दान एक निष्काम सेवा ? दान देने सम्बंधित भ्रांतिया और निवारण

(दान क्या है , क्यों करें ,किसको करना चाहिए – एक अध्ययन)
– डॉ डी के गर्ग
महर्षि दयानन्द के अनुसार –
संसार में जितने भी दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथ्वी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण और घृतादि। .इन सभी दानों में से वेदविद्या का दान अतिश्रेष्ठ है।इसलिए जितना बन सके. उतना तन, मन, धन से विद्या में वृद्धि करें।
मनुस्मृति 4.2.27 में लिखा है –
दानधर्मं निषेवेत नित्यमैष्टिकपौर्तिकम्।
परितुष्टेन भावेन पात्रमासा। शक्तितः।।
यज्ञ-यागादि ऐष्टिक (अर्थात इष्ट) कर्मों में और कूप-पोखर आदि के निर्माण रुपी पूर्तिक कर्मों में अवश्य ही प्रवृत्त होना चाहिए। योग्य अधिकारी के मिलने पर अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रसन्नता, निष्काम भाव और बिना किसी प्रत्युपकार की भावना से दान देना चाहिए।
संस्कृत सुभाषित के अनुसार-
अन्नदानं परम् दानं विद्यादानं अतः परम् ।
अन्नेन क्षणिका तप्तिः यावज्जीवं च विद्या।
अर्थात- अन्नदान परम दान है पर विद्यादान उससे भी श्रेष्ठ है। क्यों ? क्योंकि – अन्न से क्षणिक तृप्ति ही होती है पर विद्या से जब तक जीव (व्यक्ति) जिंदा है तृप्ति होती रहेगी। विद्यादान- सर्वश्रेष्ठ दान है।
सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।
वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम् ।। मनुस्मृति 4.233
(सर्वेषाम् एव दानानाम्) संसार में जितने दान हैं अथार्त् (वारी-अन्न -गो-मही-वास-तिल-कांचन-) जल, अन्न, गौ, पृथ्वी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण और घृतादि इन सब दानों से (ब्रह्मदान विशिष्यते) वेदविद्या का दान अतिश्रेष्ठ है।
दान के विषय में शास्त्र क्या कहते है:
अतपास्त्वनधीयानः प्रतिग्रहरुचिर्दि्वजः।
अम्भस्यश्मप्लवेनैव सह तेनैव मज्जति।। मनुस्मृति 4.190
भाव है कि तपहीन, अवेदवित और दान की कामना करने वाले ब्राह्मण को दान नहीं देना चाहिए। इनको दान देने वाला इनके साथ ही वैसे डूब जाता है जैसे पत्थर की नौका पर सवार मूर्ख समुद्र में डूब जाते हैं।
न वार्यपि प्रयच्छेत्तु बैडालव्रतिके *द्विजे ।
न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि* धर्मवित।। मनुस्मृति 4.192
अर्थात धर्मज्ञ द्विज को यह उचित है कि उसे बिड़ाल वृत्ति वाले (दूसरों को मूर्ख बना कर उन्हें मूँड़ना-लूटना) को, बक वृत्ति वाले को अर्थात ऊपर से साधू दिखना परन्तु भीतर से दुष्ट होने वाले को और वेदविद्याहीन ब्राह्मण को जल भी दान नहीं देना चाहिए।
योऽर्चितं प्रतिगृह्णाति ददात्यर्चितमेव वा।
तावुभौ गच्छतः स्वर्गं नरकं तु विपर्यये।। मनुस्मृति 4.235
भाव यह है कि सत्कारपूर्वक दिया और लिया गया दान पुण्य प्राप्ति के होते हैं और सत्कारहीनता से किया गया पाप को प्राप्त करता है। इन्हीं पाप-पुण्यों के हेतु से अगले जन्म और उनमें भोग प्राप्त होते हैं।
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।। गीता 17.28।।
हे पार्थ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा और भी जो कुछ किया जाये, वह सब ‘असत’ ऐसा कहा जाता है। उसका फल न यहाँ होता है, न मरने के बाद ही होता है अर्थात उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।
दान का आध्यात्मिक वर्गीकरण — गीता में दान को भी तीन प्रकार का बताया गया है –
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।गीता 17.20।।
सात्त्विक दान- ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर अनुपकारी को दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।गीता 17.21।।
राजस दानः जो दान प्रत्युपकार के लिये अथवा फलप्राप्ति का उद्देश्य बनाकर फिर क्लेशपूर्वक दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।। गीता 17.22।।
तामस दान: जो दान बिना सत्कारके तथा अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।
समुद्र में वर्षा व्यर्थ है।
तृप्त को भोजन कराना व्यर्थ है।
धनी को दान देना व्यर्थ है, और
दिन में दीपक जलाना व्यर्थ है.!
तात्पर्य है कि सहायता उसकी की जाए जिसे आवश्यकता हो और दान के सदुपयोग का महत्व समझे।
प्रश्न: क्या रिश्वत, चोरी का पैसा दान दे सकते हैं ?
उत्तर: ये दोनों अलग-अलग कर्म है।इनको एक नहीं मान लेना चाहिए। रिश्वत चोरी का दोष लगेगा और दान का पुण्य मिलेगा।
प्रश्नः ईसाई मिशनरी जो गरीबों को दान ,पैसा आदि देते है, इसी तरह कई गुरु अपने आश्रम में गरीबों को लंगर खिलाते हैं, कपडे देते हैं इस विषय में क्या कहेंगे।
उत्तरः ये तामसिक दान की श्रेणी में आएगा। ये वास्तविक दान नहीं है, दान के नाम का दुरूपयोग है ताकि मतांतरण करवाया जा सके। ये अत्यंत दोषपूर्ण है और ईश्वर इसका दंड देगा।
– डॉ डी के गर्ग