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COVID – 19 पैरोल

कोरोनोवायरस के प्रसार को रोकने के लिये उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्यों से जेलों में भीड़ कम करने के आदेश के बाद दिल्ली, असम, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं अन्य राज्यों ने कैदियों को पैरोल पर रिहा करना शुरू कर दिया है। इनमें सात वर्ष या उससे कम की सजा पाने वाले अपराधी शामिल हैं।

दिल्ली में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति द्वारा जमानत मानदंडों में छूट के कारण तिहाड़ जेल के 400 से अधिक कैदियों को रिहा किया गया है जबकि उत्तर प्रदेश ने 11,000 कैदियों को जमानत दी है।
मुख्य बिंदु:

उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़ों का जिक्र करते हुये अपने आदेश में कहा है कि देश में 1339 जेलों में करीब 466084 कैदी हैं जो जेलों की क्षमता की तुलना में 117.6% अधिक है।
उल्लेखनीय है कि संप्रग सरकार के दौरान वर्ष 2010 में तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने जेलों में कैदियों की भीड़ कम करने के उद्देश्य से छोटे मोटे अपराध के आरोपों में बंद विचाराधीन कैदियों को पैरोल/जमानत पर रिहा करने का कार्यक्रम शुरू किया था।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436A:

इसके तहत अगर कोई कैदी अपने कथित अपराध के लिये कानून में निर्धारित सजा की आधी अवधि पूरी कर चुका हो तो उसे जमानत या पैरोल पर रिहा किया जा सकता है। हालाँकि यह लाभ उन विचाराधीन कैदियों को नहीं मिल सकता जिनके खिलाफ किसी ऐसे अपराध में लिप्त होने का आरोप है जिनमें मौत की सजा का प्रावधान है या फिर कोई अन्य स्पष्ट प्रावधान किया गया हो।
जेलों में अंडरट्रायल कैदियों की क्षमता से अधिक संख्या:

गौरतलब है कि दिल्ली की तिहाड़ जेल और संभवतः पूरे भारत में लगभग 82% कैदी अंडरट्रायल हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है कि ये कैदी सात वर्ष से कम उम्र की सजा के स्वीकृत न्यायशास्त्र के तहत आते हैं तथा गैर-जघन्य माने जाने वाले शारीरिक नुकसान में सम्मिलित होते हैं।
वर्तमान में जेल प्रशासन के सामने एक बड़ी चुनौती न्यायपालिका की मदद से अंडरट्रायल कैदियों की संख्या को कम करना है। जिसके लिये निम्नलिखित कदम उठाये जा रहे हैं-
भीड़ को कम करने के लिये नई जेलों का निर्माण किया जा रहा है।
न्यायालय के समक्ष अंडरट्रायल के तहत उचित समय पर उपस्थिति दर्ज करना जिससे कैदी की गैर मौजूदगी के कारण मुकदमा अधिक समय न ले।
नाबालिग अपराधों के निपटान के लिये तिहाड़ कोर्ट परिसर में विशेष अदालतों का नियमित रूप से आयोजन किया जा रहा है जहाँ प्रत्येक तीसरे शनिवार को अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने अपना अपराध कबूल करना होता है।
गंभीर रूप से बीमार कैदियों के मामले को कानून के अनुसार जमानत पर रिहा करने के लिये ट्रायल कोर्ट का सहारा लिया जा रहा है।
जेल अधीक्षकों को यह सुनिश्चित करने के दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं कि रिहाई वारंट के संदर्भ में मामले में त्रुटि के कारण किसी भी कैदी को कर्मचारियों द्वारा अनावश्यक रूप से हिरासत में नहीं लिया जाए।
वहीं दोषियों के संदर्भ में एक से छह महीने के भीतर सजा देने के कार्यकारी विशेषाधिकार सिद्धांत का पालन किया जा रहा है।
यह एक मानक एवं संतुलित दृष्टिकोण को दर्शाता है, ये दोनों दृष्टिकोण अपराध से निपटने तथा कोरोनावायरस महामारी के प्रसार को रोकने की आवश्यकता पर बल देते हैं।
हालाँकि दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार किया गया तथ्य जमानत पर रिहा होने वाले कैदियों की ट्रैकिंग पर सवाल खड़ा करता है। जहाँ अधिकांश कैदी अपनी जमानत शर्तों का पालन करेंगे और नियमित रूप से स्थानीय पुलिस स्टेशनों में रिपोर्ट करेंगे वहीं कुछ ऐसे भी होंगे जो जमानत शर्तों का पालन एवं स्थानीय पुलिस स्टेशन में रिपोर्टिंग नहीं करेंगे।
कैदियों की रिहाई एवं उनकी ट्रैकिंग:

