भारत के इतिहास के विषय में कितना प्रामाणिक है यूरोपियन लेखन

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

भारत के इतिहास के विषय में 15 अगस्त 1947 ईस्वी के बाद सरकार द्वारा नियंत्रित शिक्षण संस्थाओं में केवल उसे ही प्रामाणिक तथ्य की तरह प्रस्तुत किया गया जो यूरोपीय लेखकों ने लिखा। महत्वपूर्ण यह है कि किसी भी यूरोपीय देश में उनका इतिहास इस आधार पर एक शब्द भी नहीं पढ़ाया जाता कि उनके देश के विषय में विदेशियों ने क्या लिखा है। जबकि स्थिति यह है कि यूरोप में आधुनिक इतिहास लेखन केवल 100 साल पुराना है।


संसार के विषय में यूरोप के लोगों को कुछ भी जानने से मना कर दिया गया था। जब से और जहाँ-जहाँ ईसाइयत फैली, वहाँ-वहाँ चर्च ने यह प्रतिबंध लगाया कि बाईबिल के अतिरिक्त और कुछ भी जानने योग्य नहीं है और राजाओं के अतिरिक्त केवल मुख्य-मुख्य पादरी लोग ही जो वहां के अभिजन वर्ग के होते थे, अक्षरज्ञान के अधिकारी हैं। अतः शेष लोग जिन्हंे ‘कॉमनर’ या साधारण लोग कहा जाता है, शिक्षा पाने के अधिकारी नहीं हैं। वे पादरियों से बाईबिल के वे अंश सुनने के अधिकारी ही हैं जो उन्हें सुनाया जाये। इसके अतिरिक्त यह धारणा भी फैलाई गई कि विश्व में सर्वत्र केलव अज्ञान और अंधकार है तथा धरती चपटी है और समुद्र से आगे केवल अतल गहराइयां हैं। अतः नाविकों को भी समुद्र में अधिक आगे नहीं जाना चाहिये अन्यथा वे सदा के लिये अतल गहराइयों में विलुप्त हो जायेंगे। इसीलिये यूरोपीय नाविक स्थल से लगे समुद्र तटों पर कुछ ही दूरी तक जाते थे। वस्तुतः समुद्र में दूर-दूर तक जाना और जहाजों से जाना अंग्रेजों, डचों, पुर्तगीजों, जर्मनों और फ्रेंचांे ने भारत आने के बाद यहाँ पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट तथा बंगाल की खाड़ी में बड़े-बड़े जहाज स्वयं देखने के बाद ही जाना और यहां से पुराने जहाज खरीद कर तथा भारतीय नाविकों को और नौका बनाने वाले शिल्पियों के अपने-अपने यहां ले जाकर ही उन्हांेने अपने आरंभिक जहाज बनाये।
विश्व के विषय में यूरोपियों को कोई भी ज्ञान ईसाइयत के दुष्प्रभाव के कारण नहीं था। 15वीं ईस्वी के अंतिम दिनों में जब वे यूरोप के अपने-अपने इलाके के जीवन की कठोरता और क्रूरता से घबरा कर दुनिया भर में कोई ठौर-ठांव तथा धन की खोज में निकले तो उसके पीछे भी 13वीं शताब्दी ईस्वी में मार्को पोलो द्वारा भारतीयों की सहायता से भारत और मंगोल साम्राज्य की यात्रा के किस्से ही प्रेरक थे। राजाओं से मिले उपहारों में उनके ही द्वारा सुलभ कराई गई बड़ी नौकाओं में बारूद, घड़ी, नक्शे, कागज और कुछ किताबों सहित अनेक (यूरोप के लिये) अजूबा चीजों को लेकर मार्कोपोलो जब वेनिस पहुँचा तो आसपास के इलाकों के अभिजनों में उसके किस्से फैलने लगे कि दुनिया में हमारे सिवाय बड़ी-बड़ी सभ्यतायें हैं और विशेषकर भारत तथा कैथे (चीन का तत्कालीन यूरोप में प्रचलित नाम) बहुत बड़ी सभ्यताओं और विशाल राज्यों के क्षेत्र हैं तथा वहां ज्ञान का भंडार है और सोने चांदी तथा बहुमूल्य रत्नों और धन का भी अनंत भंडार है। तब तक प्रिंटिंग प्रेस नहीं था और मार्कोपोलो के किस्से हस्तलिखित पांडुलिपियों के द्वारा धनियों को महंगे