आधुनिक पूँजीवादी अर्थतंत्र चल ही नही सकता,अपनाना ही होगा प्राकृतिक अर्थतंत्र

प्रशांत सिंह

(लेखक पॉलिटिक्स ऑफ इकोनॉमिक्स पुस्तक के लेखक हैं।)

यह एक सर्व-विदित तथ्य है कि करोना महामारी के कारण विश्व भर की अर्थव्यवस्थाओं पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ा है और विश्व के सारे राष्ट्र अपनी अपनी अर्थव्यवस्थाओं को वापस पटरी पर लाने के लिए प्रयासरत हैं। इस तथ्य को गहराई से समझने के लिए ये आवश्यक है कि हम पहले यह समझ लें कि आखिरकार अर्थव्यवस्था किसे कहते हैं और यह कैसे चलती है; तत्पश्चात हम यह समझेंगे कि करोना के कारण यह किस प्रकार से दुष्प्रभावित हुई और फिर अंत में यह समझने का प्रयास करेंगे कि इस दुष्प्रभाव से कैसे उबरा जाए।

अर्थव्यवस्था का मूल तत्व
अपना जीवन सामान्य रूप से चलाने के लिए हम सभी को विभिन्न प्रकार की भौतिक वस्तुओं/सेवाओं के उपभोग की आवश्यकता होती है, परन्तु हम स्वयं ही अपने उपभोग के लिए आवश्यक हर प्रकार की वस्तु/सेवाओं का उत्पादन तो कर नहीं सकते। इसलिए समाज का हर वर्ग/व्यक्ति अपनी-अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार कुछेक निश्चित प्रकार की वस्तुओं/सेवाओं का ही उत्पादन करता है। फिर उस वस्तु/सेवा का समाज के अन्य वर्गों/व्यक्तियों के द्वारा उत्पादित वस्तुओं/सेवाओं से विनिमय (या क्रय-विक्रय) करता है। उदाहरण के लिए किसान अनाज का उत्पादन करता है उसका कुछ अंश वह स्वयं के उपभोग के लिए रखता है और उसके शेष अंश के बदले वह कुम्हार से बर्तन, जुलाहे से वस्त्र, ग्वाले से दूध इत्यादि लेता है। फिर उसी अनाज के बदले धोबी उसका वस्त्र धुलता है, नाई उसका छौर कर्म करता है इत्यादि। इसी प्रकार समाज का हर वर्ग/व्यक्ति अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं/सेवाओं का अन्य व्यक्तियों/वर्गों द्वारा उत्पादित वस्तुओं/सेवाओं से विनिमय (या क्रय-विक्रय) करता है। किसी भी समाज/राष्ट्र द्वारा सामूहिक रूप से वस्तुओं और सेवाओं के इसी उत्पादन, विनिमय (या क्रय-विक्रय) और उपभोग के चक्र को ही उस समाज/राष्ट्र की अर्थव्यवस्था कहते हैं। संक्षेप में कहें तो किसी भी समाज के भिन्न भिन्न वर्गों/व्यक्तियों द्वारा अपने-अपने जीविकोपार्जन के लिए की जा रही गतिविधियों का संकलन ही उस समाज की अर्थव्यवस्था कहलाती है।

