मातृभूमि की स्वतंत्रता के हितार्थ किया पन्ना ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान

मैं संन्यासी हूं तो क्या हुआ?

बात 1957 की है। आर्य समाजी नेता महाशय कृष्ण धर्मशाला की कारागार में बंदी का जीवन यापन कर रहे थे। उनके सुपुत्र वीरेन्द्र और महात्मा आनंद स्वामीजी भी उन्हीं के साथ बंदी बनाकर रखे गये थे। महाशय कृष्ण अब वृद्घ हो चले थे, इसलिए कोई न कोई व्याधि उनका पीछा करती रहती थी। कई बार रात्रि में अच्छी नींद नही आती थी, शरीर में कहीं न कहीं पीड़ा होती रहती थी। पुत्र वीरेन्द्र को कई बार गहरी नींद आती तो पिता की पीड़ा का ध्यान नही रह पाता था।

एक बार महाशय जी रात्रि में पीड़ा से व्याकुल थे। वीरेन्द्र सो गया था, इसलिए उसे पता ही नही था कि पिता दुखी हैं या सुखी हैं। पर महात्मा आनंद स्वामी जी अभी जागते थे, उन्होंने महाशय जी की व्याकुलता को समझा और चुपचाप उनके पैर दबाने लगे। जिससे महाशय जी को कुछ चैन आने लगा। वह सोच रहे थे कि संभवत: तेरा पुत्र ही यह सेवा कर रहा है।

सारी रात स्वामी जी महाशय जी की सेवा करते रहे। जब महाशय जी ने प्रात:काल उन्हें देखा तो वह आश्चर्य चकित रह गये और अपने पैर सिकोडक़र स्वामी जी से पैर दबाने को मना करते हुए कहने लगे कि आप मुझे क्यों भार में लाद रहे हैं, आप संन्यासी हैं और मैं एक गृहस्थी हूं आप ऐसा मत करो।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि ‘मैं संन्यासी हूं तो क्या हुआ? मेरा कत्र्तव्य भी बनता है कि मैं आपकी सेवा करूं। आप हमारे बड़े हैं, और मैं आपसे आयु में छोटा हूं। इसलिए मेरा कत्र्तव्य है कि मैं आपको सेवा करूं।’

ये आदर्श है भारतीय संस्कृति का, जिसमें एक तपस्वी संन्यासी भी कत्र्तव्य से इतना अभिभूत है कि अपने एक गृहस्थी साथी को पीड़ा में देखकर उसके ही पैर दबाने लगता है। बस, सेवा के इसी कत्र्तव्य पथ पर पन्ना गूजरी आगे बढ़ रही थी।

महत्वाकांक्षी बनवीर

बनवीर दासी पुत्र होकर भी महत्वाकांक्षी था। वह दरबार में राजकीय सम्मान को प्राप्त करने का इच्छुक रहता था, राणा संग्राम के अन्य पुत्रों से उसे द्वेष भी था कि मुझे इन जैसा ही सम्मान क्यों नही दिया जाता। राणा संग्रामसिंह ने अपनी मृत्यु से पूर्व ही जोधपुर की राजकुमारी से उत्पन्न अपने पुत्र रतनसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। इससे भी बनवीर का द्वेषभाव और प्रबल हो गया था। रतनसिंह जब शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया तो बनवीर को कुछ संतोष हुआ, पर यह संतोष मिश्रित प्रसन्नता अधिक समय तक स्थिर न रह सकी, क्योंकि परंपरा के अनुसार मेवाड़ के सरदारों ने राणा रतनसिंह का उत्तराधिकारी राणा संग्रामसिंह की रानी कर्मवती के पुत्र विक्रमाजीत को घोषित कर दिया। राणा रतनसिंह के काल में राणी कर्मवती अपने दोनों पुत्रों विक्रमाजीत और उदयसिंह के साथ रणथंभौर की जागीर से प्राप्त आय से अपना जीवन यापन करती रही थी। बनवीर को ये जागीर भी सदा चुभती रही थी, पर राणी कर्मवती की शक्ति के भय से वह चुप रहा। वैसे राणा रतनसिंह भी राणी के प्रति सशंकित रहता था कि कहीं वह इस दुर्ग पर अधिकार ही न कर बैठे।

