वैदिक ग्रंथों में वनस्पतियों की महत्ता का है वर्णन

अशोक प्रवृद्ध
भारतीय मन आदि सनातन काल से ही प्रकृति के प्रति संवेगित व संवेदनशील रहा है और प्रकृति तथा पर्यावरण के साथ समन्वय, सामंजस्य व संतुलन स्थापित कर प्रकृति संरक्षण के प्रति कृत संकल्पित होकर जिओ और जीने दो के सिद्धांत पर चलना ही भारतीय जीवन पद्धति हैद्य मनुष्य का प्राकृतिक जीवन व्यतीत करना भारतीय जीवन पद्धति के साथ ही सम्मिश्रित हैद्य इसीलिए प्रकृति पर निर्भर स्वस्थ जीवन पद्धति और चिकित्सा विज्ञान भारतवर्ष के प्राचीनतम ज्ञान में सन्निहित रही हैद्यऋग्वेद, अथर्ववेद, आयुर्वेद तथा स्वास्थ्य व चिकित्सा के लिए विख्यात विभिन्न पुरातन ग्रन्थ इसके स्वयं साक्षी हैंद्य वनस्पतियों की महता व रोगों के उपचारार्थ कई प्रकार की जड़ी-बूटियोंका वर्णन अथर्ववेद के साथ ही कई अन्य पुरातन ग्रंथों में अंकित हैंद्ययह शाश्वत्त सत्य है कि इस पृथ्वी पर प्राणिजगत का इतिहास जितना पुरातन है, उससे कहीं अधिक प्राचीन वृक्ष और वनस्पतियों का अस्तित्व है, और पुरातन काल से लेकर आज तक इनसे और इन पर ही हमारा अस्तित्व निर्भर है। यह पृथ्वी आज यदि जीवन्त प्रतीत हो रही है, तो उसका सर्वाधिक श्रेय वनस्पति को दिया जा सकता है। यही कारण है कि वनस्पतियों के महत्त्व को प्रतिपादित करता हुआ वेद वनस्पतियों को दिव्य गुण वाली माता के रूप में प्रतिपादित करता है।
ओषधीरिति मातरस्तद्वो देवीरुप ब्रुवे।- ऋग्वेद 10.97.4
माता कहने से यहाँ अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार माता शरीर का निर्माण करती है, उसी प्रकार वनस्पतियों की भी शरीर निर्माण में भूमिका है। इसलिये ऋग्वेद का यही मन्त्र में आगे इनकी सेवा के लिये गौ, अश्व और अपने तक को समर्पित करने की बात कहता है।
सनेयमश्वं गां वास आत्मानं तव पूरुष।- ऋग्वेद 10.97.4
मैत्रायणीसंहिता 4.1.13के अनुसार अग्नि से मेध निकलता है और वह कृष्ण होकर वनस्पतियों में प्रवेश कर जाता है।कहने का आशय यह है कि अग्नि से निकलने वाली कृष्णवर्ण की कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को वनस्पतियाँ अवशोषित कर लेती हैं। अथर्ववेद का ऋषि कहता है कि विश्व का भरण-पोषण करने वाली पृथिवी तुम्हारी हरित के माध्यम से रक्षा करे।
भूमिष्ट्वा पातु हरितेन विश्वभृद्।- अथर्ववेद 5.28.5
उक्त मन्त्र में आया बहुत महत्त्वपूर्ण हरित शब्द का अर्थ होता है- हरण करने की सामथ्र्य से युक्त।अन्धकार या रस का हरण करने के कारण जहाँ आदित्य रश्मियाँ हरित हैं, वहीं प्राणियों की क्षुधा का हरण करने के कारण वृक्षादि वनस्पतियाँ हरित कहलाती हैं। हरित शब्द वेद में पीत वर्ण या स्वर्णिम आभा का वाचक है। प्राचीन काल से ही स्वर्ण या स्वर्णिम आभा समृद्धि का प्रतीक रही है। जहाँ स्वर्ण से नारी सौन्दर्य मुखरित हो उठता है, वहीं पृथ्वी रूप रमणी की शोभा जिस समृद्धि से दर्शनीय बन पड़ती है, वह शस्य श्यामलता सम्पन्नता भी वेद में हरित नाम से अभिहित हुई है। उक्त मन्त्र के माध्यम से आगे वेद कहता है कि वृक्ष और वनस्पतियाँ सूर्य की किरणों के सहयोग से कल्याणकारी शक्ति को धारण करायें-
वीरुद्भिष्टे अर्जुनं संविदानं दक्षं दधातु सुमनस्यमानम।।
– अथर्ववेद 5.28.5
सूर्य की किरणों के सम्पर्क से वृक्ष और वनस्पतियों में प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया होती है, जिससे वनस्पितियों को ऊर्जा मिलती है। वस्तुत: यह ऊर्जा प्रकारान्तर से शाकाहारी प्राणियों को प्राप्त होती है, और उनसे भी यह मांसाहारी जीवों तक पहुँचती है। एक प्रकार से वनस्पतियाँ सूर्य की ऊर्जा को हमारे पास पहुँचाने का माध्यम हैं। इसलिये वेद सूर्य को स्थावर और जङ्गम जगत की आत्मा कहता है।
सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा।
-यजुर्वेद 7.42
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वनस्पति जगत हमारी एक ऐसी अपरिहार्य आवश्यकता है, जिसका विकल्प मनुष्य के पास न पहले कभी था और न आज है।वेदों में पृथ्वी की उर्वरा शक्ति के प्रति जिस संवेदनशीलता का परिचय दिया गया है, वह वनस्पति जगत की सुरक्षा को दृष्टि में रखते हुए बहुत महत्त्वपूर्ण है। अथर्ववेद 12.1.35 मेंऋषि भूमि माता के प्रति कृतज्ञतापूर्ण संवेदना से ओत प्रोत होते हुए कहते है कि –
यत्ते भूमि विखनामि क्षिप्रं तदतु रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम्।।
– अथर्ववेद 12.1.35
अर्थात – हे भूमि! मैं तेरा जो भी भाग खोदूँ अर्थात् तेरी क्रोड़ में से मैं जो भी सम्पदा निकालूँ, उससे वह शीघ्र ही पुन: पूर्ण हो जाए। हे अन्वेषण करने योग्य भूमि! मैं न तो तेरे मर्मस्थल को चोट पहुँचाऊँ और न ही तेरे हृदय को पीडि़त करूँ।
वेद पृथ्वी पर उगने वाली सस्य सम्पदा को चार भागों में विभाजित करता है-वनस्पति,वानस्पत्य, ओषधि और वीरुध।
वनस्पतीन् वानस्पत्यानोषधीरुत वीरुधै:।
द्विपाच्चतुष्पादिष्णामि यथा सेनाममूं हनन्।।
– अथर्ववेद8.8.14
बड़े वृक्ष वनस्पति कहलाते हैं, जबकि उनकी अपेक्षा छोटे वृक्षों को वानस्पत्य कहा गया है। इसी प्रकार ओषधि (औषधि) कहे जाने वाले वर्ग के भी दो भेद हैं-छोटे पौधे के रूप में उगने वाली वनस्पति औषधि है, जबकि लता गुल्म आदि के रूप में विकसित होने वाली वनस्पति वीरुध है। इसके अतिरिक्त औषधि और वीरुध में यह भी भेद है कि जो वनस्पतियाँ रोगनिरोधक हैं, वे वीरुध नाम से अभिहित हुई हैं और जो रोग का शमन करती हैं, वे औषधि कही गयी हैं। ऋग्वेद के औषधिस्तुतिविषयक सूक्त में उपर्युक्त चार भेद और स्वीकार किये गए हैं- फलवती,अफला, पुष्पवती औरअपुष्पा।
या: फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणी:।
– ऋग्वेद 10.97.15

