एक सच्चिदानंदस्वरूप , निराकार , सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान ईश्वर ही सबके लिए उपासनीय है

ओ३म्

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हम इस सृष्टि में रहते हैं। हमारा जन्म यद्यपि माता-पिता से हुआ है परन्तु हमारे शरीर को बनाने वाला तथा इसका पोषण करने वाला परमात्मा है। वह परमात्मा कहां है, कैसा है, उसकी शक्ति कितनी है, उसका ज्ञान कितना है, उसका आकार कैसा है तथा उसकी उत्पत्ति कब व कैसे हुई, यह ऐसे प्रश्न है जिनका उत्तर हमें ज्ञात होना चाहिये। उनका सही उत्तर केवल चार वेद एवं वैदिक साहित्य में ही मिलता है। वेद बताते हैं कि ईश्वर का स्वरूप सत्य, चेतन व आनन्द से युक्त है। उसका आकार निराकार है अर्थात् उसका किसी प्रकार का आकार व आकृति नहीं है। वह बिना आकार वाला है। उसका चित्र अथवा मूर्ति नहीं बनाई जा सकती। यदि बनायेंगे तो वह अनुमानित व काल्पनिक होगी। वेदों में ईश्वर को निराकार बताया गया है। यजुर्वेद में कहा गया है कि ‘ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्’ अर्थात् ईश्वर जगत के कण कण में व्यापक है। जिस वस्तु का कहीं कोई ओर और छोर न हो, जो आंखों से दिखाई न दे, उसका आकार व आकृति नहीं होती। ईश्वर कहां रहता है? इस प्रश्न का उत्तर है कि ईश्वर सीमातीत ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्यापक है अर्थात् वह सर्वव्यापक सत्ता है।

ईश्वर इतनी सूक्ष्म सत्ता है कि ब्रह्माण्ड में व्यापक होने पर भी उसका भार प्रायः शून्य है। ईश्वर के ज्ञान की बात करें तो वह सर्वज्ञानमय है। कोई ऐसा ज्ञान व विद्या नहीं है, जो ईश्वर को ज्ञात न हो। उसको सब विद्याओं का पूरा पूरा यथार्थ व निभ्र्रान्त ज्ञान है, इसी लिये उसे सर्वज्ञानमय या सर्वज्ञ कहा जाता है। ईश्वर की शक्ति कितनी है? इस प्रश्न का उत्तर है कि वह सर्वशक्तिमान है। उसकी शक्ति में कोई न्यूनता नहीं है। वह हमारे सूर्य, पृथिवी, चन्द्र तथा सौर्य मण्डल के सभी ग्रहों सहित पूरे ब्रह्माण्ड के सूर्य व पृथिवी से भारी पिण्डों व नक्षत्रों को अपनी शक्ति से उठाये हुए व धारण किये हुए है। उसी ने इस ब्रह्माण्ड को बनाकर उसमें गति उत्पन्न की है। उसी के बनाये नियमों से यह ग्रह-उपग्रह अपनी धुरी पर घूमते हैं। पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है चन्द्र पृथिवी सहित सूर्य की परिक्रमा भी करता है। हमने पूर्व पंक्तियों में ईश्वर का संक्षिप्त परिचय दिया है। हमें मनुष्य जन्म भी ईश्वर ने ही दिया है। यदि ईश्वर को सृष्टि व प्राणी योनियों सहित मनुष्यों को बनाने तथा अन्न आदि की उत्पत्ति का ज्ञान न होता तो यह विश्व व हम अस्तित्व में कदापि न आ आते। अतः इन सब बातों पर विचार कर हमें ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य को भी जानना है और उसका पालन भी करना है।