अत: इस प्रकार रणथंभौर को लेकर एक ही समय में कई लोगों की महत्वाकांक्षाएं झूले ले रही थीं-एक तो राणा रतन सिंह उसे राणी के प्रभाव में नही रहने देना चाहता था, दूसरे-राणी कर्मवती रणथंभौर को आधार बनाकर मेवाड़ को अपने पुत्र विक्रम के लिए प्राप्त करना चाहती थी।

इसके लिए उस पर आरोप है कि उसने एक बार बाबर से भी अपने लोगों के माध्यम से वार्ता की थी, पर उसकी इस योजना को कुछ प्रभावशाली लोगों ने सिरे नही चढऩे दिया था। बनवीर रणथंभौर को जागीर के रूप में राणी कर्मवती को देने से अप्रसन्न था।

इस सबकी मानसिकता के चलते मेवाड़ की राजनीति और राजपरिवार का पारिवारिक परिवेश कैसा रहा होगा, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

विक्रमाजीत बना मेवाड़ का शासक

राणा रतनसिंह का देहांत शीघ्र ही हो गया, जिसका हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं। तब रानी मेवाड़ को अपने पुत्र विक्रम के लिए प्राप्त करने में सफल हो गयी। पर रानी कर्मवती यह भूल गयी थी कि महत्वाकांक्षाओं को पर लागने के लिए योग्यता की आवश्यक होती है। यदि बिना किसी योग्यता के महत्वाकांक्षाएं प्रकट भी हो जाएंगी तो फलीभूत नही हो सकेंगी, और यही हुआ भी।

रानी ने अपनी महत्वाकांक्षा की बैसाखी लगाकर पुत्र विक्रम को राज्यसिंहासन तो दिला दिया पर विक्रम में योग्यता का अभाव था। इसलिए वह राजसिंहासन के लिए और राज्य सिंहासन उसके लिए फलीभूत न हो सका। वह शीघ्र ही सरदारों के लिए अप्रिय हो चला। गुजरात के बादशाह बहादुरशाह के आक्रमण ने उसे सर्वथा निष्प्रयोज्य बना दिया। तब उसे एक ओर बैठाकर राज्यसिंहासन पर बनवीर को बैठाने का निर्णय सरदारों ने लिया। यह घटना 1532 ई. की है।

चित्तौड़ पर बहादुरशाह का आक्रमण

इसी वर्ष बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। तब वह मेवाड़ के कुछ परगनों को लेकर ही लौट गया था, क्योंकि उसकी राजधानी की ओर हुमायूं बढ़ चला था। राणा ने भी तब संधि प्रस्ताव बहादुरशाह के समक्ष रख दिया था।

कुछ लोगों का मानना है कि राणा के कुछ सरदारों ने भी राणा की अक्षमता और अयोग्यता के कारण उसको सहयोग नही दिया था और इन सरदारों ने बहादुरशाह को पुन: चित्तौड़ पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। तब वह 1535 ई. में चित्तौड़ पर पुन: आक्रमण के लिए आ धमका। इसी युद्घ में राणी कर्मवती ने ‘जौहर’ किया था। 1303 ई. 23 मार्च में राणी पदमिनी के ‘जौहर’ को चित्तौड़ का पहला ‘शाका’ और राणी कर्मवती जौहर को दूसरा ‘शाका’ माना जाता है।

1535 ई. में चित्तौड़ पर बहादुरशाह को पुर्तगालियों ने मार डाला था (संदर्भ : राजधात्री पन्ना गूजरी, दामोदर लाल गर्ग पृष्ठ 40) जब यह समाचार मेवाड़ के सरदारों तक पहुंचा तो उन्होंने चित्त्तौड़ के मुसलमानों पर संगठित होकर आक्रमण कर उन्हें मार काटकर समाप्त कर दिया, जो बचे वह भाग गये। तब सरदारों ने उदयसिंह की अल्पव्यस्कता के चलते बनवीर को विक्रमादित्य के स्थान पर सिंहासनारूढ़ कर दिया, उस समय विक्रमादित्य की अवस्था मात्र 19 वर्ष की थी, उसे सरदारों ने जेल में डाल दिया था और बनवीर को उदयसिंह का संरक्षक नियुक्त कर दिया गया।

पन्ना के विषय में दामोदरलाल गर्ग कहते हैं…..