इनके विषय में इसी मन्त्र में आगे कहा गया है कि बुद्धिमान् चिकित्सक के द्वारा प्रयुक्त किये जाने पर ये हमें अंहस् अर्थात् रोग से मुक्त करें।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्वंहस:।।
– ऋग्वेद 10.97.15
वैदिक ग्रन्थों में औषधियों की विशेषताओं का भी विस्तार से वर्णन किया गया है।ओषधियों की विशेषताओं को प्रतिपादित करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है –
ओषधी: प्रति मोदध्वं पुष्पवती: प्रसूवरी:।
अश्वा इव सजित्वरीर्वीरुध: पारयिष्णव:।।
-ऋग्वेद 10.97.3
अर्थात – ये औषधियाँ फूलवाली और बीजवाली (प्रसूवरी) हैं। जिस प्रकार अश्व मार्ग को व्याप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार ये औषधियाँ शरीर में व्याप्त होकर रोग का निरोध करती हैं, प्रयोग के साथ ही तुरन्त रोगों को जीतने वाली तथा रोग के पार ले जाने वाली हैं, ऐसी औषधियाँ खूब फलें-फूलें।
इनकी उपयोगिता को देखते हुए वैदिक ग्रन्थों में इन्हें माता की संज्ञा दी गई है।वेद का ऋषि अम्ब अर्थात् माता का सम्बोधन करता हुआ इनके विषय में कहता है –
शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुह:।
अधा शतत्रत्वो यूयमिमं मे अगदं कृत।।
– ऋग्वेद 10.97.2
अर्थात- ये माता के समान निर्माण करने वाली, सेवन करने के योग्य औषधियाँ बहुत से स्थानों में उगती हैं और इनके बहुत से उगने के क्रम हैं। इसके अतिरिक्त ये बहुत कर्मवाली और बहुत उपयोग वाली हैं।
अत: वह इनसे रोगरहित करने की प्रार्थना करता है।ऋग्वेद 10.97.4माता के रूप में चित्रित करते हुए इन्हें दिव्य गुणवाली कहता है।एक अन्य मन्त्र ऋग्वेद 10.97.5में कहा गया है कि चिकित्सक के द्वारा सुप्रयुक्त तथा रोगी के द्वारा नियमित रूप से सेवित ये औषधियाँ रोग दूर करती हैं।

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