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इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे चमचे राज्यपाल?

shila dixit

मित्रों,इन दिनों केंद्र की मोदी सरकार जब पुराने राज्यपालों को हटाने जा रही है तो सारे छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी दल बेजा शोर मचाने में लगे हैं। जब संप्रग सरकार ने वर्ष 2004 में राजग काल के राज्यपालों को हटाया था तब तो यही लोग तालियाँ पीट रहे थे फिर आज विरोध क्यों? क्या विरोधी दलों का काम सिर्फ विरोध करना है चाहे सरकार के कदम सराहनीय हों और देशहित में हों तब भी? उनको जब मौका मिला था तब उनको भी तो इस संवैधानिक पद का सम्मान करते हुए राजग काल के राज्यपालों को शांतिपूर्वक अपना कार्यकाल पूरा करने देना चाहिए था।

मित्रों,हमने देखा है कि पिछले 10 वर्षों में संप्रग की सरकार में राज्यपाल के पद की गरिमा को रसातल में पहुँचा दिया गया। आरोप तो यहाँ तक लगे कि कांग्रेस आलाकमान पैसे लेकर जैसे-तैसे लोगों को राज्यपाल बना रहा है। तब मैंने 3 अक्टूबर,2011 के अपने एक आलेख राज्यपाल हैं कि आदेशपाल द्वारा यह आरोप भी लगाया था कि राज्यपालों को आदेशपाल बना दिया गया। बिहार का उदाहरण अगर हम लें तो बिहार में लगभग प्रत्येक राज्यपाल के समय विश्वविद्यालयों में उच्चाधिकारियों की नियुक्तियों में खरीद-फरोख्त के आरोप लगे। कई बार पटना उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। विश्वविद्यालयों का परीक्षा-विभाग घूसखोरी का अड्डा बन गया।

मित्रों,अगर हम संप्रग काल में नियुक्त सारे राज्यपालों पर नजर डालें तो पता चलता है इनमें से अधिकतर लोगों को सिर्फ इसलिए राज्यपाल बनाया गया क्योंकि ये सोनिया परिवार की चापलूसी करते थे और चहेते थे। कई ऐसे लोग भी राज्यपाल बना दिए गए जिनको विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जनता ने सिरे से नकार दिया था। कई लोगों पर तो राज्यपाल बनने से पहले से संगीन घोटालों के भी आरोप थे। सवाल उठता है कि ऐसे नाकारा लोगों को सिर्फ संवैधानिक पद के नाम पर वर्तमान केंद्र सरकार क्यों ढोये? हम जानते हैं कि नरेंद्र मोदी का एजेंडा देश को काफी आगे ले जाने का है और सुशासन देने का तो है ही? क्या ऐसे सोनिया के चमचे लोग मोदी के एजेंडे के लागू होने में कभी सहायक सिद्ध हो सकते हैं?

मित्रों,हम जानते हैं कि संविधान के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत पद को धारण करता है। हम यह भी जानते हैं कि संविधान में राष्ट्रपति का मतलब केंद्र सरकार से है तो फिर उचित तो यही होता कि ये लोग अपनी पार्टी के लोकसभा चुनावों में हार के बाद खुद ही पद छोड़ देते और नई सरकार को फिर से अपनी टीम गठित करने का मौका देते। इससे पार्टियों में सद्भावना भी बनी रहती और इनका महामहिमों का सम्मान भी बचा रह जाता। हम यह भी जानते हैं कि राज्यपाल राज्यों में केंद्र का प्रतिनिधि होता है तो फिर जब केंद्र में इनकी चहेती सरकार रही ही नहीं तो ये लोग उसके प्रतिनिधि होने का कैसे जबर्दस्ती दावा कर सकते हैं?

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