दैनिक यज्ञ में 16 आहुतियां ही क्यों

इसके पश्चात दैनिक यज्ञ की आहुतियां दी जाती हैं, दैनिक यज्ञ के लिए 16 आहुतियों का विधान किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को दैनिक यज्ञ में 16 आहुतियां ही देनी चाहिएं।

इसका कारण है कि हम प्रति मिनट औसतन 16 श्वांस लेते हैं, इस सोलह के गुणाभाग से 24 घंटे में 16 किलो प्राणवायु एक व्यक्ति के लिए चाहिए। यदि हम यज्ञादि नहीं करते हैं तो सृष्टि के पवित्र यज्ञ में सम्मिलित न होकर सृष्टि क्रम को बिगाडऩे में सम्मिलित हो जाते हैं। दैनिक यज्ञ करने का अभिप्राय है कि अपना काम अपने आप करना। हमें जितनी प्राणवायु चाहिए उतनी प्राणवायु के लिए स्वयं यज्ञ करके वांछित प्राणवायु से भी अधिक प्राणवायु तैयार करके ईश्वरीय कार्य में सहायता देना। यह है वास्तविक समाजवाद और यही है वास्तविक मानवता। जहां हर व्यक्ति स्वभावत: प्राणिमात्र की सेवा में लगा है। उससे किसी ने कहा नहीं है, बस अपने आप अपने संस्कारों के वशीभूत होकर यंत्रवत कार्य करता जा रहा है।

इसलिए बिगड़ी हुई प्राणवायु की शुद्घि के लिए संध्याकाल में यज्ञ अवश्य करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि आपके लिए 16 आहुतियां देना ही पर्याप्त है। यदि आपके पास समय है, सामर्थ्य है, साधन है और सबसे बढक़र पूर्ण श्रद्घा है तो आप 16 से अधिक आहुतियां भी दे सकते हैं। आप जितनी भी आहुतियां देंगे वे सभी पुण्यकारी और लाभदायक ही होंगी और हर जीवधारी के लिए कल्याणकारी होंगी। इन आहुतियों से पर्यावरण में सोम और भैषज्य तत्वों की मात्रा बढ़ती है, जिसका लाभ हर प्राणधारी को समान रूप से मिलता है। कहने का अभिप्राय है कि यज्ञादि के करते रहने से प्राणियों को नीरोगता का लाभ मिलता है। भयंकर रोगों की उत्पत्ति नहीं होने पाती है और सर्वत्र स्वच्छता रहने से स्वस्थता में भी वृद्घि होती है। आजकल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस ‘स्वच्छता अभियान’ पर बल दे रहे हैं, वह तभी पूर्ण होगा जब उसके साथ आप ‘यज्ञ’ को जोड़ देंगे। यज्ञ अस्वच्छता को समूल नष्ट करने की सामथ्र्य रखता है। अथर्ववेद (3/11 /1) में आया है-‘मुञ्चामि त्वांहविष जीवनाय कम।’ एक चिकित्सक कह रहा है कि हे रोगी! तुम्हें सुखपूर्वक जीने के लिए होम द्वारा रोग बंधनों से मुक्त करता हूँ।

इस चिकित्सक की यह उद्घोषणा समझो कि हमारा स्वास्थ्य बीमा कर देना है। वह पूर्णत: आश्वस्त कर रहा है हमें कि होम की शरण में आओ और नीरोगता पाओ।

आज संसार के अधिकांश व्यक्ति मानसिक अस्तव्यस्तता और मानसिक रोगों से अधिक पीडि़त हैं। असंतुलित जीवनशैली और अमर्यादित दिनचर्या ने व्यक्ति को सबसे बड़ा रोग तनाव का लगाया है। इस रोग के कारण हर व्यक्ति सोचता कहीं है, चलता कहीं है, बोलता कहीं है, कहता कुछ है-करता कुछ है। ऐसी मानसिकता स्पष्ट करती है कि मनुष्य के भीतर का वह प्रकाश उससे लुप्त हो गया है, जिसकी चाह उसे जन्मजन्मांतरों से बनी रही है। यज्ञ करने से मनुष्य ईश्वर का सामीप्य और सान्निध्य अनुभव करता है। इससे उसकी मानसिक शक्तियां बलवती होती हैं, और उसकी एकाग्रता बढ़ती है। एकाग्रता के बढऩे से मनुष्य अपनी समस्याओं के समाधान के प्रति सजग और सावधान होता है और उनके समाधान बड़ी सरलता से ढूंढ़ लेता है। इसका एक कारण यह भी कि यज्ञ हवन करने से और ईश्वर का सामीप्य और सान्निध्य प्राप्त करने से मनुष्य के अंतर्मन में अहंकारशून्यता का प्रादुर्भाव होता है जिससे उसका कर्ताभाव समाप्त हो जाता है। उसके भीतर आत्मबल बढ़ता है और ईश्वर के प्रति वह समर्पित होकर अपने कार्यों को पूर्ण करता चलता है। ऐसी प्रवृत्ति बन जाने से व्यक्ति की जीवनचर्या और दिनचर्या मर्यादित और संतुलित होती चली जाती हैं। जिससे मनुष्य को आत्मिक शांत का बोध होता है और वह आत्मज्ञान के प्रकाश में अपने जीवन को उन्नति पथ पर अग्रसर करता चलता है।

यज्ञ हवन करने से ऐसी स्थिति प्राप्त होती है। जिन लोगों को या साधकों को या यज्ञप्रेमी महानुभावों को ऐसी अवस्था प्राप्त हो जाती है उनके चेहरे का आभामंडल दूसरे लोगों पर अलग ही प्रभाव डालता है।

वेद में ऐसे अनेकों मंत्र हैं जो रोग निवारक हैं। उन्हें उचित क्रिया के माध्यम से होम के समय बोलने से कितने ही रोगों का शमन हो जाता है। हमारे ऋषि लोग प्राचीन काल में यज्ञ हवन से ही वायुमंडल को शुद्घ रखते थे और न केवल वायुमंडल को शुद्घ रखते थे अपितु अपने आपको निरोगी भी रखते थे। हमारे देश में आजादी मिलने तक बहुत कम लोग बीमार होते थे। इसका कारण यही था कि हमारे देशवासी परम्परागत रूप से अपने पूर्वजों के दिये ज्ञान के आधार पर यज्ञ आदि से जुड़े रहते थे, दूसरे यज्ञादि करने से उनकी बुद्घि शुद्घ रहती थी, इसलिए खाद्य पदार्थों में मिलावट करना या खाद्य पदार्थों को मानव जीवन के लिए हानिकारक बनाना वह पाप समझते थे। जिसका परिणाम यह होता था कि लोग निरोगी रहते थे।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लोगों की सोच में परिवर्तन आया और यज्ञ हवन के माध्यम से परमार्थ को अपने जीवन का आधार और श्रंगार बनाकर चलने वाले भारतवासियों का एक बड़ा वर्ग यज्ञ हवन से कटकर परमार्थ के स्थान पर स्वार्थ के गहरे गड्ढे में जा गिरा। जिससे खाद्य पदार्थों में मिलावट करना या उन्हें हानिकारक बना देना लोगों ने अपना व्यवसाय बना लिया। परिणामस्वरूप आज देश की सवा अरब की आबादी में से एक अरब से अधिक लोग रोगी हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या का रोगी होना बताता है कि हमने यज्ञ हवन की अपनी प्राचीन परम्परा को छोडक़र कितना अनर्थ कर लिया है?

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