दामों में बेचे जाने लगे। जरूरतमंद और हुनरमंद पादरियों को यह कमाई का एक नया जरिया बन गया और फिर तो भारत के विषय में किस्से फैलाने की लहर ही चल पड़ी। जो लोग कभी भारत नहीं आये थे, वे भारत के विषय में एक से एक रोचक किस्से लिखने लगे और यह बताने लगे कि हम वहां घूम कर अपनी आंखों से देख कर आये हैं। यह बातें स्वयं यूरोप के लोगों ने ही 20वीं शताब्दी ईस्वी में लिखी और छापी हैं कि बिना भारत आये भारत के विषय में कैसे-कैसे कथित यात्रा वृतांत लिखे और बेचे गये।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसा कि प्रसिद्ध इतिहासकार नार्मन डेविस ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘यूरोप: ए हिस्ट्री’ के तीसरे अध्याय ‘प्राचीन रोम’ में पृष्ठ 210-212 में (आक्सफोर्ड, न्यूयार्क 1996) विस्तार से लिखा है – ‘भारत के पारसीक क्षेत्र की सीमायें रोम से सटी हुई थीं और ये सीमायें परस्पर घुली मिली थीं।’ अतः रोम से मार्कोपोलो का भारत और मंगोल साम्राज्य में घोड़े और खच्चर की सवारी से कई दिनों की यात्रा के बाद पहुंचना सहज ही था।
सर्वविदित है कि रोम और यवन दोनों ही क्षेत्र भारत से प्राचीनकाल से जुड़े रहे हैं और यूरोप की मुख्य भूमि से इनका कोई भी संबंध नहीं रहा है। जब यूरोप के लोगों ने संसार की उन्नत सभ्यताओं के विषय में जाना और अपने यहां केवल अंधकार ही अंधकार पाया, तब उन्होंने पहली बार यूरोप नामक एक अलग क्षेत्र की कल्पना 19वीं शताब्दी ईस्वी में की और यवन तथा रोम को भी यूरोप कह दिया। 19वीं शताब्दी ईस्वी से पहले यूरोप नामक कोई भी संज्ञा किसी क्षेत्र के लिये प्रचलित नहीं थी और अंग्रेज, फ्रेंच, डच, स्पेनिश, पुर्तगीज आदि लोग अपने-अपने इलाके के नाम से ही सब जगह जाते थे और अपना परिचय देते थे, कोई भी अपने को यूरोपीय नहीं कहता था।
जब स्वयं यूरोप के बारे में इन लोगांे को 19वीं शताब्दी ईस्वी से पहले ठीक से ज्ञान नहीं था और एक दूसरे के विषय में भी परस्पर पर्याप्त जानकारी नहीं रखते थे तथा पढ़ाई केवल राजघरानों और मुख्य पादरियों तक सीमित थी तथा जनसंख्या का 98 प्रतिशत निरक्षर था, तब संसार के विषय में इन्हें कोई भी ज्ञान हो ही कैसे सकता था। अपनी इसी हीनता को मिटाने के लिये इन्होंने मेहनत तो जम कर की परंतु जिन देशों में गये, वहां के जिन राजाओं की कृपा से जिन पंडितों और विद्वानों के मुँह से सुनकर कुछ जाना उसे अपनी ईसाई दृष्टि में रंगकर, मूलस्रोतों और उन लोगों का नाम दिये बिना, जिनकी कृपा से यह जानकारियां इन्हें मिली थीं, कृतघ्नता पूर्वक और छलपूर्वक ये स्वयं को उन सब विषयों का जानकार बताने लगे। दुर्भाग्यवश भारत में अपने चेलों और शागिर्दाें को गद्दी सौंपने में सफल होने के बाद इन्हांेने अपने इन शागिर्दों के द्वारा स्वयं को ही भारत के विषय में भी अधिकारी विद्वान प्रचारित करवाने में सफलता प्राप्त की और राज्य के बल से भारत की नई पीढ़ी को इन अनाड़ियों और अज्ञानियों की बातों को ही प्रामाणिक बातें प्रचारित किया गया। स्पष्ट है कि इन्हें पाठ्यक्रम की पुस्तकों का आधार बनाने वाले शासकीय अधिकारी या शासक किसी भी वास्तविक अर्थ में देशभक्त और ज्ञाननिष्ठ नहीं माने जा सकते।
