के बहते पानी में पुल के नीचे से किसी मलबे से बना अवरोध चुपचाप बहकर पानी में ही विलीन हो जाता है।
1962 में ही नही अपितु 1947 से पूर्व से ही एक व्यक्ति था जिसने अहिंसा ‘परमोधर्म:’ और ‘सत्यमेव जयते’ की कांग्रेसी यज्ञाहुतियों को देश के लिए घातक कहना और मानना आरंभ कर दिया था। जी हां, मेरा संकेत स्वातंत्र्य वीर सावरकर की ओर ही है, जिन्होंने देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए गांधीजी के अहिंसावाद के स्थान पर ‘बुद्घ नही युद्घ’ और सत्यमेव जयते के कांग्रेसी मिथक के स्थान पर ‘शस्त्रमेव जयते’ का उद्घोष किया था। वीर सावरकर ने इसी दृष्टिïकोण को अपनाकर ‘राजनीति का िहन्दूकरण और िहन्दुओं का सैनिकीकरण’ करने की बात कही थी। क्योंकि वह जानते थे कि सत्य की रक्षार्थ शस्त्र की आवश्यकता होती ही है और अहिंसा की रक्षार्थ हिंसा भी आवश्यक है। वीर सावरकर के विषय में यह कहना कि वो इन नीतियों की सर्वोच्चता को स्वीकार नही करते थे कांगे्रेसी दुष्प्रचार का एक अंग है। जबकि वास्तविकता यही थी कि सावरकर व्यावहारिक थे और वह नेहरू जी की तरह आदर्शों की उड़ान भरने में विश्वास नही करते थे, उन्हें पता था कि अहिंसा विश्व के लिए जितनी आवश्यक है उतना ही सत्य के प्रति विश्व मानस का समर्पण भी आवश्यक है, परंतु इसके लिए वह हिंदुओं का व समस्त देशवासियों का सैनिकीकरण, राजनीति का हिंदूकरण अर्थात राजनीति का वे केवल और केवल मानवतावादीकरण, जनोन्मुखीकरण किया जाना अपेक्षित मानते थे। दुर्भाग्य से देश के प्रथम प्रधानमंत्री की नीतियों पर तो बहुत से लोगों ने पी.एच.डी. करने की कोशिश की है, परंतु नेहरू जी के समकालीन वीर सावरकर की बौद्घिक क्षमताओं पर किसी ने पी.एच.डी. करने का प्रयास नही किया। इसका कारण भी कांग्रेस का कुशासन ही रहा है, क्योंकि इसने अपनी नीतियों के समालोचकों तक को मारने का प्रयास किया है। इसलिए ‘सावरकर को मरने दो और नेहरू को बढऩे दो’ की नीति पर कांग्रेस ने शासन किया है।
1964 में नेहरू जी का 27 मई को स्वर्गवास हो गया। तब 9 जून 1964 को देश की बागडोर लाल बहादुर शास्त्री ने संभाली। उन्होंने चुपचाप सावरकर की बात को मान लिया और हिंदुओं का सैनिकीकरण करने की ओर ध्यान दिया। फलस्वरूप देश में नेहरू काल से चली आ रही अकर्मण्यता की काई फटी और अहिंसा की रक्षार्थ हिंसा के लिए देश उठ खड़ा हुआ, और ‘सत्यमेव जयते’ के स्थान ‘शस्त्रमेव जयते’ को अपनाने लगा। फलस्वरूप परिणाम सीधे आने लगे और हमने देखा कि 1965 के भारत पाक युद्घ में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त देकर बता दिया कि भारत के नेतृत्व की नीतियां अब सावरकरवादी हो गयी हैं। 1971 में इसी बात को देश ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में सिद्घ किया। वास्तव में 1965 और 1971 में पाकिस्तान के विरूद्घ भारत की ये जीत सावरकर की नीतियों की जीत थीं। आज भी हम यदि कहीं किन्हीं समस्याओं से ग्रस्त हैं तो उनमें नेतृत्व की किंकत्र्तव्यविमूढता की अवस्था ही अधिक जिम्मेदार है। नेतृत्व के मानस का अंतद्र्वन्द्व यदि सावरकर की तरह स्पष्टवादी हो जाये तो सारी व्यवस्था में ही आमूल चूल परिवर्तन आ सकता है। कुछ सीमा तक ंिहन्दुओं का सैनिकीकरण करने की नीति में तो सरकारों ने परिवर्तन किया है परंतु राजनीति का हिंदूकरण नही किया जा रहा है, और उसी का परिणाम है कि देश में संप्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद के पचड़े बढ़ते ही जा रहे हैं। राजनीति के हिंदूकरण का अभिप्राय राजनीति का साम्प्रदायिकीकरण बिल्कुल नही है, अपितु राजनीति को मूल्य आधारित कर उसका आध्यात्मिकीकरण किया जाना है।
अब एक ऑस्टे्रलियाई पत्रकार नेवोल मेक्सवेल ने भारत चीन युद्घ के कारणों पर बीते पांच दशक से गोपनीय हैण्डरसन ब्रूक्स भगत रिपोर्ट के आधार पर कहा है कि 1962 में भारत नेहरू के कारण चीन से हारा था। मेक्सवेल के इस कथन के रहस्योदघाटन पर आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नही है, क्योंकि मेक्सवेल तो केवल ये बता रहा है कि हम क्यों हारे या किसके कारण हारे? जबकि सावरकर हमें ये बता रहे थे कि हम इस नीति से हार सकते हैं और इस नीति को अपनाकर शत्रु को परास्त कर सकते हैं। इसलिए बड़ा मेक्सवेल नही है, अपितु बड़े तो सावरकर थे जिन्होंने समय पूर्व खतरे की सूचना और खतरे से बचने का उपाय दोनों हमें दिये थे। कांग्रेस मेक्सवेल के निष्कर्षों को या ब्रूक्स भगत रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में डाल सकती है, परंतु क्या वह सावरकर के उस कालजयी यथार्थवादी चिंतन को भी मिटा सकती है जो आज भी हमें बता रहा है कि एक दिन कांग्रेस के झूठ पर सावरकर के चिंतन की विजय होना निश्चित है।

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