दहेज रोधी कानूनों पर एक समीक्षात्मक पर्यालोचन

- आर्य सागर खारी
आंकड़ों के अनुसार भारतवर्ष में प्रत्येक दिन 18 महिलाएं दहेज हत्या की शिकार होती है। इनमें दहेज के लिए की जाने वाली क्रुरता के मामलों को परिगणित नहीं किया गया है। इतना ही नहीं अकेले वर्ष 2020 में 13000 से अधिक मामले दहेज प्रतिषेध कानून 1961 के तहत दर्ज किए गए।
यहां उल्लेखनीय होगा दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 विवाह से पूर्व दहेज की मांग को अपराध मानता है विवाह के पश्चात दहेज की मांग को लेकर आज भी इस कानून में प्रावधानों की अस्पष्टता है।
भारत के गणतंत्रात्मक राष्ट्र बनने के पश्चात भारत की संसद में दहेज जैसी प्रथा को लेकर समय-समय पर देश की संसद में दोनों ही सदनों में 1950 से लेकर 1960 तक लगभग 1 दशक की अवधि तक बेहद तल्ख वैचारिक चर्चा चली। यह चर्चा बेहद दिलचस्प है दहेज प्रथा के समर्थन व विरोध में जो जो संसद सदस्य थे उन सभी के वक्तव्य आज भी संसद की वेबसाइट पर ऑन रिकॉर्ड उपलब्ध है। वह सभी वक्तव्य पठनीय है किसी अन्य लेख में उन्हें अक्षरस: अंकित किया जाएगा।
देश के प्रथम और आज भी इकलौते दहेज विरोधी कानून के निर्माण में उस समय की महिला सांसदों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस कानून को विस्तारित करते हुए पूर्व में इंडियन पीनल कोड की धारा 498 ए जिसमें दहेज हत्या व इसी अध्याय में दहेज के लिए महिला के साथ पति व पति के रिश्तेदारो द्वारा की गई क्रुरता आदि मामलों को जोड़ा गया है वर्तमान में भारतीय न्याय संहिता की धारा 85,86 में दहेज उत्पीड़न दहेज हत्या व दंड को परिभाषित किया गया है।
आवश्यकता तो यह थी पुराने दहेज प्रतिषेध कानून को संशोधित करते वर्तमान की रीति नीति के अनुसार एक व्यापक स्पष्ट प्रभावी सख्त कानून देश की संसद द्वारा बनाया जाना चाहिए था लेकिन पिछले कुछ वर्षों से देश में दहेज कानून को लेकर एक अलग ही बहस छिड़ी हुई है और सबसे अधिक चिंताजनक विषय यह है देश की शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट में बैठे हुए न्यायाधीशों की मानसिकता जिसके अनुसार न्यायाधीशों ने भी यह मानसिकता बना ली है जो इस संबंध में विविध मामलों में परिलक्षित होती है कि आज देश में दहेज कानूनों का व्यापक दुरुपयोग किया जा रहा है ।समय-समय पर इन कानूनों पर जिसमें घरेलू हिंसा अधिनियम भी शामिल है पुरुष विरोधी होने का ठप्पा लगाया जाता है सुप्रीम कोर्ट यहां तक कह चुका है देश की संसद को दहेज से जुड़े कानूनों पर दुरुपयोग के मामले में विचार करना चाहिए इन कानूनों का व्यापक दुरुपयोग हो रहा है।
दहेज को लेकर गिनती के इन इने गिने कानूनो को लेकर महिलाएं कितना सदुपयोग कर पा रही हैं कितना वह अपने अधिकारों का प्रयोग कर रही है इस दृष्टिकोण से कभी कोई वक्तव्य जारी नहीं हुआ।
एक आंकड़े के अनुसार दहेज हत्या व दहेज क्रूरता के मामलों में महज 18 फ़ीसदी मामलों में ही दोष सिद्धि हो पाती है।
यहा एक मुखर सवाल उठता है देश की कार्यपालिका व न्यायपालिका के समक्ष कानूनों के दुरुपयोग के मामलों को दहेज विरोधी कानूनों पर ही क्यों घटाया जाता है ?सभ्यता के आदिकाल से ही मानव अपने अधिकारों का दुरुपयोग करता आ रहा है संख्या भले ही कम या ज्यादा रहती हो । विविध अन्य क्षेत्रों के वैधानिक अधिकार भी इससे अछूते नहीं है। अन्य दीवानी व फौजदारी मामलों में फर्जी दावे अदालत में डाले जाते हैं झूठे फर्जी मुकदमे एक दूसरे के विरुद्ध दर्ज करवाए जाते हैं चाहे लेनदेन का व्यवहार हो या अन्य कोई मामला। क्या उन सभी कानून को भी संशोधित किया जाएगा।
सर्वाधिक चिंताजनक विषय यही है यदि किसी कानून का दुरुपयोग हो भी रहा है तो क्या इसमें निरपेक्ष तौर पर कानून की कमजोरी है या कानून के दुरुपयोग कर्ता द्वारा किया गया अपराध।
भारत पूरी तरह लोकतंत्रात्मक ही नहीं एक गणतंत्रात्मक राज्य है। डेमोक्रेटिक व रिपब्लिक का यही भेद है रिपब्लिकन स्टेट में निर्णय बहुमत के आधार पर नहीं देश के शीर्ष कानून संविधान व उसमें निहित मौलिक अधिकारों के आधार पर होता है। उदाहरण के लिए देश में तीन तलाक की इस्लामी प्रथा को खत्म कर दिया गया जबकि अधिकांश मुस्लिम आबादी तीन तलाक के समर्थन में थी वहां लोकतंत्र का नहीं गणतंत्र का सिद्धांत लागू हुआ देश का शीर्ष कानून महिलाओं के मौलिक अधिकारों को लेकर क्या कहता है ,उसको प्राथमिकता दी गई। अंतोगत्वा यही निष्कर्ष निकलता है देश की शीर्ष जिम्मेदार अदालतों को ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिसका दुरुपयोग स्वार्थी दहेज लोभी लोग अपने हित में करते हैं दहेज के मामलों में अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जाते हैं दहेज के विरुद्ध मनोवैज्ञानिक वैधानिक लड़ाई कमजोर पड़ती है।
21वीं सदी में हर एक महिला ही नहीं दहेज जैसी कुप्रथा को दानव अभिशाप मानने वाले प्रत्येक उस व्यक्ति की हार्दिक अभिलाषा है कि देश की संसद दहेज जैसी कुरीति को सदा सदा के लिए दफन करने के लिए जैसा सती प्रथा , बाल विवाह के मामले में हुआ है एक कठोर प्रभावी कानून बनना चाहिए।

लेखक सूचना का अधिकार व सामाजिक कार्यकर्ता है।