बढ़ता ही जा रहा है भारत में राजनीतिक नेतृत्व का नकारापन

काफी पहले की बात है जब गुजरात में प्लेग फैल गया था। सन 1994 का साल था और अख़बारों में वहां से भाग रहे लोगों और मौतों का आंकड़ा दिखने लगा था। कहने को तो इसे कई बार गुजरात प्लेग या सूरत प्लेग कहा जाता है, लेकिन आंकड़े देखें तो नजर आता है कि गुजरात (करीब अस्सी) से ज्यादा मामले (करीब पांच सौ) तो महाराष्ट्र में सामने आये थे। ऐसा माना जाता है कि बंद पड़े नालों, इधर उधर फैले कचरे और गंदगी के अम्बार ने इस बिमारी को पनपने का मौका दिया था। इस घटना के थोड़े साल बाद ही गुजरात में भूकंप आया था।

सन 2001 में आये इस भूकंप से भारी तबाही मची। सुबह के समय 26 जनवरी के दिन आये इस भूकंप के वक्त कई बच्चे भी गालियों में प्रभात फेरी लगा रहे थे। जो घरों में थे उनमें से भी कई संकरी गालियों में से बचकर नहीं निकल पाए। रास्ते न होने के कारण बचाव और राहत कार्य भी एक बड़ी आफत थी। इन सब के बीच भी वहां की सरकार ने अच्छा काम किया। चार महीने में नीतियाँ निर्धारित हो गयीं। देश विदेश से जो राहत का पैसा आया था, कुछ उसके इस्तेमाल से और कुछ राजनैतिक इच्छाशक्ति के कारण थोड़े ही दिनों में भुज और गुजरात फिर उठ खड़ा हुआ।

वैसे तो रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में अनुसूयाजी जी से तुलसीदास ये कहलवाते हैं कि “धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥“ लेकिन सच्चाई ये भी है कि नेतृत्व की पहचान भी ऐसी ही आपदा की स्थिति में होती है। भुज का भूकंप वो घटना थी जिसने सक्रीय राजनीती में हाल में ही उतरे एक नेता नरेंद्र दामोदरदास को “मोदी” घोषित कर दिया था। कई विदेशी फण्ड पर पलने वाले चाहे लाख छाती कूटकर 2002 चीखें, मगर “मोदी” उससे एक साल पहले ही 2001 में बनकर तैयार हो चुका था।

आपदा की ऐसी स्थितियों ने जहाँ भारत के पश्चिमी कोने में ऐसे नेतृत्व पैदा किये, वहां भारत के पूर्वी कहे जा सकने वाले हिस्सों में क्या होता है? बाढ़ जैसी आपदाएं बिहार के लिए नयी नहीं हैं। हाल के दौर में यहाँ भूकंप भी इतने बार आ चुका है कि हम सोचते हैं “धुत्त! ये फिर से आ गया!” बहार प्रदेश में लोग बाहर निकल कर भागने की कोशिश भी नहीं करते। हँसते खिलखिलाते से भूकंप रुकने के बाद गप्पें मारते हुए लौट आते हैं। अभी एक महामारी जैसी आपदा यहाँ भी आई थी। एईएस नाम से जानी जाने वाली बीमारी में मौतें अभी भी रुकी हैं?

सवाल ये है कि आपदा यहाँ क्या पैदा कर रही है? राजनैतिक नेतृत्व को देखें तो निकम्मेपन और एक दूसरे पर दोषारोपण से लेकर मूर्खतापूर्ण नौटंकी तक की नयी मिसालें नेताओं ने खड़ी कर की हैं। कोई एक था जो लगभग एक-डेढ़ दशक पहले जा चुकी सरकारों को अस्पतालों की हालत के लिए कोस रहा था।
हाँ इस आपदा से सीखना हो तो ये जरूर सीखा जा सकता है कि युवाओं ने इस वक्त क्या किया। इनमें से कुछ नौजवान पत्रकारिता के पेशे से जुड़े थे और कुछ पत्रकारिता के छात्र थे। कुछ युवा बिहार के थे, कुछ बाहर से आये थे। इन्होंने चंदे से पैसे इकठ्ठा किये, दवाइयां और ग्लूकोज-ओआरएस माँगा, जो भी संभव हुआ साथ लेकर ये गाँव गाँव घूमते रहे। निजी विचारों में ये लोग चाहे जैसी भी आस्था रखते हों, लेकिन सीधे तौर पर इनका कोई राजनैतिक दल से जुड़ाव भी नहीं है। अब सोचिये कि इस कारनामे के बाद इनकी विश्वसनीयता का क्या हुआ होगा? बढ़ी होगी या घटी होगी?

