गलवान के सफल हीरो अजीत डोभाल

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

गलवान घाटी से इस वक्त खुश-खबर आ रही है। हमारे टीवी चैनल यह दावा कर रहे हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से चीन पीछे हट रहा है। चीन अब घुटने टेक रहा है। अपनी हठधर्मी छोड़ रहा है, लेकिन इस तरह के बहुत-से वाक्य बोलने के बाद वे दबी जुबान से यह भी कह रहे हैं कि दोनों देश यानि भारत भी उस रेखा से पीछे हट रहा है।

वे यह भी बता रहे हैं कि हमारे सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के बीच दो घंटे वीडियो-बातचीत हुई। इसी बातचीत के बाद दोनों देशों ने अपनी सेनाओं को पीछे हटाने का फैसला किया है लेकिन हमारे टीवी चैनलों के अति उत्साही एंकर साथ-साथ यह भी कह रहे हैं कि धोखेबाज चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। एक अर्थ में हमारे ये टीवी एंकर चीन के बड़बोले अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ से टक्कर लेते दिखाई पड़ते हैं। यह अच्छा हुआ कि भारत सरकार हमारे इन एंकरों की बेलगाम और उकसाऊ बातों में बिल्कुल नहीं फंसी और उसने संयम से काम लिया।

यह अलग बात है कि टीवी चैनलों को देखने वाले करोड़ों भारतीय नागरिक चिंताग्रस्त हो गए और उन्होंने राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन करने के लिए स्वतःस्फूर्त चीनी माल का बहिष्कार भी शुरू कर दिया और चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग के पुतले फूंकने भी शुरू कर दिए,  लेकिन सरकार और भाजपा के किसी नेता ने इस तरह के कोई भी  निर्देश नहीं दिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री जयशंकर ने चीन का नाम लेकर एक भी उत्तेजक बयान नहीं दिया। उन्होंने हमारी फौज के जवानों के बलिदान को पूरा सम्मान दिया, लद्दाख की अपनी यात्रा और भाषण से फौज के मनोबल में चार चांद लगा दिए और गलवान की मुठभेड़ को लेकर चीन पर जितना भी निराकार दबाव बनाना जरूरी था, बनाया।

चीनी ‘एप्स’ पर तात्कालिक प्रतिबंध, चीन की अनेक भारतीय-परियोजनाओं पर रोक की धमकी और लद्दाख में विशेष फौजी जमाव आदि से सीधा संदेश दिया। उधर चीन ने भी अपनी प्रतिक्रिया को संयत और सीमित रखा। इन बातों से दोनों सरकारों ने यही संदेश दिया कि गलवान घाटी में हुई मुठभेड़ तात्कालिक और आकस्मिक थी। वह दोनों सरकारों के सुनियोजित षड़यंत्र का परिणाम नहीं थी। मैं 16 जून से यही कह रहा था और चाहता था कि दोनों देशों के शीर्ष नेता सीधे बात करें तो सारा मामला हल हो सकता है। अच्छा हुआ कि डोभाल ने पहल की। परिणाम अच्छे हैं। डोभाल को अभी मंत्री का ओहदा तो मिला ही हुआ है। अब उनकी राजनीतिक हैसियत इस ओहदे से भी ऊपर हो जाएगी। अब उन्हें सीमा-विवाद के स्थायी हल की पहल भी करनी चाहिए।

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