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भारतीय संस्कृति

रामप्रसाद विस्मिल की आत्‍मकथा

मेरी माँ

ram prasad vismil

ग्यारह वर्ष की उम्र में माता जी विवाह कर शाहजहाँपुर आई थीं । उस समय वह नितान्त अशिक्षित एवं ग्रामीण कन्या के सदृश थीं । शाहजहाँपुर आने के थोड़े दिनों बाद श्री दादी जी ने अपनी बहन को बुला लिया । उन्होंने माता जी को गृह-कार्य की शिक्षा दी । थोड़े दिनों में माता जी ने घर के सब काम-काज को समझ लिया और भोजनादि का ठीक-ठीक प्रबन्ध करने लगीं । मेरे जन्म होने के पांच या सात वर्ष बाद उन्होंने हिन्दी पढ़ना आरम्भ किया । पढ़ने का शौक उन्हें खुद ही पैदा हुआ था । मुहल्ले की सखी-सहेली जो घर पर आया करती थी, उन्हीं में जो कोई शिक्षित थीं, माता जी उनसे अक्षर-बोध करतीं । इस प्रकार घर का सब काम कर चुकने के बाद जो कुछ समय मिल जाता, उस में पढ़ना-लिखना करतीं । परिश्रम के फल से थोड़े दिनों में ही वह देवनागरी पुस्तकों का अवलोकन करने लगीं । मेरी बहनों की छोटी आयु में माता जी ही उन्हें शिक्षा दिया करती थीं । जब मैंने आर्य-समाज में प्रवेश किया, तब से माता जी से खूब वार्तालाप होता । उस समय की अपेक्षा अब उनके विचार भी कुछ उदार हो गए हैं । यदि मुझे ऐसी माता न मिलती तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता । शिक्षादि के अतिरिक्‍त क्रान्तिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की है, जैसी मेजिनी को उनकी माता ने की थी । यथासमय मैं उन सारी बातों का उल्लेख करूंगा । माताजी का सबसे बड़ा आदेश मेरे लिए यह था कि किसी की प्राण हानि न हो । उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना । उनके इस आदेश की पूर्ति के लिए मुझे मजबूरन दो-एक बार अपनी प्रतिज्ञा भंग भी करनी पड़ी थी ।

जन्मदात्री जननी ! इस दिशा में तो तुम्हारा ऋण-परिशोध करने के प्रयत्‍न का अवसर न मिला । इस जन्म में तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्‍न करूँ तो भी मैं तुम से उऋण नहीं हो सकता । जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है । मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुम ने किस प्रकार अपनी देव वाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है । तुम्हारी दया से ही मैं देश-सेवा में संलग्न हो सका । धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी । जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका श्रेय तुम्हीं को है । जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थीं, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है । तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर एक बात को समझा दिया । यदि मैंने धृष्‍तापूर्ण उत्तर दिया तब तुम ने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किन्तु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा । जीवनदात्री ! तुम ने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया किन्तु आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं । जन्म-जन्मान्तर परमात्मा ऐसी ही माता दें ।

महान से महान संकट में भी तुम ने मुझे अधीर न होने दिया । सदैव अपनी प्रेम भरी वाणी को सुनाते हुए मुझे सान्त्वना देती रहीं । तुम्हारी दया की छाया में मैंने अपने जीवन भर में कोई कष्‍ट अनुभव न किया । इस संसार में मेरी किसी भी भोग-विलास तथा ऐश्‍वर्य की इच्छा नहीं । केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता । किन्तु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखाई देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःख-सम्वाद सुनाया जायेगा । माँ ! मुझे विश्‍वास है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता – भारत माता – की सेवा में अपने जीवन को बलि-वेदी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कुक्ष को कलंकित न किया, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा । जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जायेगा, तो उसके किसी पृष्‍ठ पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जायेगा । गुरु गोविन्दसिंहजी की धर्मपत्‍नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु का सम्वाद सुना था, तो बहुत हर्षित हुई थी और गुरु के नाम पर धर्म रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बाँटी थी । जन्मदात्री ! वर दो कि अन्तिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूँ ।

– पंडित रामप्रसाद बिस्मिल

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