इस पर भी यह ध्यान देने योग्य है कि प्रारंभ में इन यूरोपीय लोगों ने भारत की कोई भी भाषा ठीक से ना जानने के बाद भी, सुनी-सुनाई बातों को अपनी बुद्धि से ध्यानपूर्वक अंकित किया और इसीलिये प्रारंभिक लेखकों की बातों में अपेक्षाकृत प्रामाणिक तथ्य हैं। जैसे – अलेक्जेेंडर कनिंघम या अलेक्जेंडर डाउ या जेम्स टाड आदि ने पर्याप्त प्रामाणिक बातें लिखी हैं। परंतु कांग्रेस शासन में उन लोगों की लिखी बातों में से जो कुछ भारत के गौरव को दर्शाने वाले अंश थे, वे कम्युनिस्ट झुकाव वाले कांग्रेसी प्रचारकों ने पाठ्यपुस्तकों से दूर रखे और अपनी ओर से बहुत सी काल्पनिक बातें मिलाकर भारत में हीनता और ग्लानि फैलाने का अपराध कथित इतिहास के माध्यम से किया है। इसके कुछ उदाहरण यहां देना उचित होगा।
1 अलेक्जेंडर डाउ – अलेक्जेंडर डाउ ने मुसलमानांे के द्वारा उन्हें बताये गये किस्सों के आधार पर भारत के विषय में ‘दि हिस्ट्री ऑफ हिन्दोस्तान’ नामक पुस्तक तीन खंडों में 1770 ईस्वी में छापी। इसका पहला ही अध्याय है – ‘ओरिजिन एंड नेचर ऑफ डेस्पॉटिज्म इन हिन्दोस्तान’ (हिन्दोस्तान में स्वेच्छाचारी शासन का मूल और प्रकृति)। इसके दूसरे खंड का पहला ही वाक्य है – ‘शासन का रूप संयोगवश बनता है। उसकी आत्मा और प्रतिभा अपने क्षेत्र के लोगों की प्रथाओं से निर्धारित होती है। भारत की जलवायु गर्म है और इसीलिये यहां के लोग आलसी, अकर्मण्य और आरामतलब हैं। ये लोग अधिकांश समय शांत और आराम करते दिखते हैं। यहां किसी चीज की कमी नहीं होने से ये सदा प्रसन्न दिखते हैं और अपने आलस्य के कारण जब ये किसी बाहरी शासन के द्वारा दबाये जाते हैं तो ये उसे अन्याय बताते हैं। ये लोग तीव्र आवेग के ना होने को अस्तित्व की श्रेष्ठ स्थिति मानते हैं और इसीलिये शासको के प्रति इनकी आज्ञाकारिता भी निष्क्रियता से भरपूर है।’
स्पष्ट रूप से यह आजीविका की खोज में ईस्ट इंडिया कंपनी का एक मामूली कर्मचारी बनकर आये अलेक्जेंडर डाउ द्वारा अपने देश के पादरियों को और अभिजनों को तथा कंपनी के मालिकों को प्रसन्न करने की दृष्टि से लिखी गई पुस्तक है।
फिर भी इस पुस्तक में डाउ ने जो लिखा है उसको भी बाद की भारतीय पाठ्य पुस्तकों में कांग्रेसी पर्चेबाजों ने, जो सरकारी धन और वेतन तथा पद पाकर इतिहासकार कहे जाते हैं परंतु जो इतिहास के अनुशासन से रहित हैं, डाउ द्वारा लिखी आधारभूत बातों तक को छिपा लिया है। उदाहरण के लिये पहले खंड की भूमिका में ही अलेक्जेंडर डाउ ने लिखा है कि ‘‘17वीं शताब्दी ईस्वी में हुये दरबारी लेखक मुहम्मद कासिम फरिश्ता से पहले का कोई भी मुस्लिम अभिलेख उपलब्ध नहीं है। फरिश्ता ने महमूद गजनवी और मुहम्मद घूरी के बारे में जो कुछ लिखा है, वह सब किस्सा ही है क्यांेकि उसने अपने किस्से का कोई प्रामाणिक स्रोत नहीं दिया है। मुसलमानों में ब्राह्मणों के विरूद्ध बहुत से पूर्वाग्रह हैं और इसलिये वे हिन्दुओं के विषय में कोई भी सामान्य कथन नहीं करते। फरिश्ता ने यहां तक लिख दिया है कि ’हिन्दुओं के पास कोई इतिहास नहीं है सिवाय महाभारत के जो कि अबुल फजल ने आकर्षित होकर उर्दू में अनुवाद किया और जिसे मैंने देखा है’। परंतु फरिश्ता की यह बात पूरी तरह गलत है क्योंकि