पूर्ण अनुकरण अब संभव नही

जो अच्छा है, ग्रहण करते चलें

– डॉ. दीपक आचार्य

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स्वार्थों और ऎषणाओं की अंधी दौड़ तथा परफेक्शन की कमी के मौजूदा दौर में न तो किसी को रोल मॉडल माना जा सकता है  और न ही ऎसा आदर्श, कि जिसके जीवन की हर बात को अंगीकार किया जाए। आजकल परिशुद्धता और तात्ति्वक मौलिकता का अभाव होता जा रहा है और ऎसे में किसे स्वीकारें, किसे न स्वीकारें, यह निर्णय करना बड़ा मुश्किल हो गया है।

अब वो पुरानी कहावत पूरी तरह निरर्थक हो गई है कि पूत के लक्षण पालने में दिखने लगते हैं। आजकल तो किसी भी आयु में कोई लक्षण नहीं दिखते। जब कुछ अप्रिय हो जाता है तब आदमी की महान और विलक्षण क्षमताओं का पता चलता है और यह रहस्योदघाटन हर किसी को  अचंभित  कर देने वाला होता है।

बात किसी भोगी-विलासी गृहस्थी,धंधेबाजों, पूँजीपतियों, हमारेभाग्यविधाताओें और कर्णधारों की हो अथवा संसार को त्याग चुके, ईश्वर के आराधन और त्याग-तपस्या के लिए निकले संत-महात्माओं, महंत-मण्डलेश्वरों की हो या फिर कथावाचकों से लेकर धर्म के नाम पर गोरखधंधे और आश्रम चलाने वालों की। किसी के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।

आजकल आदमी जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है, जैसा कहता है वैसा करता नहीं है और इससे भी  अव्वल बात ये कि आदमी  उन सब  आदर्शों से दूर होता जा रहा है जो आदमी के लिए मर्यादाओं की सीमा रेखाएं तय किया करते थे और आदमी का आदमी के रूप में ही  वजूद बनाये रखते थे।

वैदिक विचार ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम…’ की तरह आज हम सभी को लगता है कि कौन है जो पूजने और अनुकरण करने योग्य है। जिन्हें हम आदर्श मानकर अनुकरण करने की सोचते हैं उनकी स्थिति यह है कि कुछ समय बाद उनकी कलई खुलने लगती है, कई गूढ़ और अशोभनीय रहस्यों से परदे उठने लगते हैं और अन्ततः हमें ही हमारी निर्णय क्षमता के बारे में सोचने को विवश होना  पड़ता है।

इन हालातों में किसे अपना आदर्श मानें, कौनसी राह पर चलें….. यह आज का सबसे बड़ा ज्वलन्त प्रश्न हम सभी के सामने है। हममें से कोई भी हृदय पर हाथ रखकर यह दावा नहीं कर सकता कि वह शुद्ध-बुद्ध और पूर्ण है तथा उसका अनुसरण आँखें बंद करके किया जा सकता है और अंत तक भरोसे को बरकरार रखा जा सकता है।

कई बड़े-बड़े और महानतम लोकप्रियों की स्थिति यह है कि उनकी आत्मा मर चुकी है। वे औरों के सामने अभिनय करने के आदी हो गए हैं। दुनिया के सारे अपराध करते हैं, भ्रष्टाचार, व्यभिचार और कुकर्मों की पूरी श्रृंखला इनके साथ चलती है लेकिन सार्वजनिक तौर पर जब भी लोगों के सामने आएंगे, ऎसी लच्छेदार ओर मीठी भाषा का उपयोग करेंगे कि बस।लेकिन सच यह भी है कि शब्दों में तभी तक ताकत रहती है जब तक सत्य उनके साथ हो, वरना दिन-रात बकवास करने और भौंकने वालों की बातों और भाषणों का कहाँ कोई असर दिखता है।

इन विषम हालातों में हमें चाहिए कि किसी का पूर्ण अनुकरण करने की बजाय जहाँ जो कुछ अच्छा है, उसी को ग्रहण और संग्रहण करते चलें जिस प्रकार मधुमक्खियाँ करती हैं। सार-सार को ग्रहण करते जाएं, फालतू के कचरे की ओर नज़र भी न डालें। व्यक्तित्व निर्माण का यही एक निरापद और सुरक्षित मार्ग हमारे सामने बचा है।

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