ईश्वर अनादि, नित्य, अमर तथा अविनाशी सत्ता है। हमारी आत्मा भी अनादि व नित्य तथा अमर व अविनाशी सत्ता है। इस कारण हमारी आत्मा का जन्म व मृत्यु का चक्र चलता रहता है। आत्मा का जन्म होता है, इसके बाद उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोगने तथा नये कर्मों को करते हुए वृद्धावस्था आती है। वृद्धावस्था में मनुष्य की रोगों आदि से मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के समय हमारे जो पाप-पुण्य रूपी कर्म होते हैं उसके अनुसार परमात्मा हमें नया जन्म देते हैं। इसी को पुनर्जन्म कहते हैं। पुनर्जन्म में पुनः तीन अवस्थायें बाल, युवा व वृद्धावस्थायें हाती है। मृत्यु आती है और उसके बाद पुनर्जन्म होता है। इस कारण अनादि काल से अब तक हमारे असंख्य व अगण्य जन्म हो चुके हैं। आगे भी यही प्रक्रिया जारी रहनी है। वेद धर्म का पालन करने पर कुछ मनुष्यों को मुक्ति का सुख भी प्राप्त होता है परन्तु मुक्ति की अवधि पूर्ण होने पर पुनः जन्म लेकर पूर्व अवशिष्ट कर्मों का भोग करते हुए नये कर्म करने होते हैं। इस प्रकार अनादि काल से चले आ रहे सृष्टि-प्रलय के क्रम सहित जीवात्माओं के जन्म व मृत्यु का क्रम भी चल रहा है। परमात्मा हमारे सुख के लिये सृष्टि को बनाते और हमें बिना मूल्य संसार का सर्वोत्तम मानव शरीर देते हैं जिससे हम ज्ञान की वृद्धि, आत्मा की उन्नति तथा सुखों को प्राप्त करते हैं। अतः हमें इसके लिये परमात्मा का धन्यवाद करना होता है। ईश्वर की उपासना व इसकी विधि को ही ईश्वर का ध्यान, स्तुति-प्रार्थना-उपासना, भक्ति अथवा योगाभ्यास आदि अनेक नामों से जाना जाता है।

ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने तथा ईश्वर से ज्ञान व शक्ति की याचना के लिये हमें ईश्वर की उपासना करनी आवश्यक है। उपासना में ईश्वर के सद्गुणों का ध्यान, कीर्तन व स्तुति सहित उससे अपने जीवन को स्वस्थ, सुखी, उन्नत, प्रगतिशील सहित धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करनी भी आवश्यक है। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, घट-घट वासी तथा हमारे बाहर व भीतर विद्यमान है। इस कारण वह हमारी सभी प्रार्थनाओं को पूरा करने में पूर्ण समर्थ है। इसके लिए हमें अर्हता, पात्रता वा योग्यता को प्राप्त होना होता है। बिना पात्रता के तो देश में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी यथा चपरासी या श्रमिक की नौकरी भी नहीं मिलती। हम ईश्वर से ज्ञानी, योगी, विद्वान, बलवान, बुद्धिमान, निरोगी, स्वस्थ, यशस्वी होने की प्रार्थना करते हैं तो इसके लिए निश्चय ही हमें कुछ पात्रताओं को प्राप्त करना होगा। संसार में कुपात्र व पात्रता रहित लोगों को सिद्धियां प्राप्त नहीं होती है। ईश्वर से याचित प्रार्थनाओं की पूर्ति के लिए क्या पात्रता हो सकती है? इस पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि हमें अपने सभी दुष्ट कर्मों व स्वभावों को छोड़ना होगा। ईश्वर सभी दुष्ट गुणों, कर्मों व स्वभावों अर्थात् सभी दोषों से मुक्त है। हमें भी अपने सभी दोषों को दूर करना होगा तथा अपने गुण-कर्म-स्वभाव को ईश्वर के अनुरूप बनाना होगा। मनुष्य को अपने सभी दोषों को दूर करते हुए ईश्वर की उपासना, पुरुषार्थ तथा स्वाध्याय से उपासना में अपने सभी कर्मों व गुणों को ईश्वर को समर्पित करना होता है। समर्पण करने पर ईश्वर उपासक को उसकी पात्रता के अनुसार सभी प्रार्थनाओं को पूरा करता है। हम कृषि करते हैं। बीज के कुछ दानें बोते हैं। फसल होती है और हमने जितने दाने बोये होते हैं उससे कहीं अधिक परमात्मा हमें लौटा देता है। हमने ज्ञानपूर्वक सही दिशा में श्रम किया होता है जिसका परिणाम आशा के अनुरूप फल की प्राप्ति होता है। ऐसा ही हमें अपने उपासना व अध्यात्मिक जीवन में भी करना है। ऐसा करके हम ईश्वर की कृपा, दया व कामनाओं की पूर्ति, इष्ट सिद्धि आदि के पात्र बन जाते हैं तथा हमारी सभी शुभ व निर्दोष कामनायें सफल होती है। ऐसा उपासना करने वालों का अनुभव होता है। वेदों के स्वाध्याय करने से भी ऐसी ही प्रेरणायें प्राप्त होती हैं।