आपदा के इस ताजा दौर के बाद ये सोचा जा सकता है कि बिहार के सामाजिक संगठन इस दौर में क्या कर रहे थे? अक्सर आपदाओं में मदद करती नजर आने वाली आरएसएस जैसी संस्थाएं यहाँ हैं भी क्या? छात्र संगठनों का क्या हुआ? जो अभी हाल में पटना विश्वविद्यालय के चुनावों में जोर शोर से उतरे थे, वो लोग कहाँ गए? चुनाव प्रचार के पोस्टर-बैनर से पूरे शहर को रंग डालने वाले लोग कहाँ रहे? करोड़ों के फण्ड से चलने वाले शिक्षा, स्वास्थ्य या जन-संपर्क जैसे कार्यपालिका के विभागों ने कौन से तीर मारे हैं?

बाकी सवाल तो सीता-स्वयंवर के जनक दरबार वाले जैसा ही है। सोचना ये है कि चाणक्य-चन्द्रगुप्त और अशोक से लेकर बाबू राजेन्द्र प्रसाद को जन्म देने और मोहनदास को गाँधी बनाने वाली धरती को हुआ क्या है? यहाँ नेतृत्व पैदा न होने का कारण क्या है? बिहार की वसुंधरा बंध्या तो नहीं हुई होगी न!
✍🏻आनन्द कुमार

पंजाबी और बिहारी में क्या अंतर है जानते है – पंजाबी चाहे जहा कमाए वह मकान हमेशा पंजाब में ही बनाता है, इसीलिए पंजाब के किसी गाव में चले जाए आपको उची उची अटारी दिख जायेगी । देश को सबसे ज्यादा आईएस पीसीएस बिहार देता है मगर बिहारी एक बार कामयाब हो जाए बिहार से हमेशा के लिए मुह मोड़ लेता है नब्बे के दशक में मुजपफरपुर टेक्सटाइल के तौर पर अपनी पहचान बना रहा था
रो मैटेरियल कलकत्ता से आता था और यहाँ से बने माल नेपाल के तराई इलाको तक खपाया जाता था। वैसे तो बिहार का स्वर्णयुग गुप्त शासन की समाप्ति के बाद समाप्त हो गयी थी उसके बाद जितने भी शासक आये उन्होंने बिहार को लूटा ही। कारण था गंगा का मैदानी इलाका होने के कारन भरपूर उपजाऊ भूमि का होना
इतिहास की किताबो में देश के कई हिस्सों में आप अलग अलग समय में लोगो को भूख से मरने की कहानिया सुनते होंगे मगर ऐसी कोई कहानी में बिहार का जिक्र नहीं होता इस प्रदेश में अन्न और पानी की कमी कभी नहीं रही
इसलिए मुस्लिम व् अंग्रेजो ने भी जम कर निचोरा इसको। आजादी के बाद भी यह सिलसिला जारी ही रहा नदियो के मामले में सर्वाधिक शशक्त इस राज्य में एक भी नदी पर भाखड़ा नागल जैसी परियोजना नहीं पाई जाती न इंदिरा नहर जैसी कोई सिचाई परियोजना और नलकूप तो सम्भवतः लोग समझ भी नहीं पाएंगे की होता क्या है। बिहार की खेती आज भी प्राइवेट बोरिंग या नलकुपो पर ही आस्रित है। खैर तो जब टेक्सटाइल इंडस्ट्री पैर जमा रही थी
उसके कुछ ही सालो के बाद लालू जी बिहार की सत्ता में पदार्पण करते है और समाजिक न्याय के स्थापना के लिए पूँजीवाद को बिहार से बाहर कर देते है जबरन लूट यानि सर्विस टेक्स से खिन्न लोग बिहार को बाय बाय कर देते है आज मशीनों के नत बोल्ट भी नहीं दिखेंगे सबको बीसो साल पहले लोग उखाड़ उखाड़ कर कबाड़ में बेच दिए और खुद महाराष्ट्र गुजरात मजदूरी करने चले आये इसको सामाजिक शसक्त होना कहते है। पिछले चालीस सालो में जिसमे बिस साल लालू जी का और इतने ही साल नितीश दोनों ने बिहार की शिक्षा व्यबस्था को कल्याण किया
ताकि बिहार के गरीब बच्चे प्राइवेट स्कुलो में पढ़ कर क्वालिटी शिक्षा ले सके इसके लिए सरकारी स्कुलो को तबाह करना जरुरी था सो किया रुवि राय या गणेश को आपने देखा ही होगा। सभी नेताओं को बिहार को जवाबदेना चाहिए कि पढाई के बाद ये छात्र बिहार क्यों नहीं लौटते । वजह साफ है…..
✍🏻सूर्यवंशी सुशांत मौर्य

