क्या भारत एक स्वस्थ युवाओं का देश भी है?

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वर्तमान भारत जिसके विषय में हम गर्व से कहते हैं कि यह एकयुवा देश है, क्या हम उसके विषय में यहभी कह सकते हैं कि भारत स्वस्थ युवाओं का देश है?

यह प्रश्न अनायास नहीं है अपितु यह प्रश्न उन सर्वेक्षणोंके आधार पर है जिनमें हमारे बच्चों में टाइप 2 मधुमेह के बढ़ते मामलों का गम्भीर विषय सामने आया है ।

कभी वयस्कों में देखी जाने वाली बीमारी मधुमेह अब युवाओं औरबच्चों तक को एक बड़ी संख्या में अपनी चपेट में ले चुकी है। विडम्बना यह है कि खानपान की आदतों के कारण होने वाली मधुमेह जैसी बीमारी के ये बढ़ते आँकड़े ऐसे देश मेंसामने आ रहे हैं जहाँ बचपन की स्वास्थ्य समस्याएँ पहले मुख्य रूप से कुपोषण औरसंक्रामक रोगों से संबंधित थीं। लेकिनअधिक चिंताजनक विषय यह है कि देश के युवाओं में मधुमेह रोग जिस प्रकार अपने पैरपसार रहा है उसके दूरगामी प्रभाव सिर्फ इन युवाओं के स्वास्थ्य पर ही नहीं बल्किदेश के भविष्य पर भी निश्चित तौर पर पढ़ेंगे।

इस विषय में सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि देश की युवा पीढ़ीमें मधुमेह के बढ़ते मामले आधुनिक जीवनशैली से जुड़े हैं। क्योंकि एक तरफ वर्तमानजीवन शैली के चलते हमारी शारीरिक गतिविधियां सीमित हो रही हैं वहीं दूसरी तरफडिजिटलाईजेशन के परिणामस्वरूप हमारास्क्रीन टाइम बढ़ जा रहा है। आज मोबाइल फोन, वीडियो गेम और डिजिटल मनोरंजन के साधन बच्चों के जीवन का मुख्य केंद्र बन गए हैं। इनसब के बीच शारीरिक खेल और बाहरी गतिविधियाँ बच्चों के जीवन में से कहीं पीछे छूटगई हैं। जैसे-जैसे तकनीक अधिक सुलभ होती जा रही है, बच्चे स्क्रीन के सामने अधिक समय व्यतीत रहेहैं और दौड़ने या खेल में कम समय बिता रहे हैं। यह वाकई में चिंताजनक है कि जीवनशैली का यह बदलाव सिर्फ़ बच्चों के समय बिताने के तरीके को ही नहीं बदल रहा हैबल्कि यह उनके स्वास्थ पर भी प्रतिकूल असर डाल रहा है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की हालिया रिपोर्ट से यह गम्भीरविषय सामने आया है। राष्टीय स्वास्थ्यमिशन द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि पिछले पाँच वर्षों में 5-14 वर्ष की आयु के बच्चोंमें टाइप 2 मधुमेह की घटनाओं में 65% की वृद्धि हुई है। इस रिपोर्ट में यह चौंकाने वाली बात भी सामनेआई है कि यह वृद्धि केवल शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश के ग्रामीणऔर अर्ध-शहरी इलाकों में भी देखी जा रही है। नेशनल हेल्थ मिशन की इस रिपोर्ट कोपढ़ने पर यह विचलित करने वाला तथ्य सामने आया कि ग्रामीण जिलों में, बच्चों में बढ़ते मोटापेके कारण उनमें टाइप 2 मधुमेह होने का खतरा एकसे तीन गुना बढ़ गया है। बल्कि वास्तविकता तो यह है कि कई बच्चे अब वयस्क होने सेबहुत पहले ही इस बीमारी की शुरुआत (प्री डाइबेटीस) का सामना कर रहे हैं।

विभिन्न रिसर्चों के माध्यम से आज यह बात सिद्ध हो चुकी हैकि टाइप 2 मधुमेह एक जीवनशैली सेजुड़ी बीमारी है। यह तब होती है जब हमारा शरीर इंसुलिन के प्रति प्रतिरोधी हो जाताहै या जब अग्न्याशय सामान्य रक्त शर्करा के स्तर को बनाए रखने के लिए पर्याप्तइंसुलिन का उत्पादन करने में असमर्थ होता है। अधिकांश तौर पर यह बीमारी वयस्कों सेजुड़ी होती है, लेकिन गतिहीन जीवनशैली, अस्वास्थ्यकर आहार औरमोटापे के कारण आज यह बच्चों में भी तेजीसे अपने पैर पसार रही है। बच्चों में बाल्यावस्था में ही मधुमेह का बढ़ना चिंताजनकहै क्योंकि न सिर्फ यह तात्कालिक स्वास्थ्य सम्बन्धी उलझने पैदा करती है बल्कि इस बीमारी के साथ होने वालीदीर्घकालिक जटिलताओं के कारण हृदय संबंधी समस्याएं, गुर्दे की बीमारी, तंत्रिका क्षति और यहांतक ​​कि दृष्टि हानि भी हो सकती है।

