यथार्थ गीता के संबंध में श्रीमद्भगवद्गीता को यथार्थ मानव शास्त्र प्रतिपादित करते हुए स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज का कथन है-“श्री कृष्ण जिस स्तर की बात करते हैं, क्रमशः चल कर उसी स्तर पर खड़ा होने वाला कोई महापुरुष अक्षरशः बता सकेगा कि श्री कृष्ण ने जिस समय गीता का उपदेश दिया था, उस समय उनके मनोगत भाव क्या थे? मनोगत समस्त भाव कहने में नहीं आते। कुछ तो कहने में आ पाते हैं, कुछ भाव भंगिमा से व्यक्त होते हैं और शेष पर्याप्त क्रियात्मक है-जिन्हें कोई पथिक चलकर ही जान सकता है। जिस स्तर पर श्री कृष्ण थे, चलकर उसी अवस्था को प्राप्त महापुरुष ही जानता है कि गीता क्या कहती है। वह गीता की पंक्तियां ही नहीं दोहराता, बल्कि उनकी भावनाओं को भी दर्शा देता है, क्योंकि जो दृश्य श्री कृष्ण के सामने था, वही उस वर्तमान महापुरुष के समक्ष भी है। इसलिए वह देखता है, दिखा देगा, आप में जागृत भी कर देगा, पथ पर चला भी देगा।”पूज्य श्री परमहंस जी महाराज भी उसी स्तर के महापुरुष थे। उनकी वाणी तथा अंतर प्रेरणा से मुझे गीता का जो अर्थ मिला, उसी का संकलन”यथार्थ गीता” है।


स्वामी अड़गड़ानंद जी के अनुसार”भगवान श्री कृष्ण ने अपने श्री मुख से गीता का गायन जो सत्य बताया-आत्मा! सिवाय आत्मा के कुछ भी शाश्वत नहीं है। गीता से सुख शांति मिलती ही है, अक्षय अनामय पद भी देती है।,,,,
स्वामी अड़गड़ानंद जी ने प्रतिपादित किया है कि धर्म सिद्धांत एक है, सभी प्रभु के पुत्र हैं, मानव के लिए मानव तन की सार्थकता-मनुष्य की केवल दो जाती है एक देवता और दूसरे असुर, जीवन में हर कामना ईश्वर से सुलभ है, भगवान की शरण में पापों का नाश होता है तथा ज्ञान की प्राप्ति होती है,,, भजन का अधिकार सबको है,,, भगवत पथ में बीज का नाश नहीं होता है,,,, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता है,,, संपूर्ण इंद्रियों के व्यापार को, मन की चिंताओं को ध्यान से प्रकाशित हुई आत्मा में संयम रूपी योग अग्नि में हवन करते हैं। करने का अधिकार उन सभी को है जिनको मनुष्य शरीर मिला है। अनन्य भक्ति के द्वारा ईश्वर देखा जा सकता है,,,, आत्मा ही सत्य और सनातन है,,, विधाता और उससे उत्पन्न सृष्टि नश्वर है-कामनाओं से जिनकी बुद्धि आक्रांत है,मूढ़ बुद्धि ही परमात्मा के अतिरिक्त अन्य देवताओं की पूजा करते हैं। नियत विधि क्या है? ॐ जो अक्षय ब्रह्म का परिचायक है उसका जप तथा मुझ एक परमात्मा का स्मरण तत्वदर्शी महापुरुष के संरक्षण में ध्यान। परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण ही धर्म का मूल है। उस अविनाशी ब्रह्म का, अमृत का, शाश्वत धर्म और अखंड एकरस आनंद का मै ही आश्रय हूं,,, विश्व के सारे धर्मों की सत्य धारा गीता का ही प्रसारण है,,, श्रीमद्भगवद्गीता में-सशंय ,विषाद योग,,, कर्म जिज्ञासा,,, शत्रु विनाश प्रेरणा,,, यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण,,, यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर,,, अभ्यास योग,,, सामग्र जानकारी,,, अक्षर ब्रह्म योग,,, विभूति वर्णन,,, विश्वरूप दर्शन योग,,, भक्ति योग,,, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग,,,
गुण त्रय विभाग योग,,, पुरुषोत्तम योग,,, देवासुर संपर्क विभाग योग,,, ओम तत्सत तथा श्रद्धा त्रय विभाग योग,,, सन्यास योग नामक 18 अध्याय हैं।
