‘विभूति शब्द की व्याख्या’ : राही तू आनंद लोक का

vijender-singh-arya111गीता के दसवें अध्याय का 16वां श्लोक-पृष्ठ 692 दिव्या आत्मविभूतय:, अर्थात भगवान कृष्ण यहां अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं, हे पार्थ! विभूतियों को दिव्या कहने का तात्पर्य है कि संसार में जो कुछ विशेषता दिखायी देती है, वह मूल में दिव्य परमात्मा की ही है, संसार की नही। अत: संसार की विशेषता देखना भोग है और परमात्मा की विशेषता देखना योग है, विभूति है।
दसवां अध्याय, पृष्ठ 694, हे अर्जुन! जिस किसी वस्तु व्यक्ति, विचार, घटना परिस्थिति में कोई विशेषता दिखायी देती है, वह भगवान की ही है, इसे ही-विभूति कहते हैं। दसवें अध्याय का पृष्ठ-677, विभूति नाम भगवान के ऐश्वर्य का है। उपरोक्त विश्लेषण का सारांश यह है कि सृष्टि में जहां कहीं भी जड़, चेतन में कोई विशेषता दिखायी देती है, वह अपने आप में भगवान का ऐश्वर्य है, भगवान की विभूति है। अपनी विशेषता (विभूति) के संदर्भ में भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए गीता के सातवें अध्याय में पृष्ठ 470 पर कहते हैं-जल में रस, चंद्र और सूर्य में प्रभा मैं हूं। समस्त भूतों का सनातन (अविनाशी) बीज मैं हूं। सात्विक, राजस, तामस भाव मेरे से ही होते हैं। ये मेरे में हैं किंतु मैं इनमें नही हूं। तात्पर्य यह है कि उन गुणों की मेरे सिवाय कोई स्वतंत्र सत्ता नही है। ये सात्विक, राजस, तामस जितने भी प्राकृत पदार्थ और क्रियाएं हैं वे सबके सब उत्पन्न और नष्ट होते हैं परंतु मैं उत्पन्न भी नही होता और न ही नष्ट होता हूं। अगर मैं उनमें होता तो उनका नाश होने पर मेरा भी नाश हो जाता, परंतु मेरा कभी नाश नही होता इसलिए मैं उनमें नही हूं। अगर वे मेरे में होते तो मैं जैसे अविनाशी हूं वैसे वे भी अविनाशी होते, परंतु वे नष्ट होते हैं और मैं सदा रहता हूं इसलिए वे मेरे मन में नही हैं।
जैसे बादल आकाश से ही उत्पन्न होते हैं, आकाश में ही रहते हैं और आकाश में ही लीन हो जाते हैं परंतु आकाश ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है। ऐसे ही सातवें अध्याय में आठवें श्लोक से लेकर 12वें श्लोक तक जो सत्रह विभूति बतायी गयी हैं वे सब मेरे से ही उत्पन्न होती हैं, मेरे में ही रहती हैं, और मेरे में ही लीन हो जाती हैं, परंतु वे मेरे में नही हैं और मैं उनसे नही हूं। मेरे सिवाय उनकी स्वतंत्र सत्ता नही है। अत: इस दृष्टिï से सब कुछ मैं ही हूं। अब उन सत्रह विभूतियों पर दृष्टि डालें-
1.मैं संपूर्ण संसार का कारण हूं। मेरे से ही संसार की उत्पत्ति होती है। ऐसा समझकर बुद्घिमान मनुष्य मेरा भजन करते हैं। गीता के सातवें अध्याय के छठे श्लोक में-प्रभव: और प्रलय दो शब्दों की व्याख्या करते हुए तथा अर्जुन को समझाते हुए भगवान कृष्ण कहते हैं :-
