स्फटिक है आत्मा,अन्तःकरण में दोष

antahkarana-mind-soul

स्फटिक है आत्मा,
अन्तःकरण में दोष ।
अन्तःकरण सुधार ले,
सुख-शान्ति का कोष॥2763॥

तत्त्वार्थ:- पाठकों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि आत्मा स्फटिक की तरह अमल है, निर्मल है और दोष मुक्त है। आवश्यकता है अन्तःकरण को पवित्र करने की। इस अन्तःकरण में ही सूक्ष्म शरीर रहता है। राग-द्वेष,काम – क्रोध, ईष्या-घृणा, लोभ-मोह, मद इत्यादि जितने भी विकार हैं, वे सब अन्तःकरण में ही उत्पन्न होते है। इतना ही नहीं पवित्र और उत्कृष्ट भाव भी हमारे अन्तःकरण चतुष्ट्य में ही उत्पन्न होते है, जिनसे मनुष्य महानता को प्राप्त होता है। अन्तःकरण की अपवित्रता के कारण ही आत्मा जन्म-जमान्तरों तक निकृष्ट योनियों में भटकती है। अतः अन्तःकरण को निर्मल रखना नितान्त आवश्यक है।
मानवीय चेतना के पाच तल माने गए है- अन्नमंय-कोश, प्राणमंय कोश, मनोमंय कोश, विज्ञानमंय कोश, आनन्दमंय कोश। विभिन्न तलों से गुजरती हुई चेतना जब आनन्दमंय कोश में पहुंचती है, तो अन्तःकरण परम पवित्र और उत्कृष्ट होता है। साधक,साधक नहीं सिध्द कहलाता है, योगी कहलाता है। ज्योति उस परम ज्योति में विलीन होती है, आनन्दधन की रसानुभूति होती है, सुख- शान्ति की वर्षा होती है। इसलिए जितना हो सके अन्तःकरण को परम पवित्र कीजिए और मानव-जीवन को सार्थक कीजिए।

अग्नि में कोयला रहे,
तब तक रहता लाल।
शरणागति में जीव के,
मल मिटते तत्काल॥2764॥

तत्त्वार्थ :- भाव यह है कि कोयले को आप कितने ही बढिया से बढ़िया साबुन अथवा डिटर्जेन्ट से धोइयें किन्तु उसका रंग काला ही रहता है लेकिन जब कोयला भट्टी में अग्नि के सम्पर्क में आता है, तो वह काला नहीं लाल हो जाता है, तत्काल उसके मल भी दूर हो जाते हैं।
ठीक इसी प्रकार जब उस परम पिता परमात्मा का अनन्य शरणागति होता है, तो उसके अन्तःकरण में मल, विक्षेप और आवरण एवम् अन्य विकार इस प्रकार दूर हो जाते है जैसे सूर्य के सामने अन्धकार छू-मन्तर हो जाता है। इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस में प्रभु भक्ति का वर्णन करते हुए कहते हैं : –

सन्मुख होइ जीव मोहि जबहिं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहि॥

अर्थात् जैसे ही जीव प्रभु के सम्मुख होता है, वैसे ही उसके करोड़ों जन्मों के पापों का नाश नाश हो जाता है। इसलिए जितना सम्भव हो उतना जीवनपर्यन्त प्रभु की अनन्य शरणागति में रहो ताकि आत्मोध्दार हो सके।

क्रमशः

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