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आज का चिंतन-27/09/2013

एक-दूसरे के पूरक हैं

आनंद और ईश्वरीय मार्ग

– डॉ. दीपक आचार्य

9413306077

dr.deepakaacharya@gmail.com

 

हर व्यक्ति अपने जीवन में आनंद की प्राप्ति चाहता है। आज हम सांसारिक भोगों और तुच्छ वस्तुओं, जमीन-जायदाद या लोकप्रियता को आनंद का मार्ग मानकर चल रहे हैं, यह मिथ्या भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है।

आनंद वह है जो बाहर से उत्प्रेरित नहीं होता बल्कि भीतर से प्राप्त होता है। बाहरी आनंद क्षणिक और आडम्बरी होता है जबकि भीतरी आनंद अक्षय और अनवरत वृष्टि करने वाला है। बाहरी आनंद की खिड़कियां हवा के झोंकोें के साथ कभी भी बंद हो सकती हैं या दीवार की तरह व्यवहार कर सकती हैं मगर भीतरी आनंद की खिड़कियाँ कभी बंद नहीं होती।

एक बार इनका पता पा जाने के बाद जो व्यक्ति इन्हें खोलने की कुंजी पपा लेता है वह आनंद का महास्रोत पा लेता है जो कभी बंद नहीं होता। एक बार अन्तरात्मा का आनंद मिल जाने पर सभी प्रकार के बाहरी आनंद गौण या तुच्छ लगने लगते हैं और इन आडम्बरी आनंद को पाने के हथकण्डे, स्टंट और षड़यंत्रों में समय जाया करने की मूर्खता हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है।

सारी दुनिया अपने भीतर समाये हुए आनंद के महास्रोत की बजाय उन कामों में लगी हुई है जिनसे प्राप्त आनंद न स्थायी है न मौलिक शाश्वत।

जीवन में हम जो भी कर्म करते हैं। वह आनंद पाने के लिए करते हैं। जिसमें आनंद नहीं मिलता है वो काम हम कभी नहीं करते।  आनंद और ईश्वर दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। जहां आनंद है वहां ईश्वर अपने आप आ जाता है, ईश्वर का प्रत्यक्ष या परोक्ष अनुभव होने लगता है।

इसी प्रकार जहां ईश्वर है वहां आनंद अपने आप पसरने लगता है। भोग या योग दोनों में से कोई सा मार्ग अपनाएं, आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए। ईश्वर को पाना हो तो चरम आनंद के मार्ग को चुनें और यह अपने बूते में नहीं हो तो ईश्वर की ओर कदम बढ़ायें, ईश्वर के मार्ग पर कदम बढ़ाते हुए आनंद अपनी ओर खुद ब खुद आता चला जाएगा।

मोक्ष की कामना हम मरने के बाद करते हैं। लेकिन जब हम ईश्वरीय मार्ग पर बढ़ चलते हैं तब कुछ समय बाद हमें अपने कर्म के लिए ज्यादा आशाएं नहीं करनी पड़ती। तब हमें दैवी संपदा प्राप्त होती है और अपने सारे कर्म अपने आप होते चले जाते हैं।

इस स्थिति में आनंद और ईश्वर दोनों की प्राप्ति ही ऎसी होती है जो कि हमें भोगों से पूर्ण परितृप्त कर योग से जोड़ देती है। इस समय हमारा अपना सब कुछ होते हुए भी अपना किंचित मात्र भी अधिकार होने का भान नहीं रहता, और  न हम अधिकार रखना चाहते हैं।

इन सभी से मुक्त रहकर चरम आनंद में रहते हुए हम उस स्थिति में आ जाते हैं जहां हमारे भीतर आनंदमयी वैराग्य दिखता है जिससे साधक कभी नीचे नहीं उतरता, उत्तरोत्तर ऊपर ही बढ़ता जाता है और ऊध्र्वगामी स्तर पा लेता है। जबकि दुःखों से प्राप्त वैराग्य में साधक के हर बार नीचे गिरने, अधःपतन का खतरा बना रहता है।

वस्तुतः जीते जी मुक्ति का यही अहसास जीवन्मुक्ति है। इस सत्य को जान लेने के बाद न लोगों का भय होता है, न समाज और परिवेश का, और न ही मृत्यु का।  मृत्युंंजयी व्यक्तित्व पाने के लिए सभी प्रकार की मृत्युओं को त्यागकर ईश्वरीय आनंद का मार्ग अपनाने की जरूरत सदियों से महसूस की जाती रही है। आज भी यह कोई कठिन मार्ग नहीं है।

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