जहां”मनसे आत्मा की यात्रा (गीता सार) अर्थात मौन,,, गूंज,,, अंतरमन मंथन,,,, अविरल प्रवाह,,, शब्दों की दृष्टि से गीता का सार निम्नांकित प्रकार है,,,
मानव मात्र के लिए मन की जानकारी, मानसिक स्वास्थ्य, मन से जुड़ी बीमारियां, तनाव पर विजय, मन:शक्ति ऐसी बातें आजकल नित्य चर्चा के केंद्र में है। इन बातों के अंतर्गत क्या सामान्य व्यक्ति में सुधार हो सकता है? क्या मंदबुद्धि बच्चों का बौद्धिक स्तर बढ़ सकता है? बुरी चीजों की लत मनोविकार है या मस्ती? सम्मोहन के संबंध में सही क्या है? गलत क्या है? मिरगी की बीमारी क्यों जड़ जमा लेती है? क्या वह दूर हो सकती है? चिंता मुक्ति के लिए ध्यान धारणा कितनी उपयुक्त है? सब बातों के लिए मनोविज्ञान धर्म शास्त्रों का पठन-पाठन तथा दार्शनिक आध्यात्मिक मनोविज्ञान मानव मात्र की जिज्ञासा का विषय है। जिज्ञासा का शमन होना ही चाहिए,,,,
इस दृष्टि से दार्शनिक अंतरमन मंथन मनोविज्ञान अर्थात गीता सार पर चर्चा करते हैं। मनोविज्ञान और व्यवहार दोनों ही दृष्टि से यह प्रसंग स्वागत योग्य है,,, हमारे यहां कहा गया है-मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो:”यह कथन आज आध्यात्मिक ही नहीं आधि भौतिक दृष्टि से भी सही सिद्ध हो रहा है। पश्चिमी मनोविज्ञान के अनुसार मन और आत्मा नाम की कोई चीज ही नहीं थी जो कुछ था वह भौतिक क्रिया प्रतिक्रिया मात्र थी। फ्रांयड के समय में इस में परिवर्तन हुआ,,, अब भी प्रमुख रूप से वस्तुनिष्ठ पश्चिमी मनोविज्ञान तथा आत्मानुभूति, आत्मदर्शन और सहज बोध को तूल देने वाली भारतीय दार्शनिक मनोविज्ञान में अंतर है। गीता जीवन दर्शन के रूप में विश्व दर्शन प्रतिपादित हुआ है। गीता में कर्तव्य विमूढ़ अर्जुन की शंकाओं का समाधान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में किया है। बहुत से विद्वानों ने गीता को एक रूपक के रूप में स्वीकार किया है। इस रूपक में पांडव ज्योति और कौरव तम की शक्तियां प्रतीक हैं। मानव शरीर धर्म क्षेत्र का प्रतीक है। नेत्रहीन धृत राष्ट्र व्यक्ति का अहम इगो है, जो सांसारिक सुखों में लीन रहता है। कृष्णा आत्माराम है और अर्जुन बुद्धि है। लोग अर्जुन को संकटग्रस्त अहम और कृष्ण को आत्मा स्वीकारते हैं। जब अहम् अपने अंतर्मन मंथन के माध्यम से अपनी आत्मा को पहचान लेता है और उसमें अपने को लय कर देता है तभी उसे दुख पीड़ा आदि से छुटकारा मिलता है। इस प्रकार उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मा कृष्ण के रूप में अर्जुन अथवा व्यक्ति के अहम् को आत्मज्ञान प्राप्त करने का उपाय बताते हैं।
प्रकृति और पुरुष के संबंध में गीता की स्थापनाओं में पुरुष और प्रकृति को ब्रह्म का अंग माना गया है। गीता में परा और अपरा प्रकृति के दो भेद बताए गए हैं। परा प्रकृति जीव रुप में दिखाई पड़ती है और इसका स्वरूप चैतन्य है। अपरा प्रकृति के अंतर्गत पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार है। गीता में क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम तत्वों का उल्लेख है। अपरा प्रकृति क्षर तत्व है अपरा प्रकृति ब्रह्म के साथ अनादि काल से संबंध है। परा प्रकृति अक्षर तत्व है और उसने जगत को धारण करने वाला भी मानते हैं। भगवान कृष्ण ने कहा है कि आठ प्रकार से विभक्त हुई अपरा प्रकृति मेरी प्रकृति है। इंद्रियां,, मन और बुद्धि के द्वारा व्यक्ति भौतिक जगत और जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।