पन्ना गूजरी अपने पुत्र चंदन और राणा उदयसिंह का पालन पोषण जिस प्रकार कर रही थी, उसका मार्मिक वर्णन करते हुए दामोदरलाल गर्ग लिखते हैं-‘‘पन्ना अपने पुत्र चंदन को कभी-कभी डांट दिया करती थी और उसे कहती, बेटा मनुष्यत्व धारण करो…तुम धायभाई कहलाते हो….मुंह को धोकर भोजन करो…कुल्ला करो…। कभी-कभी कहती अरे मूर्ख तेरा पिता देश हित में चल बसा, और मेरी स्वामिनी जौहर ज्वाला को अर्पित हो गयी, तुझे नाना का अभाव है और नानी संसार से विदा हो गयी….अब तू अपनी मां को तो मत खा…कभी कभी उसे समझाती-कहती, अरे कुर्ते के बटन तो ठीक से लगाया कर और धोती को सुघड़ता से बांधना सीख रे…कब सीखेगा? या यूं ही मेरी छाती को जलाता रहेगा, पन्ना कभी अपने लाडले को गाली देने लगती तो कहने लगती तू अभी तक पशुओं से गया बीता ही रहा..जबकि कुंवर उदय को सदैव गोदी में लादे रहती….इसे देख देख कर कभी-कभी तो अपने पुत्र तक को भी भूल जाती और इस गर्व से फूल जाती कि मैं चित्तौड़ गढ़ के स्वामी की धाय मां हूं। हे भगवान! मेरे इस लाल को उम्र पूरी दे जिससे मैं भी कुछ देख सकूं। पन्ना अपने इस कुंवर को मेवाड़ वासियों के त्याग तपस्या और बलिदान की कहानियां सुनाया करती थी

और कुंवर के मन में वीरोचित भाव उत्पन्न किया करती थी, वह भावी स्वरूप की कल्पना कर मन ही मन प्रसन्न होती रहती थी। कहती थी कब मेरा कुंवर बड़ा होकर चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठे और मैं उस समय अपना मस्तक गर्व से ऊंचा कर सकूंगी।’’

धाय मां के गुण

वास्तव में लेखक ने यहां यह समझाने का प्रयास किया है कि धाय मां का दायित्व होता है कि वह राजकुमार को भावी सम्राट समझकर उसी प्रकार उसका पालन पोषण करे, उसमें वीरोचित गुणों का संचार करे। यदि उसी समय उसे अपनी कोख से जन्मे किसी बच्चे का भी पालन-पोषण करना पड़ रहा हो तो उसे भी वह भूल जाए अर्थात स्वसंतान के मोह में स्वकत्र्तव्य को विस्मृत ना कर दे।

किसी धाय मां से ऐसा किसी कठोर विधि या नियम के अंतर्गत कराना अनिवार्य नही था, अपितु यह देखा जाता था कि उसके भीतर ये गुण स्वाभाविक रूप से ही हों। क्योंकि स्वाभाविक गुणों का पालन सहजता से किया जाना संभव है, जबकि आरोपित गुणों को किसी से पालित नही कराया जा सकता।

करने लगी उदय का उत्थान

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि पन्ना कितनी महान महिला होगी जो अपने चंदन को ‘चित्तौड़ के उदय’ के समक्ष अधिक वरीयता नही देती है। उसका पति और उसका पिता बलिदान की जिस महान परंपरा पर बढक़र वीरगति को प्राप्त हो गये, उसने अपने पुत्र को उसी परंपरा पर अपने हाथों से डाल दिया और उस परंपरा की राष्ट्रीय मुख्यधारा के निर्माता के रूप में राणा संग्रामसिंह के पुत्र उदयसिंह का निर्माण करना आरंभ कर दिया। उसने सौभाग्य से मिले अनुपम अवसर का मूल्य समझा और उसे अपने लिए सौभाग्यशाली बनाने का हरसंभव प्रयास किया।

सामान्यत: ऐसा चित्रण किया जाता है कि धाय मां का कोई विशेष दायित्व नही होता था, वह केवल बच्चे को खिलाने-पिलाने का कार्य करती थी और उसमें अपने भीतर कोई विशेष गुण नही होता था। उसे आजकल की एक नौकरानी या आया समझा जाता है, जिसे राजा लोग उस समय अपने राजशाही ऐश्वर्य के चलते रख लिया करते थे।

ऐसा चित्रण करने से धाय मां के महत्व को भुला दिया गया, जबकि होना यह चाहिए था कि उसके अपने गुणों और महान व्यक्तित्व का यथावश्यक और यथोचित चित्रण किया जाता। यह कितना दुर्लभ और कठिन है कि कोई मां ‘स्व’ पुत्र के प्रति ममता को त्याग दे और ममता पर कत्र्तव्य को अधिमान दे?

