गौ माता और हमारी आर्थिक समृद्धि

सुबोध कुमार

(लेखक गौ एवं वेद विशेषज्ञ हैं।)

गावो विश्वस्य मातर:। भारतीय परम्परा में गौ को विश्व की माता का स्थान दिया गया है। ऋग्वेद 6.48.13 के अनुसार गौ प्रत्यक्ष में तो केवल दूध देती है, परन्तु परोक्ष में विश्व को जैविक कृषि के द्वारा भोजन भी देती है। अथर्ववेद 10.5.4 के अनुसार ओजस्वी राजा, परिवार के मुखिया और समाज के नेता, अपनी प्रजा को बल, वीर्य और आर्थिक शक्ति से सम्पन्न बनाने के लिए उन्हें भौतिक सुख और मानसिक शांति से प्राप्त ज्ञान, उत्तम सात्विक गौआधारित अन्न और उत्तम स्वास्थ्य के लिए पञ्चगव्य ओषधियां उपलब्ध कराते हैं। इनसे विकसित सात्विक वृत्तियों से समाज जितेंद्रिय होकर संसार में विजय प्राप्त करता है।

इस वेदमन्त्र के समर्थन में कैनेडा के गेल्फ विश्वविद्यालय के जैव विज्ञान के विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. आजाद कौशिक द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि इस सृष्टि में सर्वाधिक रोगनिरोधक शक्ति गौ के पञ्चगव्य उत्पादों में होती है। इसे आधुनिक विज्ञान बेक्टिरियोफाज अर्थात्‌रोगाणु खा जाने वाली शक्ति कहता है। उल्लेखनीय है कि यही क्षमता गंगा के जल में भी होती है। इस विज्ञान को जानने के कारण ही यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही गौ को अघ्न्या यानी जिसके प्रति कभी भी हिंसा नहीं की जाएगी, घोषित कर दिया था। वेदों के इसी निर्देश का पालन भारतवासी अनंत काल से करते आ रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि यह देश गोपालकों के देश के रूप में विश्व में प्रसिद्ध था। हमारे तो भगवान भी गैया चराया करते थे और ब्रह्मज्ञान पाने के लिए गौसेवा को अनिवार्य माना जाता था। यह केवल हमारी आस्था का प्रतीक नहीं था, यह वास्तव में एक विज्ञान था, जिसे हमने जाना था और जिसे हमने प्रयोग करके सही भी साबित किया था। इस संदर्भ में ऋग्वेद का 1.29 सूक्त में गोपालन एवम्‌ शिल्प शिक्षा के महत्व को दर्शाया गया है। इसका अर्थ और उसकी व्याख्या यहाँ प्रस्तुत है। इस सूक्त में एक ध्रुवपंक्ति है जिसका अर्थ है कि अच्छी गौओं और अश्वों के पालन से हमें सत्यवादिता का गुण और शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त होता है तथा ऊर्जा और वेग से युक्त हजारों श्रेष्ठ साधन प्राप्त होता है और उन साधनों से अनेक प्रकार की प्रशंसनीय विद्या और धन से हम सम्पन्न होते हैं। यह प्रत्येक मंत्र के अंत में आया है और इसलिए इसे बारबार नहीं दिया जा रहा है।

ऋग्वेद 1.29 का पहला मंत्र कहता है कि अल्पज्ञ यानी बुद्धिहीन और साधनविहीन व्यक्ति भी गौओं का पालन करने से हजारों प्रकार के वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, कर्मठ बनते हैं और फिर वे यशस्वी और ऐश्वर्यशाली बनते हैं। गौपालन से प्राप्त बुद्धि के कारण वे सांसारिक भोग विलास में लिप्त नहीं रहते। अच्छी गौओं और अश्वों के पालन से हमें सत्यवादिता का गुण और शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त होता है तथा ऊर्जा और वेग से युक्त चारों ओर से अच्छे उत्तम सहस्रों साधनों से अनेक प्रकार की प्रशंसनीय विद्या और धन से हम सम्पन्न होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि गौपालन समाज में एक स्वस्थ और संपन्न समाज के निर्माण में सहायक होता है। गौपालन से आई समृद्धि से मनुष्य में स्वार्थ बुद्धि पैदा नहीं होती और वह समाज के लिए घातक नहीं बनता। इस बात को हम आज की शब्दावली में समझना चाहें तो कह सकते हैं कि गौपालन से आने वाली समृद्धि में पूंजीवाद के अवगुण नहीं होते और वह समाजवादी व्यवस्था के निर्माण में सहायक होती है।

इस सूक्त के दूसरे मंत्र में कहा गया है कि गौपालन से लोगों में समाज के हित में आवश्यक, परमार्थ की बड़ी बड़ी समाजसेवा की योजनाओं को बनाने तथा क्रियान्वित करने की मानसिकता और सामथ्र्य आती है। इस प्रकार यह मंत्र पहले मंत्र के अंत में कही गई अंतिम बात को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि गौपालन करने वाले व्यक्ति और समाज में स्वाभाविक रूप से समाज का हित करने तथा उसके लिए योजनाएं बनाने करने की मानसिकता भी पैदा होती है और साथ ही उन योजनाओं का क्रियान्वयन करने की सामथ्र्य भी पैदा होती है। इससे समाज में समरसता और सौहाद्र्र पैदा होता है।