“सामाजिक न्याय” से लेकर “सुशासन” तक की सरकारों में हुआ क्या है? बिहार के लिए राजनैतिक बदलावों का असर हुआ भी है क्या? #राजनीति_की_प्रयोगशाला कहे जाने वाले बिहार में हाल के दशकों में कई “तथाकथित” सुधारों का दौर रहा। कभी कहा गया कि समाज के पिछड़े वर्गों को उनके हक़ दिलवाए जा रहे हैं। क्या ऐसा सचमुच हो रहा था? कभी कहा गया कि शिक्षा के क्षेत्र में क्रन्तिकारी बदलाव लाये जा रहे हैं। तो फिर ऐसा क्यों है कि बिहार की किसी भी यूनिवर्सिटी से स्नातक की डिग्री लेने में तीन साल नहीं बल्कि पांच-छह वर्ष लग जाते हैं?

अगर सिर्फ आंकड़ों के आधार पर देखा जाए तो बिहार में शिक्षा प्राप्त करने वाली लड़कियों की गिनती बढ़ती दिखती है। क्या आबादी का बढ़ना इसका कारण है, या सचमुच लड़कियों की स्कूलों में भागीदारी बढ़ गयी है। स्कूलों को उत्क्रमित कर के प्राइमरी से मिडिल, और मिडिल से हाईस्कूल तो बना दिया गया, लेकिन फिर भी स्कूल ड्राप-आउट की गिनती पर इसका असर होता क्यों नहीं दिखता? सड़कों, रेल, परिवहन के साधनों की राज्य के अन्दर कैसी स्थिति है? क्या व्यापार और निवेश के लिए कोई अवसर बनाए गए?

चुनावों का दौर जब आ चुका है तब नेतागण एक दूसरे पर ऐसे ही आंकड़े उछालकर मारेंगे। क्या जनता ने अपनी तरफ से कोई तैयारी की है? “विकास” कहीं सत्ता पक्ष के दिए प्रचारों के नीचे दब तो नहीं गया? अख़बारों में उसकी कमी को पहले पन्ने पर लाने की हिम्मत थी क्या? ऐसे ही दर्जनों सवाल हैं जिनका जवाब @Pushya Mitra की नयी किताब “रुकतापुर” देती है। किताब का नाम “रुकतापुर” इसलिए है, क्योंकि बिहार पहुंचकर बिकास की गाड़ी बिना वजह ही ठहर जाती है। ये किताब Rajkamal Prakashan Samuh से 2 अक्टूबर को प्रकाशित हुई है।

बिहार के विकास के स्याह पक्षों में रूचि हो तो इसे देख सकते हैं।
✍🏻आनन्द कुमार जी की वॉल से

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