सामान्य परिस्थितियों में भी पुलिस एवं जेल अधिकारियों के पास पैरोल पर छूटे या जमानत पर छूटे कैदियों को ट्रैक करने का कोई कारण एवं नियम नहीं है क्योंकि उन्हें ट्रैक करना असंभव है।
कैदियों का यह कानूनी दायित्व होता है कि वे जमानत/पैरोल की शर्तों का पालन करें। जिसके तहत उन्हें रिहा किया जा रहा है इसलिये कानून के अनुसार कार्य करने की ज़िम्मेदारी पूरी तरह उन पर निर्भर है।
यदि इन शर्तों का किसी भी प्रकार से उल्लंघन होता है तो रिलीज ऑर्डर को सीधे रद्द किया जा सकता है और यह भविष्य में व्यक्ति के खिलाफ जमानत से इनकार करने का एक बिंदु बन सकता है।
प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स-2018 (Prison Statistics-2018) रिपोर्ट

केंद्रीय गृह मंत्रालय (Ministry of Home Affairs) के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau- NCRB) द्वारा जारी इस रिपोर्ट के अनुसार, पैरोल पर रिहा किये गए 31297 कैदियों में फरार होने वालों की संख्या मात्र 343 (1.1%) थी। जबकि पुलिस इनमें से 150 को गिरफ्तार करने में सफल रही।
रिपोर्ट बताती है कि जेल के लगभग 99% कैदी पैरोल की शर्तों का पालन करते हैं। इसके अलावा पुलिस प्रशासन कुछ शेष फरार लोगों को ट्रैक करने के लिये सक्षम है।
कैदियों की ट्रैकिंग करने के लिये तकनीक का सहारा:

कैदियों की ट्रैकिंग तथा नियमित अंतराल पर स्थानीय पुलिस स्टेशनों में रिपोर्ट करने के लिये तकनीक का सहारा लिया जा सकता है जिससे उनकी वर्तमान गतिविधियों की रिपोर्ट स्थानीय थाने में दर्ज हो सके और सुनिश्चित हो सके कि आत्म-निगरानी में रहते हुए उन पर दबाव बना रहें जिससे वे अपराध-मुक्त रहें एवं शांति बनाए रखें।
COVID-19 के सामुदायिक प्रसार को रोकना:

COVID-19 महामारी के दौरान जेल में बंद कैदियों को रिहा करना चिकित्सकीय दृष्टिकोण से एक सकारात्मक कदम है क्योंकि प्रवासी श्रमिकों के संकेंद्रण के विपरीत कैदियों में अलगाव भारत में COVID-19 के सामुदायिक प्रसार को रोकने में अहम भूमिका निभायेगा।
जेलों का क्वारंटाइन वार्ड में परिवर्तन:

पैरोल/जमानत पर छोड़े गए कैदियों के बाद जेलों में मुक्त हुए स्थान को जघन्य अपराधों की श्रेणी में आने वाले कैदियों के लिये सुरक्षित क्वारंटाइन वार्ड के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। और COVID-19 के सामुदायिक प्रसार के खतरे को भी कम किया जा सकता है।
निष्कर्ष:

इस समय देश में 21 दिनों का लॉकडाउन चल रहा है और सरकारी मशीनरी का एक बड़ा हिस्सा इसे लागू करने एवं क्वारंटाइन करने के उपायों में व्यस्त है परिणामतः नागरिकों की गतिविधियाँ पहले से ही प्रतिबंधित है। लाकडाउन से संबंधित उपाय छोड़े गए कैदियों की गतिविधियों एवं उनके व्यवहार को ट्रैक करने में सहायता कर सकते हैं।
ऐसी स्थिति में जहाँ पूरा समाज भय के अधीन रह रहा है वहाँ सरकार से कैदियों के मौलिक अधिकारों के प्रति ऐसा निर्णय एवं उच्च नैतिक मूल्य की उम्मीद की जाती है।
स्रोत: द प्रिंट

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