अब प्रश्न यह है कि किसी समाज या राष्ट्र की अर्थव्यवस्था संकट में क्यों पड़ जाती है? आखिर ऐसा क्या हो जाता है कि समाज द्वारा वस्तुओं/सेवाओं के उत्पादन, उनके आपसी विनिमय और उपभोग का चक्र टूटने और चरमराने लगता है? यह प्रश्न सोचते हुए भी अजीब सा लगता है कि आखिरकार क्यों कोई समाज वस्तुओं/सेवाओं के उत्पादन, विनिमय और उपभोग के अपने ही चक्र को तोड़/रोक कर स्वयं अपने आप को ही संकट में डाल लेता है? क्या कोई बाहरी प्राकृतिक आपदा आ जाती है जो कि उत्पादन, विनिमय और उपभोग के इस चक्र को तोड़/रोक देती है? इस करोना काल में तो लगभग ऐसा ही हुआ है। करोना के कारण विश्व के लगभग हर राष्ट्र में सामाजिक दूरी को अपनाने के कारण बहुत सी वस्तुओं/सेवाओं का उत्पादन ही रुक गया है। इसको जानने के पश्चात हमारे मन-मस्तिष्क में यह विचार अवश्य ही कौंधेगा कि अगर ऐसा ही है तो इस संकट से निबटने का सबसे सरल और सुगम उपाय है कि वस्तुओं/सेवाओं के उत्पादन, विनिमय (क्रय-विक्रय) और उपभोग के चक्र को करोना काल के पश्चात पुन: चालू कर दिया जाए। हमारे मनोमस्तिष्क में यह विचार भी कौंधेगा कि यह तो कोई ऐसा बड़ा, दीर्घकालिक और गहन संकट तो है नहीं जिसके लिए रातों की नीद और दिन का चैन खराब किया जाए, यह तो एक तात्कालिक और अस्थाई संकट है जो कि समय के साथ खुद ही हल हो जाएगा। अर्थात् जैसे ही कोरोना काल के पश्चात उत्पादन, विनिमय (क्रय-विक्रय) और उपभोग का चक्र चालू होगा यह संकट स्वत: समाप्त हो जाएगा।

काश ऐसा ही होता! आगे बढऩे से पहले इतना स्पष्ट कर देना चाहिए कि ऐसा कोई पहली बार नही हुआ है कि आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन, विनिमय (क्रय-विक्रय) और उपभोग का चक्र टूटा/रुका या ठप हो गया हो। पिछले 200/250 वर्षों में—अर्थात जब से पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अस्तित्व में आई है—उत्पादन, विनिमय और उपभोग का यह चक्र बीसियों बार टूटा, रुका और ठप हुआ है और पुन: चालू हुआ है; लेकिन यह संभवत पहली बार हुआ है कि यह चक्र किसी बाहरी कारण से टूटा है। करोना संकट के पूर्व पूँजीवादी व्यवस्था जब भी संकट में आई वह पूँजीवाद की आंतरिक खामियों के कारण से आई थी। अब एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पूँजीवाद की वो आंतरिक खामियाँ हैं क्या जिसके कारण आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन, विनिमय (क्रय-विक्रय) और उपभोग का चक्र टूटता/रुकता रहता है और यह पुन: कैसे बहाल होता रहता है? इस प्रश्न को समझे बिना हम अर्थव्यवस्था पर करोना संकट का प्रभाव नहीं समझ सकते।

आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और उसकी की मूल खामी
आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की मूल खामी को समझने के पूर्व हमें यह स्पष्ट होना चाहिए की आखिर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था है क्या? सामान्य अवधारणा यह है कि उत्पादन के संसाधनों का निजी हाथों में होना ही पूँजीवाद है और जो भी उत्पादन तंत्र का स्वामी होता है वह पूँजीवादी होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह एक बेहद निर्मूल और हास्यपद अवधारणा है। अनादि काल से उत्पादन के संसाधन निजी हाथों में ही रहे हैं; जैसे कि किसान, बढ़ई, नाई, लोहार, जुलाहा इत्यादि। समाज के ये सभी वर्ग निजी स्वामित्त्व के ही उदाहरण हैं; परंतु किसान, बढ़ई, नाई, लोहार, जुलाहा इत्यादि कभी पूँजीवादी नहीं कहलाए ना ही इनके उत्पादन तंत्र को पूँजीवाद कहा गया। फिर आखिरकार पूँजीवाद है क्या?

