अश्वमेधादिक रचाए यज्ञ पर उपकार को , भाग 4 – अध्याय 5

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सत्य को अपनाएं

हमारी संस्कृति कहती है-‘‘मिथ्या को छोड़ें और सत्य को अपनायें। सरल रहें , अभिमान न करें। स्तुति करें-निंदा न करें। नीचे आसन पर बैठें-ऊंचे न बैठें। शांत रहें, चपलता न करें। आचार्य की ताडऩा पर प्रसन्न रहें, क्रोध कभी न करें। जब कुछ वे पूछें तो हाथ जोडक़र नम्रता के साथ उत्तर देवें, घमण्ड से न बोलें। जब वे शिक्षा करें, चित्त देकर सुनें फट्टे में न उड़ावें। शरीर और वस्त्र शुद्घ रखें मैले कभी न रखें। जो कुछ प्रतिज्ञा करें, उसको पूरी करें। जितेन्द्रिय होवें। लम्पटपन और व्याभिचार कभी न करें। उत्तमों का सदा मान करें, अपमान कभी न करें।’’

यज्ञादि के प्रति श्रद्घाभावना से व्यक्ति के भीतर ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास में वृद्घि होती है। यज्ञप्रेमी व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ा रहता है और वह विषय से विषम परिस्थिति में भी यह मानकर चलता है कि ईश्वर कोई न कोई रास्ता अवश्य सिखाएंगे और मैं इन विषमताओं से शीघ्र ही मुक्त हो जाऊंगा। व्यक्ति के भीतर आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए कोई कैप्सूल या टेबलेट आविष्कार नही की गयी, इसका स्तर केवल ईश्वर के प्रति भक्ति भावना को बढ़ाने से ही बढ़ता है। जैसे जैसे हम उस अदृश्य परम सत्ता के निकट होने की अनुभूति करते जाते हैं, वैसे-वैसे ही हमें अपने भीतर ही ऐसे परिवर्तन की अनुभूति होती जाती है कि जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है, लेखनी से लिखा नही जा सकता।.

इस प्रकार यज्ञादि को चाहे हम परोपकार के लिए ही करें, पर उसका अंतिम और वास्तविक लाभ तो हमें ही मिलता है। इस अध्याय के शीर्षक में ‘पर-उपकार’ शब्द रखा गया है। जिसको रखने का अभिप्राय यही है कि हमारी प्रार्थना में परोपकार हो, हमारे चिंतन में परोपकार हो क्योंकि हमारी परोपकारी भावना के रहने से हमारी स्वयं की उन्नति तो अपने आप ही हो जाएगी, साथ ही दूसरों के काम आने से हमारा यह नरतन भी स्वयं ही सफल हो जाएगा। ईश्वर का प्रत्येक कार्य जिस प्रकार प्राणिमात्र के कल्याण के लिए हो रहा है, उसी प्रकार यदि प्रत्येक मानव का जीवन भी प्राणिमात्र के कल्याण के लिए रत हो जाए तो यह संसार स्वयं ही स्वर्ग बन जाएगा। संसार में सर्वत्र ‘इदन्न् मम्’ की ध्वनि हो रही है, प्रकृति का क ण-कण भी यही कह रहा है कि मेरे पास जो कुछ भी है वह मेरे लिए नही है, अपितु वह पर कल्याण के लिए है, परोपकार के लिए है, तब हमारे लिए भी उचित यही होगा, कि हम भी दूसरों के काम आना सीखें।

किसी कवि ने कितना सुंदर कहा है-

‘‘किसी के काम जो आए, उसे इन्सान कहते हैं।

पराया दर्द जो अपनाये,इसे इन्सान कहते हैं।।’’

एक वैद्य स्वर्णभस्म बनाने के लिए सोने को बार-बार आग में डाल रहे थे। आग ने सहानुभूति प्रकट करते हुए सोने से कहा-‘‘कितना निर्मम और क्रूर है यह वैद्य। तुम्हारे जैसी मूल्यवान धातु को भी जलाकर राख कर रहा है।’’

सोने ने ऐसा सुनकर बड़े सहजभाव से कहा-‘‘यह तो प्रसन्नता की बात है। मृत्यु तो निश्चित है ही, पर यदि हम मर कर भी दूसरों के काम आ सकें, उनका कुछ हित कर सकें, तो वह मृत्यु भी श्रेयस्कर है।’’

लोग अक्सर सोने का जीवन होने की बात कहते हैं पर यह नही जानते कि ‘सोने में जीवन’ का अर्थ क्या है? यही कि हमारा जीवन ऐसा बन जाए जो स्वयं तपा तपाया हो और दूसरों के जीवन का श्रंगार बन जाए-उनका आभूषण बन जाए उन्हें सुभूषित करने वाला बन जाए। हमारी उपस्थिति मात्र से दूसरों को लगे कि यदि ये हैं तो मेरे साथ कोई अन्याय नही होगा। जब भी कहीं किसी सभा में, पंचायत में या किसी भी ऐसे स्थान पर जहां लोग किसी व्यक्ति का अधिकार छीन रहे हों, वहां हमें न्याय का पक्ष लेना चाहिए। न्याय करते समय भूलकर भी क्रोध, विरोध, प्रतिशोध और प्रतिरोध का भाव हमारे विचारों को छू तक भी न जाए। यदि हमारी ऐसी न्यायपूर्ण भूमिका रहेगा तो हमारा जीवन स्वयं ही परोपकारी और तपस्वी बनता जाएगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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