इतिहास के इस दुर्लभ उदाहरण को चित्रित करने के लिए निश्चित है कि किसी भी लेखक या कवि या साहित्यकार या इतिहासकार के पास शब्दों की कमी पड़ जाएगी। ऐसी मां को इतिहास अपना स्मारक बनाकर पूज सकता है, पर जब इतिहास पर भी ‘अधिनायकवादी’ शक्तियों का पहरा बैठा हो तो उससे न्याय की अपेक्षा नही की जा सकती।

इसलिए पन्ना न्याय से वंचित हो गयी और आज तक हर इतिहासकार से न्याय मांग रही है। कौन सुनेगा उसकी पुकार?

बनवीर ने विक्रमादित्य को मार्ग से हटा दिया

बनवीर के राजसिंहासन पर बैठते ही उसकी महत्वाकांक्षा ने विस्तार पाना आरंभ कर दिया। वह महाराणा विक्रमादित्य कुंवर उदयसिंह को और उनके किसी भी परिजन को अपने लिए मार्ग का कंटक मानता था, इसलिए उन्हें मार्ग से हटाने की योजना और कुचक्रों पर ही सोचता रहता था। वह मेवाड़ को अपने लिए ही नही अपितु अपनी आने वाली पीढिय़ों के लिए भी हड़प लेना चाहता था।

उधर विक्रमादित्य अपने भाग्य और अयोग्यता को कोसता हुआ कारागृह में अपना बंदी जीवन यापन कर रहा था। बनवीर ने एक दिन अवसर पाकर विक्रमादित्य को ही अपने मार्ग से हटाने की योजना बना ली और वह उसके कारागृह में जा पहुंचा। कुछ इतिहासकारों ने माना है कि यह रात्रि का समय था और विक्रमादित्य उस समय अपने महल (कारागृह का कक्ष) में सो रहा था।

भयभीत हो गया था विक्रमादित्य

इतिहासकार लिखता है कि अचानक बनवीर को अपने समक्ष देखकर राणा विक्रमादित्य अत्यधिक भयभीत हो गया था, उसने समझ लिया था कि बनवीर का इस प्रकार और इस समय यहां नंगी तलवार लेकर आने का अभिप्राय क्या हो सकता है? इसलिए वह बनवीर के समक्ष अनुनय-विनय कर क्षमायाचना करते हुए अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। पर बनवीर तो इस समय साक्षात यमदूत बन चुका था, उस पर उसकी अनुनय-विनय या क्षमायाचना का कोई प्रभाव नही पड़ा। उसने एक ही वार से राणा का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस एक ही वार ने स्पष्ट कर दिया कि सत्ता खून की प्यासी होती है और जब वह प्राप्त कर ली जाती है तो इसकी प्यास और भी भडक़ जाती है। 800 वर्ष तक विदेशी आक्रामकों से लड़ते-लड़ते ये सत्ता षडयंत्र हमारी राजनीति का एक अंग बनकर रह गये थे।

राणा को मारकर बनवीर के मुंह से निकला कि-‘अब चलो, एक सर्प तो शांत हो गया।’

अब बारी थी उदयसिंह की

बनवीर के लिए दूसरा सर्प उदयसिंह था, इसलिए वह विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह के कक्ष की ओर चला। जहां पन्ना अपने पुत्र उदय को दूध पिला रही थी और चंदन उस समय सो चुका था। पन्ना के एक पहरेदार का नाम भी पन्ना खींची ही था। उसे सर्वप्रथम यह सूचना प्राप्त हुई कि बनवीर ने राणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी है। इसलिए उसने भागकर पन्ना को महल में हो गये हत्याकांड की सूचना दी और यह भी बताया कि अब बनवीर इधर ही आ रहा है।

पन्ना को समझते देर नही लगी कि बनवीर इधर क्यों आ रहा है? समय ने पन्ना के ममत्व के समक्ष एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। पर उस गूजरी धाय माता ने समय को बड़ी निडरता से उत्तर दे दिया कि ‘तू अपना बंधन जाल अलग हटा और सुन कि मैं जिस कुल में जन्मी हूं वहां भावनाओं से आगे कत्र्तव्य रखा जाता है, इसलिए मेरे लिए भी कत्र्तव्य इस समय प्रमुख है और तू देख कि मैं कैसे अपनी परीक्षा में सफल होती हूं?’