तथाकथित औद्योगिक क्रांति के पश्चात अस्तित्व में आए उत्पादन तंत्र अर्थात् लगातार धन लाभ कमाने और उस धन के संचय के उद्देश्य से फैक्टरियों/मिलों में मजदूरों व मशीनों के उपयोग द्वारा उत्पादन के तंत्र को पूँजीवाद कहते हैं और उत्पादन तंत्र (अर्थात् फैक्टरियों) के स्वामी को पूँजीवादी कहते हैं। और भी संक्षेप में कहें तो लगातार धन लाभ कमाने और उस धन के संचय के उद्देश्य से स्थापित उत्पादन तंत्र को पूँजीवाद कहते हैं। चूँकि इस प्रकार से लगातार धन लाभ कमाने वाली उत्पादन व्यवस्था सामान्यत: फैक्टरियों/मिलों में मजदूरों और मशीनों के उपयोग से ही सम्भव होती है इसलिए फैक्टरियों/मिलों में मशीनों और मजदूरों के संयोग से होने वाले उत्पादन तंत्र को, जिसका कि स्वामित्व निजी हाथों में हो, पूँजीवाद कहते हैं। परंतु यदि इन्हीं फैक्टरियों/मिलों में मशीनों और मजदूरों के संयोग से होने वाले उत्पादन तंत्र का स्वामित्व सरकार या समाज के हाथों में हो जिसका चरम उद्देश्य लगातार धन लाभ कमाना न हो तो इस व्यवस्था को साम्यवाद/समाजवाद कहते हैं। अर्थात पूँजीवाद और साम्यवाद की अवधारणा फैक्टरियों में मशीनों और मजदूरों के उपयोग से होने वाले उत्पादन तंत्र पर ही लागू होती है; तथाकथित औद्यगिक क्रांति के पूर्व के उत्पादन तंत्र पर, जिसमें उत्पादन की इकाई फैक्ट्री/मिल न होकर व्यक्ति या परिवार होते थे। अर्थात् जहाँ किसान, बढ़ई, नाई, जुलाहा, लोहार, चर्मकार, कुम्हार, ठठेरा और अन्य प्रकार के शिल्पी इत्यादि उत्पादन की इकाई हों, पूँजीवाद या साम्यवाद/समाजवाद की अवधारणा लागू ही नहीं हो सकती। इस लेख में हम उस प्रकार के उत्पादन तंत्र को सामान्य/प्राकृतिक उत्पादन तंत्र कहेंगे।

हमारे मन में यह विचार आ सकता है कि क्या सामान्य/प्राकृतिक उत्पादन तंत्र में किसान, बढ़ई, नाई, कुम्हार इत्यादि धन लाभ नही कमाते थे? क्या वह हानि उठा कर या बिना धन-लाभ लिए अपनी वस्तुओं/सेवाओं का विक्रय करते थे? नही, सामान्य/प्राकृतिक उत्पादन तंत्र के उत्पादक हानि उठाकर या बिना लाभ लिए अपनी वस्तुओं का विक्रय नही करते थे लेकिन उनके लाभ और और एक पूँजीवादी के लाभ में बहुत बड़ा अंतर था। सामान्य/प्राकृतिक उत्पादन तंत्र के उत्पादक अपने लगभग सम्पूर्ण धन लाभ को अपने उपभोग की अन्य वस्तुएँ क्रय करने में व्यय करते थे।

