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पर्यावरण और गंगा आदि नदियां

भारत में पर्यावरण का महत्व अति प्राचीन काल से संस्कृति व धार्मिकता से जुड़ा रहा है। जीव, निर्जीव, पशु पक्षी, पौधे, मृदा, जल, वायु, नक्षत्र, ग्रह, पृथ्वी, आकाश, अग्नि आदि सभी के लिए देव तुल्य एवं पूज्य माने जाते थे। आज भी ऐसी अनेक मान्यताएं विद्यमान हैं जो पर्यावरण सम्मत एवं प्रासंगिक हैं। हमारी परंपरा में प्रकृति पूजा से ही कार्य का शुभारंभ होता है। गोबर, गोदुग्ध, गोमूत्र, तुलसी पत्र, हल्दी, चंदन, गंगाजल आदि का उपयोग पूजा कार्य में विधि विधान से किया जाता है।

स्कंदपुराण में उल्लेख है कि बिल्व-पत्र, तुलसी-पत्र, कमल पुष्प, भृंगुराज पत्र आदि ईश्वर पूजा के लिए श्रेष्ठ हैं। आंवला, पीपल का वृक्ष, केला, वटवृक्ष, कदम्ब आदि की पूजा आज विज्ञान सम्मत भी सिद्घ हो चुकी है। पीपल एक ऐसा वृक्ष है जो दिन रात ऑक्सीजन का ही उत्सर्जन करता है जबकि अन्य वृक्ष दिन में ऑक्सीजन व रात्रि में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ते हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है-

फूलहिं फलहिं सदातरू कानन।

रहहिं एक संग गज पंचानन

खग मृग सहज बयरू बिसराई

सबीन्ह परस्पर प्रीति बढ़ाई।

उत्तरकाण्ड

सूर्योपासना

उगते सूर्य की पूजा तथा विशेषकर बिहार में छट पूजा पर्व सूर्यास्त के समय भी सूर्य की उपासना सर्वमान्य है। सूर्य की रश्मियां ही पृथ्वी के समस्त तत्वों को पोषित करती हैं। परंतु पाश्चात्य चिंतन व कथित वैज्ञानिक प्रयोगों ने आज ओजोन परत को ही नष्ट करने का प्रयास किया है। मानव की आधुनिकता के नाम पर सूर्य से निकली पराबैंगनी किरणों ने पृथ्वी के ऊपर अपना विपरीत प्रभाव डालना प्रारंभ कर दिया है।

जापान में परमाणु संयंत्रों के कारण आयी भीषण बाढ़, अमेरिका व यूरोप में बर्फीली आंधी, ग्लेशियारों का पिघलना आदि ऐसी वर्तमान दशक की घटनाएं हैं जो प्राचीन पर्यावरण व्यवस्था को पुन: स्मरण करा रही है।

अथर्ववेद

भूगोल शास्त्र की रचना के साथ जल, वायु व प्राण के विविध स्वरूपों का देवशक्तियों के रूप में महत्व दर्शाया गया है। अथर्ववेद में जल व वायु को पर्यावरण का प्रमुख घटक बताया गया है। प्रत्येक वनस्पति को किसी न किसी रूप में औषधि के रूप में मान्यता प्राप्त है। वनस्पति रहित क्षेत्र में वर्षा का अभाव हो जाता है तथा वर्षा रहित क्षेत्र में वनस्पति लुप्त हो जाती है।

युवं वायो सविता च भुवनानि रक्षथस्तौ नो मुंचतमहंस:।

(अथर्ववेद 4/25/3)

अर्थात सूर्यदेव व सविता देव दोनों समस्त प्राणियों की सुरक्षा करते हैं।

ऋग्वेद के भी दसवें मंडल में (10/186/3) वायु में अमृत का विद्यमान बताया या है जिसे सर्वत्र पहुंचाया जाना चाहिए।

प्राचीन भारतीय साहित्व में कहा गया है जल ही जीवन है शुद्घ व निर्मल जल का महत्व है, अशुद्घ व प्रदूषित जल का निषेध है। गंगा जल वैज्ञानिक दृष्टि से सर्वाधिक पवित्र है।

इसीलिए गंगा स्नान हेतु कुंभ मेले की परंपरा प्रारंभ है। विश्व में इतना विराट समूह कहीं भी किसी प्रसंग पर उपस्थित नही होता जितना गंगा किनारे कुंभ पर्व पर।अब तक सात करोड़ स्नानार्थी का आंकड़ा सर्वाधिक स्तर प्राप्त कर चुका है। जल को सर्वोत्तम वैद्य भी बताया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है हे परमात्मन हमें प्रदूषिण रहित जल, औषधियां एवं वन  प्रदान करो।

गीता में श्रीकृष्ण ने कहा कि हे धनंजय संपूर्ण वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। इसके आगे अ. 10 श्लोक 26 में कहा कि वृक्षों को दुख न दो, इनका उच्छेदन न करो, ये पशु पक्षियों व जीव जंतुओं को शरण देते हैं। ऋग्वेद (64817) में वृक्षों को ध्न्वन्तरि का स्वरूप माना है। पर्यावरण में भूमितत्व अति महत्वपूर्ण है।

माता भूमि पुत्रोअहं पृथिव्या: (अथर्ववेद 12-1-12) पृथ्वी माता, द्योष्पिता (यजुर्वेद 2/10/15) पर्यावरण शुद्घि के लिए यज्ञ को श्रेष्ठ साधन माना गया है। यज्ञ के धुएं से क्षय रोग, चेचक व हैजा आदि रोगों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। यज्ञ प्रकृति व पर्यावरण के संतुलन को बनाए रखता है।

उपभोगवादी भौतिक विकास की अंधी दौड़ में पर्यावरण का सर्वनाश किया जा रहा है। अत: प्राचीन भारतीय परंपराएं एवं ऋषियों के चिंतन की धारा से ही वर्तमान समस्या का समाधान संभव होगा। वृक्ष बचाएं, पर्यावरण को शुद्घ कर विश्व को बचाएं।

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