माता ने ले लिया निर्णय

समय सोचने का नही था समय केवल निर्णय लेने का था। वीरांगना माता ने निर्णय ले लिया। उसने उदय को एक कण्डों के टोकरे में बैठाया और एक सेवक और पन्ना खींची को वह टोकरा देकर बाहर निकलने के लिए आदेशित किया। उन्हें एक स्थान बता दिया कि तुम अमुक स्थान पर पहुंचो मैं समय मिलने पर वहीं पहुंच जाऊंगी।

दूसरी दासी ने पूछ लिया कि अब क्या होगा? बनवीर उदयसिंह को पूछेगा, ढूंढ़ेगा तो क्या उत्तर दिया जाएगा?

पन्ना शेरनी का रूप धारण कर चुकी थी, आज चित्तौड़ के लिए बलिदान देने वाले उसके वीर पिता और वीरपति का पूरा चित्र उसकी आंखों में तैरने लगा था। बड़ी शीघ्रता से उनके प्रेरणादायी वीरोचित चित्र पन्ना के नेत्रों में वैसे ही बन बिगड़ रहे थे जैसे झरने के गिरते पानी से बुलबुले बनते और बिगड़ते हैं। वह उन्हें जितना ही पकडऩे का प्रयास करती वे उतनी ही शीघ्रता से मिट जाते। पर इतना निश्चित था कि इन रोमांचकारी चित्रों ने पन्ना को अगला निर्णय कराने में उतनी ही शीघ्रता करा दी जितनी शीघ्रता से ये बन या मिट रहे थे।

स्मरण हो आये राणी कर्मवती के अंतिम वचन

पन्ना शेरनी ने पलक झपकते ही अगला निर्णय ले लिया, उसने राणी कर्मवती के अंतिम वचनों का स्मरण किया कि-‘‘आज से कुंवर उदयसिंह तेरा ही पुत्र है, उसकी देखभाल और रक्षा करती रहना।’’

उसने अपना निर्णय लिया और अपने प्राण प्रिय पुत्र चंदन का चांद सा प्यारा मुखड़ा एक बार देखा, देखते ही उसने अपनी ममता को पीछे धकेला और चित्तौड़ की रक्षिका के अपने दिव्य स्वरूप को पहचानते हुए अपने पुत्र के मुंह पर चादर ओढ़ा दी। वह पल भर की भी देरी करना नही चाहती थी, क्योंकि वह जानती थी कि पल भर केे प्रमाद का भी परिणाम क्या हो सकता है?

….और यही हुआ कि पन्ना अपने कत्र्तव्य की दिशा में निर्णायक मोड़ पर अभी जाकर खड़ी भी नही हुई थी कि इतने में ही उसके कक्ष में रक्तिम तलवार को हाथ में लिये बनवीर आ धमका।

कहां है उदय?…बनवीर

उस दुष्ट पर इस समय केवल हत्या का भूत चढ़ा हुआ था, उसका विवेक मर चुका था और उसे अपनी महत्वाकांक्षा के समक्ष और कुछ भी नही सूझ रहा था। क्रोध अंधा कहा जाता है और उसका कारण यही होता है कि वह विवेकहीन होता है। पन्ना इस सच को भलीभांति जानती थी इसलिए उसने चंदन के मुंह पर चादर डाल कर एक साथ ही अपने आपको तो चंदन से दूर कर ही लिया था, साथ ही उसने यह भी अनुमान लगा लिया था कि जब बनवीर उसके कक्ष में आएगा तो वह क्रोध की विवेकहीनता की स्थिति में यह भी नही समझ पाएगा कि पलंग पर सो रहा बच्चा चंदन है या उदय है।

बनवीर ने आते ही पन्ना से पूछ लिया कि बता उदय कहां है? पन्ना जानबूझकर चुप खड़ी रही। तब बनवीर ने पुन: पूछा कि शीघ्रता से बता उदय कहां है? यदि नही बताती है तो मैं तेरा ही सिर कलम कर दूंगा।

तब पन्ना ने समझ लिया कि अब इस पर क्रोध पूर्णत: हावी है। इसलिए उसने अपनी अंगुली से अपने पुत्र चंदन की ओर संकेत कर दिया कि ये सो रहा। वह शेरनी अपनी ममता को उस समय अपने आप से कोसों दूर कर चुकी थी। उसे मेवाड़ के भविष्य के दृष्टिगत उस समय केवल अपना कत्र्तव्य ही दीख रहा था।