अहंकार की क्षमता है जिसके द्वारा व्यक्ति किसी वस्तु से संबंध स्थापित करता है और फिर उसे अपना मान लेता है। अपने पराए का भेद अहंकार की उपज है। गीता के अनुसार व्यक्ति की आत्मा वही है जो सार्वभौम आत्मा है। लेकिन व्यक्ति अपनी निम्न स्तरीय मनोवैज्ञानिक प्रकृति के कारण इस तथ्य से अपरिचित रहता है और इंद्रियों मन बुद्धि तथा अहंकार के वश में होकर अपने वास्तविक स्वरूप को जो कि ईश्वरीय है भूल जाता है।
गीता की वैश्विक मानव मात्र के लिए सबसे बड़ी देन निष्काम भाव का प्रतिपादन है,,,,
मनोविज्ञान के अनुसार जब किसी व्यक्ति की आशाएं भग्न होती है, तब वह अग्रघर्षी होता है। अग्र घर्षण के मूल में भंग्न आशाएं होती है। मनोविज्ञान के अनुसार भग्न आशा का कारण है , जब व्यक्ति अपनी आवश्यकताएं, आशाएं ,आकांक्षाएं पूरी नहीं कर पाता तब वह भग्नासा हो जाता है। पश्चिमी मनोविज्ञान का यह भी मत है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं ,आकांक्षाओं आदि से प्रेरित होकर ही कोई कार्य करता है। इनके अभाव में व्यक्ति के व्यवहार की संभावना नहीं है। गीता में आशा रहित निष्काम भाव से कार्य करने की बात कही गई है।। जब व्यक्ति बिना किसी आशा के कार्य करता है तब भग्नासा की संभावना नहीं होती और भग्नासा के अभाव में अग्र घर्षण का प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार गीता के सारे रूप अंतरमन मंथन दार्शनिक मनोविज्ञान के अनुसार आशा, निराशा के सिद्धांत को निर्मूल करने के लिए निष्काम भाव का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। यथार्थ में भारतीय दार्शनिक मनोविज्ञान व्यक्ति के आध्यात्मिक स्वरूप को मान्यता प्रदान करता है और पश्चिमी मनोविज्ञान व्यक्ति के जैविक स्वरूप को। गीता के सारे रूप जब व्यक्ति इंद्रियों और मन को वश में नहीं करता तब तक उसे राग द्वेष के भाव को अनुभव करना पड़ता है। दूसरी दृष्टि से कहा जा सकता है कि व्यक्ति को ऐसे भावात्मक और सामाजिक समंजन के लिए प्रयास करना चाहिए जिसमें वह निष्काम भाव से कार्य कर सकें। गीता सार रूप हम कह सकते हैं कि गीता मनोविज्ञान स्व:धर्म अर्थात अपनी क्षमता तथा प्रवृत्ति के अनुसार बिना किसी आशा के कार्य करने पर बल देता है। संक्षेप में गीता सार रूप उपनिषद ,दार्शनिक मनोविज्ञान के तथ्यों का प्रतिपादन करते हुए निष्काम भावना के महत्व को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति संमजिंत जीवन व्यतीत कर सकें। गीता मानव मात्र के लिए पशुत्व से ऊपर उठकर आध्यात्मिक मानव बनने की दिशा में प्रेरित करने वाला अंतरमन मंथन दार्शनिक मनोविज्ञान है। दार्शनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से भारतवर्ष के न्याय, सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, योग और वेदांत भी दार्शनिक दृष्टि से मानव के द्वारा, अंतरमन मंथन क्रियात्मक योग का उपदेश देते हैं।
मोहनलाल वर्मा, संपादक, देव चेतना मासिक पत्रिका जयपुर।
9782655549

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