एक स्वस्थ सद्भावपूर्ण जीवन के लिए मानवता को थोड़ा पीछे देखना भी जरूरी


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कोविड-19 की महामारी ने मनुष्य और प्रकृति के बिगड़े संबंध पर फिर ध्यान दिलाया है। मानव सभ्यता भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर बार-बार और आसानी से चोट खाती रही है। उन्नत विज्ञान और तकनीक इन चोटों से हमें बचाने में असमर्थ है। गत सौ वर्ष के महायुद्धों और हालिया दशकों में अंतहीन जिहादी हमलों ने भी यही दिखाया है। तब एक स्वस्थ और सद्भावपूर्ण जीवन के लिए मानवता को क्या करना चाहिए? इस पर विचार करने के लिए थोड़ा पीछे देखना भी जरूरी है। धरती पर कई युग आए और गए। हमारा ही युग सर्वश्रेष्ठ है, ऐसा कहना निराधार है। एक अदृश्य तुच्छ कण जैसे कोरोना वायरस के सामने हमारी असहायता इसका संकेत है।

तुलसीदास के जीवन-मरण विधि हाथ में यही चेतावनी थी। जीवन और प्राण अखंड हैं। सबके शक्ति-स्रोत एक हैं। कठोपनिषद् में इसे विस्तार से कहा गया है। सूर्य, अग्नि, वायु, इंद्र और मृत्यु जैसे देवता भी स्वतंत्र शक्ति नहीं रखते। सबकी शक्ति सबसे परे परब्रrा से आती है। जो निस्सीम और सर्वव्यापी है। संपूर्ण अस्तित्व अखंड है। उसके समक्ष हमें अपनी क्षुद्रता समझनी होगी। हमारे बड़े-बड़े सामूहिक कर्म-फल सामने आ रहे हैं। केवल तकनीक हमारे जीवन को बेहतर नहीं बना सकती। हमें प्रकृति के नियमों का सम्मान करना ही होगा। इसके लिए मानवता भारत की ज्ञान-परंपरा की ओर देखती रही है। यह हाल की सदियों में वाल्तेयर, मैक्स मूलर, टॉयनबी जैसे अनेक यूरोपीय मनीषियों ने भी बताया, लेकिन युवा पश्चिमी सभ्यता ने अपने उत्साह में अभी तक उस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। हम भारतीय भी उसे भूल से गए।मानव इतिहास में भारत की जीवन-शक्ति अतुलनीय रही है। प्रो. कपिल कपूर के अनुसार अब तक विश्व में कुल 46 सभ्यताएं बनीं, जिनमें एक मात्र हिंदू सभ्यता का अटूट अस्तित्व है। शेष सभी सभ्यताएं या तो काल के गाल में समा गईं या उनमें बहुत बड़ी खाई बनी। भारत में आज भी वही भाषा, वही साहित्य, अवधारणा, नाम, स्थान, परंपरा, ज्ञान और अनुभव उपयोग में हैं जो हजारों वर्ष पहले थे। वे अभी तक संग्रहालय की चीज नहीं बनी हैं। जैसा रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था, बहुत सी चीजों में महाभारत कालीन और वर्तमान भारत एक जैसा है। समानता के तत्व इतने साफ मिलते हैं।ऐसा विश्व की किसी अन्य सभ्यता में नहीं है। इस जीवंतता और सातत्य का कारण यह है कि भारतीय सभ्यता राजनीति, अर्थव्यवस्था या स्थान केंद्रित नहीं रही। इसका संपर्क संपूर्ण अस्तित्व और वृहतर चेतना से रहा है। उपनिषद इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उनमें मौजूद सत्य देश, काल या समाज की सीमाओं से परे सार्वभौमिक प्रतीत होते हैं। उसी की सरल प्रस्तुति गीता में है। एशिया, यूरोप, अरब और अमेरिका के भिन्न-भिन्न ज्ञानियों ने भी इसे नोट किया है। भारत आदि काल से विश्व सभ्यता के लिए एक ज्ञान-स्रोत है। योग और आयुर्वेद मंत्र को ऐसा उपकरण मानते हैं जिससे उद्वेलित मन शांत होकर समाधि स्तर को छू सकता है।