वैदिक सम्पत्ति – 318 *वैदिक आर्यों की सभ्यता*

[यह लेखमाला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रस्तुति – देवेंद्र सिंह आर्य
(चेयरमेन उगता भारत)

गतांक से आगे…

 *नियमों से कारणों का पता* 

इस कार्यरूप सृष्टि में तीन नियम बहुत ही स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ते हैं। एक तो यह कि इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ नियम पूर्वक परिवर्तनशील है, दूसरा यह कि प्रत्येक जाति के प्राणी अपनी जाति के ही अन्दर उराम, मध्यम और निक्कृष्ट स्वभाव से पैदा होते हैं और तीसरा यह कि इस विशाल सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है, बह सब नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है ।

इन तीनों प्रत्यक्ष नियमों में सबसे पहिला नियम नियमित परिवर्तनशीलता का है। बड़े बड़े सूर्यादि ग्रह-उपग्रहों से लेकर मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट-पतङ्ग और तृणपल्लव तक में नित्य परिवर्तन दिखलाई पड़ता है। जिस पदार्थ की आज से सौ वर्ष पूर्व जैसी स्थिति थी, वह आज नहीं है और जोनाज है, वह सौ वर्ष बाद न रहेगी। जन्म, बाल, युवा और विनाश का क्रम जारी है घौर 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः' के अनुसार उत्पन्न होकर नष्ट होने का नियमित नियम परिवर्तनरूप से चल रहा है। परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि यह परिवर्तन का नियम इस सृष्टि का स्वाभाविक गुण नहीं है, क्योंकि स्वभाव में परिवर्तन नहीं होता। जो लोग कहते हैं कि इस सृष्टि का परिवर्तन ही स्वभाव है, वे गलती पर हैं। वे भूल जाते हैं कि परिवर्तन नाम अस्थिरता का है और स्वभाव में अस्थिरता नहीं होती। फेरफार, उलटपलट यादि अस्थिर गुण तो नैमित्तिक हैं, स्वाभाविक गुण तो वही हैं, जिनका अपने द्रव्य के साथ समवाय सम्बन्ध है- नित्य सम्बन्ध है। इसलिए इसे सृष्टि का परिवर्तन ही स्वभाव मानना उचित नहीं है। परिवर्तन ही स्वभाव मानने से प्रकृति में अनन्त परिवर्तन अर्थात् अनन्त गति मानना पड़ेगी और एक समान अनन्त गति मानने से संसार में किसी प्रकार के ह्वासविकास के मानने की गुञ्जायश न रहेगी। किन्तु सृष्टि में पदाथों के बनने और चिगड़‌ने का क्रम नित्य देखा जाता है, इसलिए सृष्टि का परिवर्तन नैमित्तिक ही प्रतीत होता है स्वाभाविक नहीं ।

  बनने और बिगड़ने तथा जन्म और मृत्यु के नित्य दर्शन से ज्ञात होता है कि यह सृष्टि अनेक छोटे छोटे टुकड़ों से बनी है। संसार का चाहे जो पदार्थ लीजिये वह झुक जायगा, टेढ़ा हो जायगा और टूट जायगा। यहाँ तक कि बिजली और ईयर भी टूट जाता है। अतएव सिद्ध होता है कि समस्त संसार छोटे छोटे परमाणुधों से ही बना है। क्योंकि यदि संघात से संसार न बना होता घौर केवल एक ठोस चीज से ही बना होता, तो न इसमें परिवर्तन ही होता और न कभी कोई चीज बनती, न ही बिगड़ती। किन्तु हम पदार्थों को नित्य बनते बिगड़ते और परिवर्तित होते देख रहे हैं, इसलिए सृष्टि के इस परिवर्तनरूपी प्रधान नियम के द्वारा कहते हैं कि सृष्टि के मूल कारणों में से यह एक प्रधान कारण है, जो खण्ड लण्ड, परिवर्तनशील और परमाणुरूप से विद्यमान है। परन्तु प्रश्न होता है कि क्या ये परमाणु चेतन और ज्ञानवान् भी हैं ? इसका उत्तर बहुत ही सरल है। यदि ये परिवर्तनशील परमाणु ज्ञानवान् भी होते तो वे नियमपूर्वक काम न करते। क्योंकि चेतन और शानवान् दूसरे के बनाये हुए नियमों में बंध ही नहीं सकता। बह सदैव अपनी ज्ञानस्वतन्त्रता से निर्धारित नियमों में बाधा पहुंचाता है। पर हम देखते हैं कि सृष्टि के परमाणु बड़ी ही सच्चाई से अपना काम कर रहे हैं। बशरीर में या सृष्टि के अन्य जड़ पदाथों में जिस जगह लगा दिये गये हैं, यहाँ साँस बन्द करके अपना काम कर रहे हैं और जरा भी इधरउबर नहीं होते। इससे ज्ञात होता है कि इस सृष्टि का परिवर्तनशील कारण जो परमाणुरूप से विद्यमान है, बह शानवान् नहीं किन्तु जड़ है। इसी जड़, परिवर्तनशील और परमाणुरूप उपादान-कारण को माया, प्रकृति, परमाणु, माद्दा और मैटर आदि नामों से कहा गया है और संसार के कारणों में से एक समझा जाता है।