संस्कृत में हजारों पुस्तकें हैं जिन्हंे मैंने स्वयं देखा है और जिनके आधार पर मैं यह मानता हूँ कि हिन्दुओं के पास विश्व के अन्य किसी भी राष्ट्र या समाज की तुलना में सर्वाधिक प्राचीनकाल से प्रामाणिक इतिहास की पुस्तकें मौजूद हैं। मुसलमान लोग हिन्दुओं के बारे में कुछ भी नहीं जानते और वे ब्राह्मणों के द्वारा लिखे प्रामाणिक इतिहास से अनजान हैं क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते और केवल कुरान में लिखी बातों से जो यहूदियों के किस्सों की अनुकृति हैं, संचालित होते हैं। जबकि संस्कृत में ऐसे प्रामाणिक ग्रंथ हैं जो पश्चिमी एशिया के विषय में भी प्रामाणिक इतिहास हैं। वस्तुतः ब्राह्मणों को प्रमाण माने बिना किसी भी प्रकार का भारतीय इतिहास लिखा नहीं जा सकता। यद्यपि इन ब्राह्मणों में अपने बारे में बहुत अधिक आत्मगौरव है और वे मुसलमानों और यहूदियों और ईसाइयों के बारे में यह भाव रखते हैं कि यह सब अधर्म है। यहूदी पंथ का प्रामाणिक इतिहास ब्राह्मणों के पास है और वे बताते हैं कि कलजुग के प्रारंभ में अर्थात् 3117 ईसा पूर्व में राजा तूरा ने अपने धर्मच्युत पुत्र को पश्चिम भेज दिया। जहाँ रह कर उसने यहूदी पंथ का प्रवर्तन किया। वर्तमान में 1770 ईस्वी में मैं यह पुस्तक लिख रहा हूँ और कलजुग आज से 4887 वर्ष पहले शुरू हुआ था। उस राजा तूरा का पुत्र ही अब्राहम है ऐसा हिन्दुओं का मानना है। वस्तुतः मुसलमानों में केवल अबुल फजल का भाई फैजी ही था जिसने थोड़ी बहुत संस्कृत पढ़ी थी। मुसलमानों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर गप्पे मारने की आदत है और वे अपने मजहब की डींगे मारने पर अधिक ध्यान देते हैं। जबकि हालत यह है कि हिन्दोस्तान के मुसलमानों के पास कुरान के सिवाय और कोई भी कानून नहीं है और वे कुरान की कतिपय व्याख्याओं के आधार पर चलने वाले रीति रिवाजों को ही अपना कानून मानते हैं।’’
आगे डाउ ने लिखा है कि ‘फरिश्ता ने पाटण के राज्य से अपनी इतिहास की किताब शुरू की। पाटण भारत और पारस की सीमा पर स्थित एक राज्य है, जिसे गजनी कहा जाता है। पाटण के लोग ही पाटण या पठान कहे जाते हैं। पहले ये लोग एक श्रवण राजा के अधीन थे। परंतु बुखारा के मुस्लिम जागीरदार की प्रेरणा से गजनी में सुबुक्तगीन ने 10वीं शताब्दी ईस्वी में एक जागीर बनाई और इसे ही हमारे यहाँ यूरोप में लोग गजना कहते हैं। गजना का राज्य 11वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में बहुत फैला। पाटण के राज्य का एक अंग थी गजना की जागीर। पाटण लोग बाहरी शत्रुओं के विरूद्ध एक लौहभित्ति थे।’
आगे उसने भारतीय सेनाओं का वर्णन किया है और कहा है कि यूरोप के लोग इन सेनाओं का वर्णन पढ़कर आश्चर्यचकित रह जायेंगे। सैनिकों का वेतन 60 रूपये से 200 रूपये प्रतिमाह तक है और कप्तानों आदि को अन्य बहुत सी सुविधायें दी जाती हैं। भारत की भूमि उर्वरा है और यहां प्रचुर उत्पादन है तथा आपूर्ति की उन्नत व्यवस्था है जिससे भारत की सेनाओं को अन्न आदि की विपुल आपूर्ति होती रहती है क्येांकि यहां एक वर्ष में 2 से 3 फसलें होती हैं।
(क्रमशः …)
✍🏻रामेश्वर मिश्रा पंकज

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