एक सत्य रोचक कथा

प्रेषक : आचार्य जीवन सिंह

स्वामी सर्वदानन्द जी कट्टर शिव भक्त थे ,वे स्वयं फूल आदि चुनकर लाते और शिवलिंग पर चढ़ा घंटो उनकी पूजा मे लीन रहते थे । एक दिन की बात है जब वे बाग से फूल लेकर शिव मंदिर पहुंचे तो देखा कि जिस शिवलिंग को कल फूलों से सजा कर गये थे उस पर एक कुत्ता पेशाब कर रहा था, फिर क्या था प्रभु की कृपा हुई और उन्हें शिवलिंग पूजा से सदा के लिए श्रद्धा उठ गई । फिर कभी भी किसी मंदिर की तरफ उनका कदम नही बढ़ा और वेदान्त की तरफ झुक गये ।

उन्होने एक वेदान्ती से सन्यास की दीक्षा लेकर चारों धाम की तीर्थ यात्रा कर भक्ति मे मग्न हो गये । इसी वैराग्यावस्था मे सर्दियों मे वे चित्रकूट चले गये । वहां पर नग्नावस्था में यमुना के किनारे पड़े रहते थे , किसी ने खिलाया तो खा लिया नहीं तो मस्ती में बैठे रहते थे । इसकी वजह से उनको रोग हो गया । ठाकुर सज्जन सिंह जी को जब इस सन्यासी के रोग का पता चला वे अपने घर उनको बुलाकर उचित औषधि से उन्हें स्वस्थ कर दिया तब स्वामी जी को जाने की इच्छा हुई और ठाकुर सज्जन सिंह जी को बुलाया । ठाकुर जी आर्य समाजी थे और उन्हें मालूम था कि स्वामी जी को आर्य समाज और महर्षि दयानन्द से बहुत घृणा थी , इसलिए ठाकुर जी ने सत्यार्थ प्रकाश को एक कपड़े में बांध कर स्वामी जी के हाथों में इस वचन के साथ थमा दिया कि आप इसे एक बार शुरु से अन्त तक पढ़ेगें । स्वामी जी ने सहर्ष इस बात का वचन दे दिया और चल दिये मार्ग मे विश्राम के लिए जब कहीं पर ठहरे तो उस पोटली को खोला तो उनका माथा ठनक गया , पहले तो सत्यार्थप्रकाश को कहीं दूर फेंकना चाहा फिर उस विवेकशील पुरुष ने सोचा कि यदि सत्यार्थप्रकाश इतना ही बुरा है तो फिर उस ठाकुर में साधुओं के प्रति इतनी श्रद्धा , भक्ति और सेवा भाव कैसे है ? अपने वचन का पालन करने हेतु उस सन्यासी ने उसे पढ़ना प्रारंभ किया . भूमिका पढ़ते ही पुस्तक के निर्दोष उद्देश्य से वे भलिभांति परिचित हो गये और आंखे खुल गई. उन्होनें जब सत्यार्थप्रकाश को आद्योपांत पढ़ा तो उनको आंखों से झरने की तरह आँसू बने लगे. मन प्रायश्चित कर रहा था कि सुनी सुनाई बातों पर वे कितने ही दिनों से इस अनमोल ग्रंथ की उपेक्षा करते आ रहे थे. जब उनके हृदय और मष्तिक को ऋषि की वाणी ने झंकृत किया तो उनका रोम रोम ऋषिवर देव दयानन्द के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने लगा और कुछ ही दिनों मे ऋषि के समस्त ग्रंथों सहित वृद्धावस्था का परवाह किये बिना संस्कृत व्याकरण पढ़ा और एक दिन मे दो-दो , तीन-तीन घंटे और दो-दो , तीन-तीन बार व्याख्यान देते हुए अपने जीवन के अंतिम बारह वर्ष वेद और आर्य समाज के प्रचार प्रसार लगा दिये । हरदुआगंज(अलीगढ़) का साधु आश्रम उन्ही की देन है. सत्यार्थ प्रकाश व्यक्ति को क्या से क्या बना देता है , स्वामी सर्वदानन्द जी इसके आदर्श उदाहरण है।

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