उपासना करने के लिये हमें ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि तथा आर्याभिविनय आदि को पूरा अथवा इनमें उपासना विषयक प्रकरणों को पढ़ना चाहिये। इसको पढ़ने से भी हमारी आत्मा का ज्ञान बढ़ता है तथा हमारी भावनायें ईश्वर की उपासना के प्रति प्रेरित व उत्साहित होती हैं। ऋषि दयानन्द ने उपासना के लिये सन्ध्या पद्धति भी लिखी है। यह सन्ध्या विधि पंचमहायज्ञविधि तथा संस्कार विधि के गृहस्थाश्रम प्रकरण में उपलब्ध है। इस विधि पर हमारे अनेक विद्वानों ने भाष्य लिखे हैं। कुछ विद्वान हैं पं. विश्वनाथ वेदापाध्याय, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं. चमूपति जी, स्वामी आत्मानन्द जी, स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती, स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती आदि। अनेक अन्य आर्य विद्वानों ने भी सन्ध्या पद्धति पर टीकायें लिखी हैं। इन सबको पढ़कर सन्ध्या करने पर विशेष लाभ प्राप्त होता है। सन्ध्या का उद्देश्य ईश्वर का ध्यान व उपासना करते हुए ब्रह्म साक्षात्कार करना होता है। सन्ध्या प्रतिदिन प्रातः व सायं एक एक घंटा करने का विधान है। इससे शारीरिक, आत्मा एवं सामाजिक सभी उन्नतियां प्राप्त होती हैं। सन्ध्या में नमस्कार से पूर्व समर्पण मन्त्र आता है जिसमें उपासक ईश्वर से प्रार्थना करता है कि ‘हे दयानिधे ईश्वर! आपकी कृपा से जप उपासना आदि जो-जो उत्तम काम हम लोग करते हैं, वह सब आप को समर्पित हैं। हमारे इन शुभ कर्मों से आप हमें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की सिद्धि व प्राप्ति शीघ्र कराईये।’ पूरी सन्ध्या एवं समर्पण की प्रार्थना ईश्वर को अपनी आत्मा के भीतर व बाहर विद्यमान जानकर व मानकर की जाती है। ईश्वर आत्मा के बाहर व भीतर दोनों स्थानों पर वस्तुतः व्यापक है। अतः दयालु व आनन्दस्वरूप परमात्मा उपासक की इस प्रार्थना को देखता, सुनता व जानता है तथा स्वीकार भी करता है। सन्ध्या व वेदमन्त्रों से ईश्वर से प्रार्थना करना निरर्थक नहीं अपितु प्रार्थना के अनुरूप उसकी सिद्धि होती है। इसी कारण से हमारे विद्वान ऋषियों ने प्रातः व सायं ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, ध्यान, चिन्तन, मनन, स्वाध्याय आदि का विधान किया है।

ईश्वर सत्य, चेतन एवं आनन्दस्वरूप सत्ता है। हमें अपनी रक्षा, ज्ञान, शक्ति व उन्नति के लिये ईश्वर की उपासना करनी ही होगी। नहीं करेंगे तो हम उपासना से होने वाले इन लाभों को प्राप्त नहीं हो पायेंगे। ईश्वर सभी मनुष्यों की बुद्धि को प्रेरित करें जिससे अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों की मनुष्यों को परस्पर एक दूसरे से दूर करने वाली प्रवृत्तियों समाप्त हो जायें और सब मनुष्य एक दूसरे को अपना मित्र, बन्धु, कुटुम्बी, भ्राता, भगिनी तथा अपने ईश्वर के परिवार का सदस्य समझें। सारे संसार में आनन्द का वातावरण हो। कहीं कोई रोग, शोक व भय आदि न हों। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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