     सृष्टि का दूसरा नियम प्राणियों के उत्तम और निकृष्ट स्वभाव का है। अनेक मनुष्य स्वभाव से ही बड़े प्रतिभावान्, सौम्य और दयावान् होते हैं और अनेक मूर्ख, उहण्ड तथा निर्देय होते हैं। इसी प्रकार अनेक गौ, घोड़ा आदि पशुस्वभाव से ही सीधे गरीब होते हैं और अनेक क्रोधी और दौड़दौड़कर मारनेवाले होते हैं। इसी तरह बहुत से वृक्ष मीठे फलों से मनुष्यों की तृप्ति करते हैं और बहुत से वृक्ष ऐसे भी हैं, जो पास में आये हुए प्राणियों को पकड़कर चूस लेते हैं और खा जाते हैं। इस प्रकार से समस्त प्राणिसमूह के स्वभावों में विरोष है। यह स्वभावविरोध शारीरिक प्रर्यात् भौतिक नहीं है. प्रत्युत आध्यात्मिक है, जो चैतन्य, बुद्धि और ज्ञान से सम्बन्ध रखता है। इस प्रकार के बुद्धिसम्बन्धो प्रमाण वृक्षों में भी पाये जाते हैं। तारीख २४ फेब्रुआरी सन् १९३० के 'लीडर' पत्र में छपरा है कि 'बगीचों में पड़े हुए नलों के सूरासों को वृक्ष ताड़ लेते हैं और उन सुराखों में अपनी जड़ें डाल देते हैं। इसी तरह एक बेल ऐसी है, जो किसी वृक्ष की चोटी तक जाकर जमीन में वापस आती है और फिर दूसरे वृक्ष में चढ़ने के लिए दौड़ती है, चाहे भले वह वृक्ष पाय गान की ही दूरी पर क्यों न हो' । परन्तु यह न समझना चाहिये कि यह ज्ञान प्राणियों के सारे शरीर में व्याप्त है। यह सारे शरीर में व्याप्त नहीं है। क्योंकि यदि सारे शरीर में व्याप्त होता तो हाथ, पैर, बान और नाक के कट जाने पर यह भी कट जाता और कटा हुआा ज्ञानांश कम हो जाता, पर हम देखते हैं कि दोनों टाँगें जड़ से काट देने पर भी किसी गणितज्ञ के गणितसम्बन्धी ज्ञान में या इतिहासज्ञ की इतिहास सम्बन्धी बाददास्त में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता और न उसको यही मालूम होता है कि मेरा ज्ञान पहिले से कम है। इसलिए यह निश्चित और निविवाद है कि ज्ञानवाली शक्ति सारे शरीर में व्याप्त नहीं है, प्रत्युत वह एकदेशी, परिच्छित्र और अणुरूप ही है, क्योंकि सूक्ष्मातिसूक्ष्म कृमियों में भी मौजूद है।

क्रमशः

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