हम आज तकनीकी के युग में जी रहे हैं, लेकिन हमारी मूल शक्ति, हमारा विवेक, आंतरिक चेतना में है, न कि किसी बाहरी हुनर पर। बाहरी हुनर का महत्व है, किंतु सीमित। जबकि चेतना अपनी आंतरिक, देवात्म शक्ति से चलती है। इसकी बुनावट या गति किसी बाह्य उपकरण पर निर्भर नहीं है। आधुनिक योगियों ने इसी को आंतरिक योग कहा है। अब हमें ऐसे नए योगियों की चाह करनी चाहिए जो तकनीक को सार्वभौमिक चेतना से निर्देशित करने में हमारी सहायता कर सकें। केवल सूचनाओं का भंडार दिमाग में भर लेने से हम कहीं नहीं पहुंचते। सूचना प्रौद्योगिकी की उपयोगिता के साथ इस सत्य के प्रति भी सजग होना आवश्यक है। हमारे संपूर्ण कर्मो का सामंजस्य प्रकृति और मूल सत्ता के साथ होना चाहिए। मनुष्य का स्वास्थ्य भी इस सामंजस्य पर निर्भर है। योग और आयुर्वेद हमारी आंतरिक ऊर्जा को संतुलित करते हैं। रोगों से बचने, लड़ने में शक्ति देते हैं।आधुनिक दवाएं वायरस, बैक्टीरिया को तत्काल नष्ट करने का प्रयत्न करती हैं। इसमें कई अनपेक्षित परिणाम भी साथ ही देती हैं, जिसे साइड-इफेक्ट कहते हैं। उसके उपचार के लिए अन्य दवा ली जाती है। इस तरह लोग दवाओं पर अत्यधिक निर्भर हो जाते हैं। इसी कारण अमेरिकी, यूरोपीय लोगों की सहज रोग-निवारक क्षमता यानी इम्यूनिटी कम हुई है। प्राणायाम के संबंध में स्वामी रामदेव का यह दावा वृथा नहीं है कि नियमित प्राणायाम करने वाले कोरोना से मुक्त रहेंगे या उससे बच निकल आएंगे। प्राणायाम से हमारा श्वसन-तंत्र विशेषत: सशक्त होता है। प्राणायाम को मात्र व्यायाम समझ कर ग्रहण करने वालों को भी लाभ होता है। इसी कारण सऊदी अरब की सरकार ने भी इसके प्रथम भाग की शिक्षा देना स्वीकार किया है।वस्तुत: योग-आयुर्वेद मानवता में हिंदू-मुसलमान, नास्तिक-आस्तिक या धनी-गरीब के साथ भेद-भाव नहीं करता। जो चाहे इसकी अनूठी शक्ति आजमा सकते हैं। छूत के रोग रोकने के लिए वैक्सीन जरूरी है, किंतु संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए संतुलित जीवन, संतुलित आहार-व्यवहार, अच्छी आदतें और प्रकृति में स्थित मूल प्राण से स्वयं को जोड़ना आवश्यक है। योग-आयुर्वेद में प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य पुनस्र्थापित करने और शारीरिक-मानसिक रोग-निरोधक शक्ति बढ़ाने की क्षमता है। यह कोरोना बाद के युग में एक मूल्यवान सबक हो सकता है। हमें अपने आंतरिक और बाह्य पर्यावरण के बीच संतुलन पुन: बनाना होगा, जो सदियों से बहुत से समाजों में टूटा हुआ सा रहा है। हिंदू धर्म इसका मार्ग दिखाता है। मानवता को एक नई, भारतीय अर्थो वाली धर्म-सभ्यता की आवश्यकता है।- डॉ. शंकर शरण (१५ मई २०२०)https://m.jagran.com

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