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के अनुसार, पिछले दशक में टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित बच्चों की संख्या दोगुनी से अधिक हो गईहै। 2023 में, भारत में अनुमानित 2 मिलियन बच्चे इस बीमारीसे पीड़ित थे, और विशेषज्ञों का अनुमानहै कि अगले कुछ वर्षों में यह संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाएगी। यह समस्याविशेष रूप से शहरों में अधिक गंभीर है, जहाँ बच्चों के पास चीनी और वसा से भरपूर फ़ास्ट फ़ूड के अनेकविकल्प उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त प्रतिस्पर्धा के इस दौर में बेहतर शैक्षणिकप्रदर्शन के दबाव के कारण उनकी खेल कूद जैसी शारिरिक गतिविधियां न के बराबर होतीहो चुकी हैं। परिणामतः जो बच्चे कभी क्रिकेट, फ़ुटबॉल खेलने या अपने दोस्तों के साथ बस इधर-उधर दौड़ने कासपना देखते थे, वे अब इंसुलिन इंजेक्शन, डॉक्टर के पास जाने औरआहार प्रतिबंधों की दिनचर्या तक सीमित रह गए हैं। जिन बच्चों को अपने बचपन का आनंदलेना चाहिए, वे जीवन भर की बीमारी सेनिपटने के भारी बोझ के साथ बड़े हो रहे हैं।

माता-पिता के लिए, यह स्थिति और भी ही दुखद है। अपने बच्चों को स्वस्थ औरमजबूत होते देखने की खुशी की जगह एक जटिल बीमारी से निपटने की जद्दोजहद ने ले लीहै।

क्योंकि औसत भारतीय बच्चा आज औसतन 4-5 घंटे प्रतिदिन डिजिटलउपकरणों पर बिताता है। जबकि यह अनुशंसित स्क्रीन समय से काफी अधिक है। क्योंकिवैश्विक स्वास्थ्य दिशानिर्देशों के अनुसार बच्चों के लिए यह समय प्रतिदिन दो घंटेसे अधिक नहीं होना चाहिए। मोबाइल फोन, टैबलेट और कंप्यूटर का अत्यधिक उपयोग हमारी शारीरिकगतिविधियों को सीमित कर देता है।

शारिरिक गतिहीन जीवन शैली के अतिरिक्त आहार की हमारी बदलतीआदतें भी इन परिस्थितियों में अपनामहत्वपूर्ण योगदान देती हैं। पारंपरिक, घर का बना खाना, जो कभी भारतीय परिवारों की पहचान था, आज उसकी जगह फास्ट फूड औरपैकेज्ड स्नैक्स ने ले ली है। ये खाद्य पदार्थ न केवल कैलोरी बहुल ​​होते हैंबल्कि वसा, शर्करा और लवण जैसेतत्वों से भी भरपूर होते हैं जो मानव शरीर में इंसुलिन के प्रतिरोध और मोटापे कोबढ़ाने का अहम कारण हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्रोंमें लगभग 40% बच्चे नियमित रूप सेफास्ट फूड का सेवन कर रहे हैं।

गौरतलब है कि बचपनमें होने वाले मधुमेह का असर सिर्फ़ बच्चों पर ही नहीं पड़ता, बल्कि परिवारों पर, उनके माता पिता पर भीपड़ता है। और कालांतर में युवा रोगियों की बढ़ती संख्या का प्रभाव कहीं न कहीं देशकी उन्नति और उसके भविष्य पर भी पड़ता है।

लेकिन अच्छी खबर यहहै कि मधुमेह, ख़ास तौर पर टाइप 2 मधुमेह को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। स्वस्थजीवनशैली को बढ़ावा देकर और शारीरिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करके, हम मौजूदा आंकड़ों को पलटसकते हैं। अनेक रिसर्चों में यह बात सिद्ध हो चुकी है कि जिन लोगों ने स्वस्थ आहारविहार और शारीरिक गतिविधियों को अपनी दिनचर्या में शामिल करके अपनी जीवन शैली मेंबदलाव किया वे काफी हद तक मधुमेह से लड़कर जीते भी हैं।

आज जब हम इस संकट का सामना कर रहे हैं तो एक देश के रूप में, एक समाज के रूप में, इस देश के एक जागरूकनागरिक के रूप में,माता पिता के रूप मेंहमें यह समझना चाहिए कि इस देश के हर बच्चे को स्वस्थ, सक्रिय जीवन जीने का मौकामिलना चाहिए। आइए सुनिश्चित करें कि वे मैदानों में खेलें, दोस्तों के साथ तितलियोंके पीछे दौड़ें, अपने बचपन को स्क्रीन केआगे नहीं बाग बग़ीचों और खुले मैदानों में जिएं ताकि मधुमेह बीमारियों के बोझ सेमुक्त होकर बड़े होने का सपना देख सकें और देश की तरक्की में अपना योगदान दे सकें।

डॉ नीलम महेंद्र

लेखिका वरिष्ठ स्तम्भकार हैं

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