उदाहरण के लिए अगर सामान्य/प्राकृतिक उत्पादन तंत्र का एक बढ़ई एक महीने में 5000 रुपए का धन लाभ कमाता है तो वह उपरोक्त 5000 रुपए से अपने परिवार के उपभोग के लिए अन्न, वस्त्र, बर्तन, जूते इत्यादि को क्रय करने में खर्च करेगा और थोड़ा बहुत धन बचाएगा। लेकिन वह जो भी थोड़ा-बहुत धन बचाएगा वह धन भी कालांतर में किसी सामाजिक, धार्मिक या पारिवारिक तीज त्योहार में खर्च ही हो जाएगा। यही परिस्थिति इस प्रकार के उत्पादन तंत्र के हर उत्पादक के साथ होती है; सभी उत्पादक अपने-अपने लाभ को एक दूसरे द्वारा उत्पादित वस्तुओं/सेवाओं के क्रय में व्यय कर देते हैं। सामान्य/प्राकृतिक अर्थतंत्र में उत्पादन इकाइयों (व्यक्ति/परिवार) द्वारा वस्तुओं/सेवाओं के उत्पादन का मूल उद्देश्य अपने उत्पादन के एक अंश का स्वयं उपभोग करना और शेष अंश को अन्य वस्तुओं/सेवाओं के उत्पादकों के साथ विनिमय करके अपने उपभोग की अन्य वस्तुएँ/सेवाएँ प्राप्त करना होता है। अर्थात सामान्य/प्राकृतिक उत्पादन तंत्र का उत्पादक लगातार उच्च मात्रा में धन लाभ कमाते हुए उसका संचय नही करता रहता।

इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में धन मुख्यत: वस्तु/सेवाओं के विनिमय (क्रय-विक्रय) में सहायक मात्र का कार्य करता है और इस प्रकार की अर्थव्यवस्था या उत्पादन तंत्र किसी भी मात्रा में धन की उपलब्धता पर सुगमता से चल सकती है। सामान्य/प्राकृतिक उत्पादन तंत्र एक स्थिर और निश्चित मात्रा में धन की उपलब्धता पर ही चल सकता है और इस प्रकार के उत्पादन तंत्र के लिए धन की उपलब्धता एक गौण विषयवस्तु है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था अपने आपको किसी भी मात्रा की धन उपलब्धता पर समयोजित कर सकती है।

इसके विपरीत पूँजीवादी उत्पादन तंत्र के उत्पादक का मूल उद्देश्य ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा में धन-लाभ कमाना होता है। सामान्यत: पूँजीवादी व्यवस्था का उत्पादक अपने कुल धन लाभ का ज़्यादा से ज़्यादा 5-10 प्रतिशत ही अपने परिवार के उपभोग पर खर्च करता है और लगभग 90-95 प्रतिशत धन लाभ का या तो संचय करता है या उसे (या उसका कुछ अंश) और ज़्यादा लाभ कमाने के लिए निवेश करता है। उदाहरण के लिए अगर कोई पूँजीवादी एक माह में 10000000 रुपए का लाभ कमाता है तो वह अधिक से अधिक 500000 से 1000000 रुपए अपने और अपने परिवार के उपभोग में लाएगा और शेष धन का या तो वह संचय करेगा या भविष्य में और अधिक धन-लाभ कमाने के लिए निवेश करेगा। इसीलिए पूँजीवादी व्यवस्था एक निश्चित मात्रा में धन की उपलब्धता पर नहीं चल सकती; इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में धन की उपलब्धता में लगातार वृद्धि होते रहने की आवश्यकता है।

हालाँकि भारतवर्ष के लिए सबसे उत्तम तो यह होगा कि पूँजीवाद से ही छुटकारा पा लिया और अपने पुराने प्राकृतिक अर्थतंत्र को पुन: अपना लिया जाए क्योंकि पूँजीवादी तंत्र खामियों की खान है और इस लेख में तो अभी इसकी 10 प्रतिशत खामियों का भी वर्णन नही किया गया है। परंतु वर्तमान परिस्थितियों में पूँजीवाद को इतनी जल्दी त्यागना संभव जान नहीं पड़ता इसलिए हम यह प्रयास करेंगे कि वर्तमान अर्थतंत्र ही जल्द से जल्द संकट से बाहर आ जाए।