प्रभव: का तात्पर्य है कि मैं ही इस जगत का निमित्त कारण हूं। क्योंकि संपूर्ण सृष्टि मेरे संकल्प से पैदा हुई है। इसी संदर्भ में यदि देखना चाहें तो छान्दोग्य उपनिषद में श्लोक देखें 6/2/3 जैसे घड़ा बनाने में कुम्हार और सोने के आभूषण बनाने में सुनार भी निमित्त कारण है, ऐसे ही संसार मात्र की उत्पत्ति में भगवान ही निमित्त कारण हैं।
प्रलय: कहने का तात्पर्य है कि इस जगत का उपादान कारण भी मैं ही हूं। क्योंकि कार्य मात्र उपादान कारण से उत्पन्न होता है, उपादान कारण रूप से ही रहता है, और अंत में उपादान कारण में लीन हो जाता है जैसे-घड़ा बनाने में मिट्टी उपादान कारण है, ऐसे ही सृष्टि बनाने में भगवान भी उपादान कारण है जैसे घड़ा मिट्टी से ही उत्पन्न होता है, मिट्टी का ही रूप रहा है और अंत में टूटकर या घिस-घिस कर मिट्टी में लीन हो जाता है। दूसरा उदाहरण-सोने के आभूषण, सोने से उत्पन्न होते हैं, सोने का ही रूप रहते हैं, और अंत में सोना ही रह जाते हैं।
ठीक इसी प्रकार यह संसार भगवान से उत्पन्न होता है, भगवान में ही रहता है और अंत में भगवान में ही लीन हो जाता है। इसी संदर्भ में सातवें अध्याय के सातवें श्लोक में पृष्ठ-485 पर अर्जुन को समझाते हुए भगवान कृष्ण कहते हैं: हे अर्जुन! मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नही मैं ही सब संसार का महाकारण हूं। जैसे वायु आकाश से उत्पन्न होती है, आकाश में ही लीन हो जाती है अर्थात आकाश के सिचाय वायु की कोई पृथक स्वतंत्र सत्ता नही है। ऐसे ही संसार भगवान से उत्पन्न होता है, भगवान में स्थित रहता है अर्थात भगवान ही उसे धारण किये हुए है, और भगवान में ही लीन हो जाता है। अर्थात भगवान के सिवाय संसार की कोई पृथक स्वतंत्र सत्ता नही है।
अपनी विभूति का बयान करते हुए गीता के सातवें अध्याय के पृष्ठ-487 पर भगवान कृष्ण कहते हैं: ‘इसो अहम्प्सु कौन्तेय’ हे कुंतीनंदन!
2. जलों में, मैं रस हूं।
3. प्रभास्मि शशिसूर्ययो:-चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश करने की जो एक विलक्षण शक्ति प्रभाव है, वह मेरा स्वरूप है, मेरी विभूति है।
4. प्रणव: सर्ववेदेषु संपूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार) मेरा स्वरूप है, मेरी विभूति है।
कारण-सबसे पहले प्रणव प्रकट हुआ। प्रणव से त्रिपदा गायत्री और त्रिपदा गायत्री से वेदत्रयी प्रकट हुई। इसलिए वेदों का सार प्रणव ही रहा अगर वेदों में से प्रणव निकाल दिया जाए तो वेद वेद रूप में नही रहेंगे। प्रणव ही वेद और गायत्री रूप से प्रकट हो रहा है।
5. ‘शब्द रवे’ से तात्पर्य है, सब जगह यह जो पोलाहट (खालीपन) दिखती है, यह आकाश है, यह भी मेरा स्वरूप है-शब्द आकाश तन्मात्रा से पैदा होता है, शब्द-तन्मात्रा में ही रहता है और अंत में शब्द तन्मात्रा में लीन हो जाता है। अत: शब्द तन्मात्रा ही आकाश रूप से प्रकट हो रही है। शब्द-तन्मात्रा के बिना आकाश कुछ नही है। वह शब्द मैं ही हूं।
6. ‘पौरूषं नृषु’ मनुष्यों में सार चीज पुरूषार्थ (उत्साह) है, वह मेरा स्वरूप है।
क्रमश:

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