स्वकथन
लिखो!
बस-
लिखो!!
मेरी कविता
विश्व-प्रिया
मित्र है जन-जन की
पीड़ा-
अतृप्त हृदय की
उच्छवास है-
किसी अभावग्रस्त श्वास की अभिव्यक्ति है
जीवन के भीतर की बाहर की
मुर्दा मुस्कानों को ढ़ोते
किसी जीवित शव की
सड़क पर खामख्वाह विचरते
दिमाग की
कालेज,क्लब,महानगर के
कठफोड़वे की
शब्दों के दांव-पेंचों में
लुढ़कते किसी वाद की
पहाड़,जंगल,गांव और
शहर में बिलखती
बेबसी,व्याधि,भुखमरी
गरीबी के अन्तर्नाद की
मुझमें वाल्मीकि से कालिदास तक
प्रसाद से निराला
शेक्सपियर से एजरापाउंड तक
प्राचीन-नवीन
देश-विदेश के
कितने ही सरस्वती-पुत्र
जिंदा हैं
पर
मुझे अंधानुकरण नहीं भाता
महन्तों,मठाधीशों के चरण छूना
स्वांग भरना,चारण बनना
गुरूडमी अनुगमन नहीं आता
हां,कभी ‘ट्रांस’ होता है
तो एक के बाद एक
और फिर अनेक
सरस्वती-पुत्र
बोलने लगते हैं
मेरे अंदर से
क्षणभर के बाद
छूट जाता है सबका साथ
और मैं
अपने पथ के निर्माण में लग जाता हूं
अकेला पड़ जाता हूं
मसीहा बनने के लिए नहीं
और न ही कोई नया स्टंट
खड़ा करने को
डॉ श्याम सिंह शशि
क्रमशः