सूक्त का तीसरा मंत्र इस विषय को और स्पष्ट करते हुए कहता है कि विषयासक्ति अर्थात खोटे काम व प्रमाद के प्रभाव से बुद्धि, शरीर और मन काम नहीं करते। पुरुषार्थ का विनाश हो जाता है, नींद उड़ जाती है, मनुष्य निराशा से भरकर निष्क्रिय हो जाता है। उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। गौपालन से उसकी यह सारी स्थिति सुधर जाती हैं।
चौथा मंत्र कहता है कि गौपालन से लोगों में समाजसेवा के लिए दान न देने की वृत्ति का विनाश होता है। उपयुक्त दान आदि धार्मिक कार्यों की पहचान करने तथा समाज के शत्रुओं तथा बाधाओं को नष्ट करने की क्षमता उत्पन्न होती है। इस प्रकार यह मंत्र बताता है कि गौपालन करने से लोग दानशील बनते हैं तथा वे समाज का अहित करने वालों को समाप्त भी करते हैं।

इस सूक्त का पाँचवें मंत्र में कहा गया है कि उत्तम गुण युक्त गौओं के पालन और सेवा करने से पीठ पीछे यानी किसी की अनुपस्थिति में उसके बारे में मिथ्या भाषण करने वाले निंदक, गधे के समान कर्कश स्वर बोलने वाले परंतु सामने मिल जाने पर स्तुति करने वाले चाटुकार एवं झूठे प्रशंसक, शत्रुओं के पक्ष में झूठी गवाही देने वालों का उन्मूलन करने की क्षमता निश्चित ही प्राप्त होती है। इस मंत्र का अभिप्राय यह है कि गौपालक समाज में पीठपीछे निंदा करने की प्रवृत्ति का नाश हो जाता है, चाटुकारिता तथा झूठी प्रशंसा करने की वृत्ति समाप्त होकर स्पष्टवादिता की वृत्ति आती है।

मानव समाज पर गौपालन के प्रभाव का वर्णन करने के बाद सूक्त का छठा मंत्र गौपालन का प्रकृति पर प्रभाव के बारे में बताता है। इसमें कहा गया है कि गौओं और अश्वों अर्थात् समस्त शाकाहारी पशुओं जब जंगलों, गोचरों की धरती में चरते है तो वहाँ की मट्टी में उनका गोबर-गोमूत्र गिरता है, इससे वहाँ की धरती में वर्षा के पानी को सोखने की क्षमता बढ़ जाती है। वनों और गोचरों के ठीक प्रबंध से वहाँ की हरियाली की सुरक्षा होती है जिससे पर्यावरण सुरक्षित होता है। इसके प्रभाव से पर्यावरण में कुटिल गति यानी अनायास आने वाले आंधी-तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं नहीं आतीं। यह विषय अधिक विस्तार से ऋग्वेद के छठे मंडल के 47वें सूक्त में पाया जाता है।

इस बात को विश्व के जैवविज्ञानी भी अब स्वीकार करने लगे हैं। उल्लेखनीय है कि 1950-70 के समय दक्षिणी अफ्रीका में स्थित दक्षिणी रोडेशिया जोकि वर्तमान में जिम्बाबे देश है, में पर्यावरण वैज्ञनिक एलेन सेवॅरी ने इस बात को सही साबित किया है। वहां के वन क्षेत्रों पर इस वैदिक ज्ञान का प्रत्यक्ष में अनुभव के आधार पर अनुमोदन किया गया है। एलन सेवरी स्वयं अब विश्वस्तर पर बंजर भूमि में शाकाहारी पशुओं को पालकर उन्हें गोचर और कृषि योग्य बना रहे हैं। भारत में भी बंजर हुई भूमि को गौपालन तथा अन्यान्य शाकाहारी पशुओं के पालन द्वारा उपजाऊ बनाया जा सकता है। प्राचीन काल से गौओं को चरने के लिए खुला छोडऩे का नियम इसी लिए बनाया गया था।

सातवां मंत्र बताता है कि गौ आदि शाकाहारी पशुओं के पालन से समाज में सबको दुख देने वाले समाज के प्राकृतिक शत्रुओं का विनाश होता है। प्राकृतिक शत्रुओं का अर्थ है कि प्रकृति के जो विनाशकारी प्रभाव हैं, वे सभी शाकाहारी पशुओं को पालने से दूर होते हैं। इसका दूसरा अभिप्राय यह भी हो सकता है कि समाज में जो स्वाभाविक रूप से दुष्टता होती है, उसका नाश होता है और सद्बुद्धि आती है।

इस प्रकार ऋग्वेद का यह सूक्त हमें बताता है कि एक सुखी, संपन्न, समृद्ध तथा शांति-सद्भाव से युक्त समाज के निर्माण में गौ तथा समस्त शाकाहारी पशुओं का पालन विशेष रुप से महत्वपूर्ण है। हमारा इतिहास इसकी पुष्टि भी करता है। जबतक यह देश गौपालक बना रहा, यहाँ सुख-शांति और समृद्धि बनी रही।

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