इतिहास बन गया पन्ना का चेरा

पन्ना इतिहास बना चुकी थी और इतिहास उसका अभिनंदन करने के लिए भी आ चुका था, पर वह समय शुभकामनाओं के आदान-प्रदान का नही था। परीक्षा बड़ी कठिन थी, इसलिए अभी परीक्षा के कई सोपानों को पार करना शेष था। अत: वह इतिहास की अमर पात्र बनकर शांत खड़ी रही और इस समय इतिहास उसका चेरा बन गया। मां होकर भी पुत्र की हत्या पर उसकी आंखों में आंसू नही था, अपितु गर्व का एक भाव था कि आज उसने अपने पति और पिता के सम्मान की रक्षा करते हुए अपने गौरवपूर्ण कृत्य से मां भारती को कृतकृत्य कर दिया है।

पन्ना गूजरी शेरनी ने जैसे ही अपने चंदन की ओर बनवीर के लिए संकेत किया उसने तुरंत अपनी तलवार के एक वार से ही चंदन के दो टुकड़े कर दिये। बच्चा चंदन एक क्षण के लिए भी नही छटपटाया। बनवीर ने भी यह नही देखा कि उसने अंतत: किसका वध किया है? वह निश्चिन्तता का अट्ठहास करते हुए वहां से निकल गया। पुत्र के दो टुकड़े हुए देखकर पन्ना की भी एक बार तो चीख निकल ही गयी। अब जबकि बनवीर अपना काम करके पन्ना के कक्ष से बाहर चला गया तो पन्ना की ममता फूट पड़ी और वह अपने चंदन के लिए बहुत देर तक विलाप करती रही।

किया निज हाथों से पुत्र का अंतिम संस्कार

पर यह विलाप का क्रम कितनी देर तक चल सकता था, कत्र्तव्य फिर परीक्षा के लिए सामने खड़ा था। उसे उदय के पास पहुंचना था और उससे पूर्व अपने चंदन का अंतिम संस्कार करना था। इसलिए वह संभली और उसने बड़े गोपनीय ढंग से अपने पुत्र की अंत्येष्टि का प्रबंध किया। क्योंकि वह जानती थी कि यदि किसी को दिन के प्रकाश में यह पता चल गया कि मरने वाला बच्चा उदय सिंह नही चंदन है, तो उसका सारा त्याग और सारी तपस्या व्यर्थ ही चली जाएगी। अपने प्यारे चंदन की बातों को स्मरण कर कभी वह रोती तो फिर पल्लू से स्वयं ही आंसू पोंछकर स्वयं को ढांढस बंधा लेती। पुत्र का अंतिम संस्कार कर वह स्वयं के पीहर जाने की अफवाह फैलाकर चित्तौड़ से निकलने का प्रबंध करने लगी। मां भारती के लिए अब वह संन्यासिन हो गयी, वैरागिन हो गयी और चल दी अपनी दूसरी कठोर साधना के लिए अर्थात उदय की रक्षा और उसके निर्माण के लिए।

पन्ना को श्रद्घांजलि

सचमुच ऐसी मां पर भारत और भारतीय इतिहास को गर्व है। उसने यह अनुपम बलिदान भारत की रक्षा के लिए और भारत की स्वतंत्रता के लिए दिया था। मध्यकालीन भारत के स्वातंत्रय समर की पन्ना गूजरी एक अप्रितम वीरांगना है। उसे एक महान नारी और स्वातंत्रय की परम आराधिका के रूप में इतिहास में स्थान मिलना चाहिए। उस दिन उसके समक्ष यह प्रश्न गंभीर रूप से खड़ा था कि यदि वह कत्र्तव्य मार्ग से चूक गयी तो भारत की वह स्वतंत्रता धूमिल हो जाएगी, जिसके लिए उसके पिता, पति और स्वामी व स्वामिनी ने अपना बलिदान दिया था। पन्ना की इस मानसिक अवस्था को जितना ही समझा जाएगा वह उतना ही अमूल्य हीरा बनती जाएगी। चलिए! इसी पुरूषार्थ को हम सब अपनी हार्दिक श्रद्घांजलि अर्पित करते हैं, क्योंकि पन्ना के इसी बलिदानी पुरूषार्थ में हमारे इतिहास का गौरव और हमारे पूर्वजों का सम्मान सुरक्षित है। इसका संरक्षण हमारा पुनीत दायित्व है इसलिए मां भारती की इस परम सेविका पन्ना को हम सबका हार्दिक नमन।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक उगता भारत

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