कोरोना के संकट काल में स्वदेशी की प्रासंगिकता
✍दुलीचंद कालीरमनआज कोरोना के कारण पश्चिम के अमेरिका, स्पेन, इटली, ब्रिटेन जैसे विकसित देश अपने नागरिकों के मृत्यु के आंकड़ों को कम नहीं कर पा रहे हैं। ये वही देश है जिनकी चिकित्सा सुविधाएं विश्व में सबसे बेहतर मानी जाती हैं। ऐसे में भारत की 130 करोड़आबादी अपनी सीमित चिकित्सा सुविधाओं के साथ इस कोरोना की महामारी का कैसे सामना कर पा रही है? दुनिया इसे आश्चर्य से देख रही है।विश्व का भारतीय जीवन शैली, योग, आयुर्वेद की तरफ देखने का नजरिया बदलने लगा है। पश्चिम के मांसाहारी जीवनशैली के लोग जो शाकाहार को घास-फूस कहकर कमतर आंकते थे, वे आज उसकी प्रासंगिकता पर फिर से विचार कर रहे हैं। भारतीयों की रोग प्रतिरोधक क्षमता में भारतीय जीवनशैली का बड़ा योगदान है। खाना बनाने की विधियों जिसमें मसालों के औषधीय गुण, स्वच्छता तथा भोजन के प्रति नजरिया ही इसे विशेष बनाता है।आज आजादी के 73 वर्ष के बाद जब देश कोरोना संकट के मुहाने पर खड़ा है, तो हमें अपनी चिकित्सा तैयारियों को जांचने का समय आ गया है। आज हकीकत यह है कि हम औषधि निर्माण में विश्व में अहम स्थान रखते हैं, लेकिन औषधियों के निर्माण में प्रयोग होने वाले कच्चे माल व रसायनों के मामले में पूर्णतया चीन पर निर्भर हैं। देश वेंटिलेटर की कमी से जूझ रहा है। हम वेंटिलेटर बना सकते हैं लेकिन उसके निर्माण के लिए जरूरी सेंसर, चिप तथा माइक्रो कंट्रोलर के मामले में पूर्णतय चीन पर निर्भरता है।चीन के वुहान से पैदा हुआ कोरोना वायरस पूरी दुनिया में फैल गया है। अमेरिका के राष्ट्रपति ने शुरुआती दिनों में एक दो बार इसे “चीनी वायरस” तथा “वुहान वायरस” कहकर चीन को बैकफुट पर लाने की कोशिश की थी। लेकिन जब कोरोना का कहर अमेरिका में फैलने लगा तो अमेरिका का सारा अहंकार धरा का धरा रह गया। उसके चीन के प्रति लहजे में जमीन आसमान का परिवर्तन आ गया। इसका कारण न्यूयॉर्क के गवर्नर एंड्रयू कुओमो की बेचारगी में दिख जाता है। जिसमें वे कहते हैं कि “हमें मेडिकल उपकरणों की आपूर्ति की सख्त जरूरत है। ऐसी स्थिति बन गई है कि खरीदने वाली संस्थाएं सैकड़ों हैं, लेकिन आपूर्तिकर्ता एक है वह है सिर्फ -चीन। हम कीमतों के बारे में आपस में ही प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। जिन उपकरणों की कीमत पहले बीस हज़ार डॉलर थी अब वह पचास हज़ार डॉलर में मिल रही है”।यह हाल सिर्फ अमेरिका का ही नहीं है। बल्कि भारत में भी वेंटिलेटर की बहुत कमी है। केंद्र सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई ‘भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड’ को वेंटिलेटर बनाने के आदेश दिए हैं। वेंटिलेटर बनाने वाली एक निजी भारतीय कंपनी एजीवीए हेल्थकेयर के सह संस्थापक प्रोफेसर दिवाकर वैश का कहना है कि हम सरकार को स्वदेशी वेंटिलेटर आयात किए गए वेंटिलेटर की कीमत से एक चौथाई कीमत पर उपलब्ध करा सकते हैं लेकिन उसके लिए जरूरी सेंसर, चिप और माइक्रो कंट्रोलर की आपूर्ति चीन से नहीं हो रही है। क्योंकि चीन ने अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर रोक लगा रखी है।यही हाल कोरोना की टेस्टिंग किट के मामले में भी समझा जा सकता है। वह किट जो विदेशों से ₹4500 की आती है, उसी किट को पुणे की एक स्वदेशी कंपनी ‘माइलैब लाइफ साइंसेज’ ने महज ₹1200 में उपलब्ध कराने का अनुबंध किया है। कंपनी की मुख्य अनुसंधान व विकास अधिकारी मीनल भोंसले अपने प्रसव के आखिरी दिनों तक इस कोविड-19 टेस्टिंग किट के प्रोजेक्ट पर काम करती रही थी। मायलैब कंपनी के कार्यकारी निदेशक शैलेंद्र कावड़े का कहना है कि उनकी इस टेस्टिंग किट से 100 लोगों का टेस्ट एक साथ किया जा सकता है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि केंद्र सरकार ने टेस्ट किट की अधिकतम उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए जिन 16 कंपनियों का चयन किया है, उनमें से सात कंपनियां चीनी है। भारत का चिकित्सा उपकरण बाजार 10 बिलियन डॉलर का है। जिसमें से 60% चीन से आयात होता है। क्या 130 करोड़ की आबादी की चिकित्सा जरूरतों के लिए हमें अपनी नीतियों पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?चीन की भोगवादी संस्कृति तथा प्रकृति के साथ अमर्यादित व्यवहार के परिणाम स्वरूप वजूद में आए इस “चीनी वायरस” से पूरा विश्व संकट काल से गुजर रहा है। जबकि चीन की सरकार तथा वहां की कंपनियां पूरे विश्व में चिकित्सा सामग्री, उपकरण तथा डॉक्टरों व नर्सों के लिए प्रोटेक्शन किट मनमाने दामों पर उपलब्ध करवा रही हैं तथा मोटा मुनाफा कमा रही हैं।क्या भारत के नीति निर्माताओं को भारत की शक्तियों का आभास नहीं है? वह भारत जिसके डॉक्टर पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। जहां के वैज्ञानिकों ने मंगलयान तथा चंद्रयान तक बना लिए हो। जहां के वैज्ञानिक व इंजीनियर एक ही राकेट से 104 सैटेलाइट अंतरिक्ष में लांच कर सकने की क्षमता रखते हो। नीति निर्माताओं को ऐसे इंजीनियरों तथा वैज्ञानिकों पर विश्वास दिखाना होगा ताकि भारत को संकट की घड़ी में किसी के मुंह की तरफ न ताकना पड़े। क्योंकि स्वदेशी का दूसरा नाम स्वावलंबन भी है। पहले जो स्वदेशी की विचारधारा को मध्ययुगीन विचारधारा कहकर नकारते थे, वे भी आज के दौर में इसकी प्रासंगिकता के बारे में विचार करने और अपनाने के हिमायती बनते दिख रहे हैं।यही समय है जब हमें स्वदेशी की ओर लौटना होगा। विकास की अंधी दौड़ में भाग लेने की बजाय हमें अपनी नीतियों तथा प्राथमिकताओं को दोबारा से तय करना होगा। पूंजीवाद और साम्यवाद का चरम देख चुका विश्व अब भारतीय संस्कृति के अनुरूप तीसरे विकल्प पर विचार कर रहा है।
✍दुलीचंद कालीरमन
118/22, कर्ण विहार ,करनाल (हरियाणा)
9468409948