जो ईश्वर से दूर करे वह शत्रु

चाहे गुरु हो या और कोई

– डॉ. दीपक आचार्य

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ईश्वरीय सत्ता हम सभी के लिए सर्वोपरि है फिर चाहे उसका रंग-रूप कुछ भी हो, साकार हो या निराकार या फिर और कुछ। ईश्वरीय सत्ता का सान्निध्य ही हमें शाश्वत सुख-समृद्घि और आनंद से भर सकता है। इसके बिना और कोई कारक तत्व ऐसा नहीं है जो हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति कराए अथवा आनंद में नहलाता रहे।

इस सत्ता को कोई माने या न माने, लेकिन इसका अस्तित्व हर क्षण, हर तत्व में मौजूद रहता है और इसे कभी भी नकारा नहीं जा सकता। अपने लक्ष्य को हमेशा ऊँचा रखकर जीवनयापन करना चाहिए क्योंकि जिसे हम अपना लक्ष्य बना लेते हैं वह क्रमिक रूप से सूक्ष्म से स्थूल धरातल पर आकार लेने लगता है और एक समय ऐसा आता है जब हमारे मन की कल्पनाओं और इच्छाओं के अनुरूप आकार हमारी आँखों के सामने ही दृष्टिगोचर होने लगता है।

भक्ति का स्परूप या मार्ग चाहे कोई सा क्यों न हो, हमेशा हमें चाहिए कि सुप्रीम पॉवर यानि की सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता को तथा उसकी कृपा पाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहें ताकि हमारे प्रयास उसी दिशा में निरन्तर चलते रहें। यह प्रक्रिया समय साध्य है लेकिन एक न एक दिन वह समय भी आ ही जाता है जब हम हमारे अभीप्सित लक्ष्य को पाकर जीवन के सफल एवं धन्य होने का चरम आनंद व पूर्णता का पूरे उत्कर्ष के साथ अनुभव करने लगते हैं।

सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता को जानने या पाने के मार्ग बड़े ही कठिन जरूर हैं मगर असंभव कदापि नहींं। लेकिन इंसान की मनोवृत्ति आजकल कम से कम समय से बिना मेहनत किए अधिक से अधिक संग्रह और उपभोग की दिशा में तेजी से बढ़ती जा रही है। और यही कारण है कि हम सभी सफलता पाने के ऐसे शॉर्ट कट तलाशने में दिन-रात भिड़े रहने लगे हैं जहाँ परिश्रम से कहीं अधिक चातुर्य या चापलुसी के इस्तेमाल से काम चल जाए।

और यही कारण है कि आजकल ईश्वरीय सर्वोच्च सत्ता की बजाय उन रास्तों की ओर डग बढ़ाने को हम विवश हैं जिन रास्तों पर चलकर हमारा ध्यान इतना भटक जाता है कि हम ईश्वर तक को भूल कर बीच के रास्तों में अटक जाते हैं और उन्हीं को ईश्वर मानकर चलने लगते हैं।

आजकल सब तरफ यही हो रहा है। हममें अपने परंपरागत मार्ग और कर्म करने का माद्दा नहीं रहा बल्कि पगडण्डियों पर चलकर जल्दी-जल्दी पहुंचना हमारे लिए आसान सा हो चला है। प्राचीनकालीन महापुरुषों और ऋषि-मुनियों, तपस्वियों, सिद्घों आदि सभी ने ईश्वरीय मार्ग पर चलने की सीख दी और यही सिखाया कि परमसत्ता को भजें, उनकी भक्ति करेें, साधना का मार्ग अपनाएं।

इतिहास का कोई सा उदाहरण ऐसा नहीं है जिसमें किसी ऋषि ने अपने नाम को भजने या जपने को कहा हो। पर आजकल हमारे यहां जाने कितने सारे गुरुओं की ऐसी बाढ़ आ गई है जो लोगों को धर्म और भक्ति के मूल मार्ग की बजाय खुद अपनी पूजा करवा रही है, गुरु मंत्र के नाम पर अपने नाम का जप करवा रही है और लोगों से अपनी भक्ति करवाने पर तुली हुई है।

हालात ये हैं कि ये ठग गुरु अपने भक्तों को ईश्वर के मार्ग से भटका कर ऐसी-ऐसी राहों पर चलवा रहे हैं जहाँ खुद भी अंधकार की ओर जा रहे हैं और अपने भक्तों और अंधभक्त बन चुके तथाकथित शिष्यों को भी अंधकार के मार्ग पर ले जा रहे हैं। जो लोग भगवान के मार्ग से भटका कर दूसरे रास्तों पर ले जाते हैं वे अपने परम शत्रु माने जाने चाहिएं चाहे वे गुरु हों या अपने निकटतम लोग।

हमेशा सर्वोच्च शक्तिमान की आराधना करें और उन्हीं के मार्ग पर चलें। तथाकथित बाबों, ढोंगियों, ध्यानयोगियों, संतों और कथावाचकों से बचें जो अपने नाम और प्रतिष्ठा के लिए भक्तों को भुलावे में डालकर अपने उल्लू सीधे कर रहे हैं।

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