जैसा कि हमने ऊपर समझा कि पूँजीवादी अर्थतंत्र तभी संकट में पड़ता है जब उसमें धन झोंकने की गति में कमी आ जाए। हमने यह भी जाना कि पूँजीवादी तंत्र में धन मुख्यत: दो तरीकों से झोंका जाता है (1) सरकारों द्वारा घाटे की अर्थव्यवस्था चलाने से और (2) बैंकों द्वारा उपभोक्ता ऋण को बाँटे जाने से। जहाँ तक भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रश्न है वह तो करोना संकट के पूर्व एक बड़े संकट में फँस गयी थी। इसका सबसे प्रमुख कारण यह था कि सरकार अपना घाटा 2012 से ही कम कर रही है और 2014 में भाजपा सरकार के आने के बाद तो सरकारी घाटे में बहुत तेजी से कमी हुई। साथ ही साथ 2012 से रियल एस्टेट में गिरावट आने के कारण बैंकों द्वारा दिए जा रहे उपभोक्ता ऋणों (जिसमें गृह ऋण भी शामिल हैं) में भी काफी कमी आयी। इस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था में दोनो ही विधियों से धन के झोंके जाने में भारी कमी आ गयी थी। भाजपा के शासनकाल में आई आर्थिक तेजी में कमी के ये ही दो मूल कारण हैं। नोटबंदी और जीएसटी ने कोढ़ में खाज का काम किया।

तत्पश्चात् करोना महामारी ने अच्छे भले चलते उद्योगों को भी ठप कर दिया और पहले से ही संकटग्रस्त भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी गर्त में गिरा दिया। खैर करोना ने अकेले भारतीय अर्थव्यवस्था को ही नहीं, विश्व की लगभग सभी अर्थव्यवस्थाओं को गर्त में गिरा दिया है। भारत समेत विश्वभर की अर्थव्यवस्थाओं के सामने इस समय दो प्रमुख समस्याएँ हैं (1) माँग में भारी कमी और (2) उद्योगों का भारी कर्ज़ में दब जाना।

अब जबकि हम यह समझ चुके हैं कि अर्थतंत्र क्यों संकट में आता है और उससे कैसे उबरा जाए तो करोना संकट से निकलने के का क्या उपाय है, यह समझने में कोई कठिनाई नहीं आनी चाहिए। भारत सरकार निम्नलिखित उपायों को अपना कर करोना संकट से अर्थतंत्र को उबार सकती है।

राजकोषीय घाटे को बढ़ाकर 10 प्रतिशत के आसपास कर दिया जाय और इस धन का प्रमुख भाग कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च किया जाए।
सरकारी बैंकों को सस्ती दरों पर और दीर्घकालिक (150 महीने) पुनर्भुगतान वाले व्यक्तिगत ऋण (Personal Loans) देने के निर्देश दिए जाएँ।
किसानो का बैंक ऋण माफ कर दिया जाए।
करोना के कारण संकट में पड़े लघु और मध्यम उद्योगों को विशेष ऋण राहत पैकेज दिए जाएँ और उनके कर्जों और ब्याज की माफी हो।हालाँकि जब भी बैंकों के ऋण माफी की बात होती है, अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा वर्ग हो-हल्ला मचाने लगता है और इस कदम को दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था के लिए दुष्प्रभाव डालने वाला बताने लगता है। वस्तुत: बैंकों द्वारा दिया गया ऋण एक लेखा प्रविष्टि से ज़्यादा कुछ नही है अत: उसकों माफ कर देने से अर्थव्यवस्था पर कोई दुष्प्रभाव नही पड़ेगा, उल्टे यह अर्थव्यवस्था के लिए बहुत लाभकारी रहेगा। दुनियाभर की लगभग सभी बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्थाएँ अपनी उत्पादन कंपनियों और आम जनता का बैंक ऋण लगातार माफ ही करती चली आ रही हैं क्योंकि बिना बैंक ऋणों को माफ किए आधुनिक पूँजीवादी अर्थतंत्र चल ही नही सकता। हाँ, यह अलग बात है की विकसित देशों द्वारा की जा रही कर्ज माफी थोड़ा छद्म रूप की जाती है।

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